शुक्रवार, मई 20, 2011

बामपंथ की तथाकथित चुनावी हार


बामपंथ की तथाकथित चुनावी हार
वीरेन्द्र जैन
पश्चिम बंगाल और केरल के विधानसभा चुनावों में बामपंथी दलों की चुनावी हार के प्रति गैरबामपंथी दल और संगठन मुक्त बुद्धिजीवी कुछ अधिक ही संवेदनशील हो रहे हैं। उन्हें ऐसा लगता है जैसे कि बामपंथ भी दूसरे दक्षिणपंथी दलों की तरह चुनाव लड़ने, सरकार बनाने और सत्तासुख लूटकर घर भरने वाले दल हों व सरकार जाने से वे विधवा विलाप कर रहे होंगे। दूसरी ओर बामपंथियों का ही एक वर्ग चुनाव लड़ने वाले बामपंथी दलों को बामपंथी मानने तक से इंकार करता है। दर असल ये गैरबामपंथी बुद्धिजीवी, और हिन्दी के कई नये पत्रकार बामपंथी दलों के बारे में बिल्कुल ही अनपढ हैं और उन्हें चुनाव लड़ने वाले बामपंथी दलों, उनकी घोषणाओं, और कार्यक्रमों के बारे में प्रारम्भिक जानकारी भी नहीं है।
बामपंथी दलों के लिए चुनाव लड़ना इस पूंजीवादी सामंतवादी समाज में केवल जनता के बीच जाने और उनके बीच अपनी बात कहने का मंच भर होते हैं। संयोग से यदि चुनाव के सहयोगी दलों के साथ सरकार बनाने लायक बहुमत आ जाता है तो भी वे सरकारों में तब ही शामिल होते हैं जब वे स्वतंत्र रूप से अपने कार्यक्रमों को लागू कर सकें। पिछले दिनों जब सीपीएम को प्रधानमंत्री पद तक थाली में रख कर पेश किया गया था तब भी सीपीएम की केन्द्रीय समिति ने उसे दो बार बहुमत से ठुकरा दिया था। क्या कोई दक्षिणपंथी पार्टी ऐसा कर सकती थी! चन्द्रशेखर, देवगौडा, ही नहीं मोरारजी देसाई, चौधरी चरण सिंह, नरसिंहाराव और अटल बिहारी बाजपेयी तक कैसे कैसे समझौते करके और बहुमत की गलतबयानी तक करके अधिकतम सम्भव समय के लिए कुर्सी से चिपके रहे हैं, या रहना चाहते थे। इसके विपरीत ज्योति बसु ने उक्त महानुभावों की तुलना में अपेक्षाकृत बेहतर स्वास्थ और बेहतर समर्थन होते हुये भी एक उम्र के बाद मुख्यमंत्री की कुर्सी छोड़ दी थी। बामपंथी पार्टियों में नेता कितना भी बड़ा हो उसे नेतृत्व के बहुमत की बात स्वीकारना होती है, जबकि दक्षिणपंथी दलों में से अधिकांश तो नेता आधारित दल ही हैं जिनमें ‘नेता-वाक्य’ ही अंतिम होता है। ताजा विधानसभा चुनावों में जीतने वाली जयललिता और ममता बनर्जी ऐसे ही उदाहरण हैं तथा हारने वालों में करुणानिधि भी भिन्न नहीं थे। शिव सेना, बहुजन समाज पार्टी, बीजू जनता दल, समाजवादी पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल, राष्ट्रीय लोकदल, तेलगूदेशम, आदि सब नेता आधारित पार्टियां हैं, जहाँ पार्टी लोकतंत्र दूर दूर तक भी नहीं पाया जाता। कांग्रेस तक में सारे बड़े फैसले सोनिया गान्धी पर छोड़ दिये जाते हैं, जिन्हें कांग्रेस के बारे में दूसरे महत्वपूर्ण कांग्रेसियों से अधिक ज्ञान नहीं है। कहा जा रहा है कि इन चुनावों में बामपंथ के जनसमर्थन में कमी आयी है और यह उनके सिद्धांतों, विचारों के प्रति लोगों के मोह का टूटना है। इसके लिए चुनाव परिणाम में प्राप्त मतों पर निगाह डालनी होगी। पाँच विधानसभा के लिए हुए चुनावों में सारे पूंजीवादी मीडिया का ध्यान केवल बंगाल पर केन्द्रित था जैसे केवल एक ही राज्य में चुनाव हो रहे हों। इसमें भी मतदान के दिन तक भी बामपंथ के पराजय की पूर्व घोषणाएं गुंजायी