रविवार, जुलाई 19, 2009

नज़्म - ये शहर छोड़ के गया था जब

नज्म
ये शहर छोड़ कर गया था जब
मेरे सारे ही बाल काले थे
रंग की बात क्या करे कोई
आज लौटा हूं सिर पै बाल बिना
नौकरी पी गयी जवानी को

बैंक में फन्ड का जमा पैसा
पेंशन हर महीने मिलती है
है मना पर मिठाई का खाना
खोया खाओ तो गैस बनती है
पानी हरदम उबाल कर पीना

ये शहर भी बदल गया कितना
घर के बाहर चबूतरे होते
सब सुबह बैठ के दातुन करते
संग संग हाल चाल लेते थे
अब नहीं खोलता है द्वार कोई
अब किवाड़ों में आंख होती है
और भी संकरीं हो गयीं गलियां
सारी सड़कें भरी भरी रहतीं
जिन पर हम हाथ डाल चलते थे

लड़कियों वाले कुछ मकान भी थे
जिनमें से खुशबुएं सी आती थीं
आज भी उनकी याद बाकी है

लड़कियां बूढी हो गयीं होंगीं
और जाने कहां कहां होंगीं
क्यों नहीं भूला इन मकानों को
अब भी वह राह गुदगुदाती है

सारे मंजर नये नये से है
पर खड़ा जो महल था टीले पर
आज भी वैसा ही खड़ा है वो
चार सौ साल हो गये उसको
चौदह पीढीं भुगत चुका है वो
उसकी रंगत भी न खराब हुयी
रश्क होता है इस अमरता पर
हम चले जायेंगे मगर इसकी
एक दीवार भी न कांपेगी

शायद उम्रें दराज करने को
सारे इंसान हो रहे पत्थर

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