जा रही थीं जो यथार्थ नहीं अपितु अपने मालिकों की चापलूसी में उनकी आकांक्षाओं की प्रतिध्वनियां थीं। प्रसिद्ध व्यंग्यकार शरद जोशी ने एक बार लिखा था कि किसी भी व्यक्ति से पूछो कि वो किसको वोट देगा तो वह कभी भी साफ नहीं बताता, पर ये मीडिया वाले व्यक्ति तो छोड़िए पूरे चुनाव क्षेत्र, जिले और पूरे प्रदेश तक के बारे में आश्चर्यजनक घोषणा कर देते हैं कि प्रदेश में किसका जोर है। पिछले कई चुनावों से वे ऐसा ही कर रहे थे और हर बार उनकी घोषणाएं बुरी तरह गलत साबित हुयी थीं। इस बार अगर मीडिया के एक वर्ग का तुक्का लग गया तो वे अपनी पिछली पूर्व घोषणाओं की ओर क्यों नहीं देखते जो पूरी तरह गलत साबित हुयी थीं। पिछली बार भी उन्होंने अपनी आकांक्षाएं ही प्री पोल की तरह घोषित कर डाली थीं। अभी भी क्या किसी मीडिया ने इस सच को कहीं बतलाया है कि बामपंथ को 2009 के लोकसभा चुनावों में मिले मतों में कोई कमी नहीं आयी है अपितु उनके वोटों की संख्या ग्यारह लाख बढ गयी है। उनको मिले मतों का प्रतिशत कुल एक प्रतिशत घटा है जबकि कुल मतदान में कई प्रतिशत की बढोत्तरी हुयी है। क्या 35 साल से किसी आन्दोलनकारी पार्टी का सत्ता में बना रहना और 40 प्रतिशत से ऊपर मत पाते रहना कम महत्वपूर्ण है जबकि आन्ध्रा, महाराष्ट्र समेत कांग्रेस शासित किसी महत्वपूर्ण राज्य की सरकार के पास इतना समर्थन नहीं है। यहाँ तक कि नीतीश कुमार के जिस शासन को अन्ना हजारे समेत अनेक लोग सराहते हैं, को भी चालीस प्रतिशत से अधिक मत नहीं मिलते। इस बार भी तृणमूल कांग्रेस और कांग्रेस के गठबन्धन को पिछले चुनावों से कुल चौंतीस लाख वोट अधिक मिले पर सीटें जरूर दो तिहाई से ज्यादा मिल गयीं।
बामपंथी दलों में सीपीआई और सीपीएम चुनाव आयोग से राष्ट्रीय मान्यता प्राप्त दल ही नहीं हैं अपितु राष्ट्रव्यापी दल भी हैं। वे जम्मू कश्मीर राज्य से लेकर तामिलनाडु और अंडमंड निकोबार तक अपनी उपस्तिथि रखते हैं व एक ही सिद्धांत और कार्यक्रम को स्वीकारते हैं। यही कारण है कि उनके संगठन और कार्यक्रम में क्षेत्र या भाषा के आधार पर कोई फर्क नहीं पढता। बंगाल के ज्योति बसु, केरल के नम्बूदरिपाद या प्रकाश करात, पंजाब के हरकिशन सिंह सुरजीत, आन्ध्र के सीताराम येचुरी, महाराष्ट्र के बीटी रणदवे, सब एक ही कार्यक्रम पर सहमत होते हैं। उनकी बैंकों, जीवन बीमा निगमों, रेलों, एयर लाइनों के कर्मचारियों की यूनियनें पूरे देश में एक आवाज के साथ उठ खड़ी होती हैं। यदि उनके पूर्वजों द्वारा रखे गये नामों को छोड़ दिया जाये तो उनकी पहचान एक भारतीय की पहचान होकर ही उभरती है। उन्होंने ही सबसे ज्यादा अंतर्जातीय और अंतर्क्षेत्रीय विवाह किये हैं। नई पीढी के कम्युनिष्टों को तो उनके क्षेत्र के आधार पर नहीं पहचाना जा सकता। इसके विपरीत राष्ट्रवाद के ढोंग से दल चलाने वाले अपने अपने क्षेत्रों के आधार पर अपनी अलग पहचान रखते हैं। बामपंथियों में न धर्म का भेद है न जाति का। न उनके नेता फिल्मी कलाकार बनते हैं, न क्रिकेट खिलाड़ी। उनके उम्मीदवारों में न तो पूर्व राजा रानी होते हैं न धार्मिक भेषधारी। न उद्द्योगपति होते हैं न पूर्व प्रशासनिक, पुलिस या सेना के अधिकारी। वे अपने राजनीतिक विचार और कार्यक्रम के आधार पर जनता के बीच जाते हैं। वे चुनाव में काले धन वालों से पैसे लेकर नहीं उतरते हैं। स्मरणीय है कि उक्त चुनावों में कुल ग्यारह करोड़ रुपया पकड़ा गया था जो मतदाताओं में बाँटने के लिए ले जाया जा रहा था और न जाने कितना तो बाँटा जा चुका होगा। पर ऐसा आरोप बामपंथी दलों पर कभी नहीं लगा। उनका कोई सांसद विधायक न तो दल बदल का शिकार हुआ, न ही सांसद निधि बेचते पकड़ा गया। न उन्होंने सवाल पूछने के लिए पैसे माँगे और ना ही कबूतरबाजी जैसे काले कारनामों से अपना मुँह काला करवाया। इसके बाद भी अगर कहीं किसी विकृत्ति की भनक लगी तो उनके खिलाफ कठोर कार्यवाहियां कीं।
इन चुनावों में जो लोग पश्चिम बंगाल में बामपंथ की हार और उसकी जगह तृणमूल कांग्रेस की अभूतपूर्व विजय से गददायमान हैं उनके लिए यह जानना भी जरूरी है कि जहाँ 2006 के चुनावों में कुल दो प्रतिशत करोड़ पति थे वहीं 2011 के चुनावों में 16 प्रतिशत करोड़पति विधायक हैं और इनमें भी शतप्रतिशत करोड़पति विधायक ममता बनर्जी कांग्रेस गठजोड़ के हैं जो ममता की सादगी और कम सम्पत्ति रखने की पोल खोलते हैं। सबसे अधिक सम्पत्ति रखने वाले पहले तीन विधायक स्वप्न कांति घोष, नूर आलम चौधरी और कस्तूरी दास तृणमूल कांग्रेस के ही हैं। चुनावों के दिनों में एक चार्टर्ड विमान से यात्रा कर रहे जिस व्यक्ति के पास से 57 लाख नकद बरामद किये गये थे वे और कोई नहीं राज्यसभा सदस्य केडी सिंह थे जो वैसे तो हरियाणा के उद्योगपति हैं पर निर्दलियों पर विशेष स्नेह लुटाने वाले राज्य झारखण्ड से पहले निर्दलीय सांसद के रूप में चुने गये और बाद में सोची समझी योजना के तहत तृणमूल कांग्रेस में सम्मलित हो गये थे। लम्बित गम्भीर अपराधों वाले विधायकों की संख्या में भी इस बार विकास हुआ है। 2006 में जहाँ ऐसे विधायक ग्यारह प्रतिशत थे वहीं अब छब्बीस प्रतिशत हैं। तृणमूल कांग्रेस इनमें भी आगे है और सर्वाधिक गम्भीर अपराध वाले तीन विधायक उसीके टिकिट पर चुने गये हैं। केतुग्राम विधायक शेख शहवाज पर एक हत्या, तीन हत्या की कोशिश, और एक हत्या के लिए अपहरण का मुकदमा लम्बित है। हरिपाल के विधायक बेचाराम मन्ना पर हत्या की कोशिश के कुल आठ प्रकरण चल रहे हैं, तो वहीं भाटापारा के अर्जुन सिंह पर हत्या की कोशिश का एक, आत्महत्या के लिए विवश करने का एक और दबंगई का एक प्रकरण लम्बित है। इसी पार्टी की ओर से पूर्व आईएएस, आइपीएस, और उद्योग मंडल के पदाधिकारी जीते हैं
कुल मिला कर इस सच को समझा जाना चाहिए कि बामपंथियों का मूल्यांकन दूसरे दक्षिणपंथी दलों के मापदण्डों पर नहीं किया जा सकता। हो सकता है कि उन्होंने खराब सरकार चलायी हो, अधिकारों को समय से पूर्व अधिक विकेन्द्रीकृत कर दिया हो। नौकरशाही को अधिक छूट दे दी हो या समय के अनुसार अनिवार्य परिवर्तन को जनता के बीच में ले जाने में असफल हो गये हों, जिसके लिए उन्हें सरकार से अपदस्थ होने की सही सजा मिली हो, किंतु यदि उनका विकल्प उनसे बेहतर शासन देने में सक्षम नहीं हुआ तो बाममोर्चे को हरादेने वाले जागरूक चेतन्न लोग उसे भी अपदस्थ करने में देर नहीं कर सकते हैं।



वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मो. 9425674629

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