राजनीतिक सामाजिक और साहित्यिक रंगमंच के नेपथ्य में चल रही घात प्रतिघातों का खुलासा
गुरुवार, सितंबर 02, 2010
घर में नगदी रखने की सीमा को तय किया जाना जरूरी
घर में नगदी रखने की सीमा को तय किया जाना जरूरी वीरेन्द्र जैन
एक समय था जब न तो बैंक होते थे और ना ही लाकरों की सुविधाएं ही थीं तब लोगों को अपना धन और जेवर सुरक्षित रखने के लिये उन्हें जमीनों में गाड़ना पड़ता था। उस समय ज्यादातर घर भी ऐसे होते थे जहाँ कच्ची मिट्टी वाली जगहें हुआ करती थीं जिनमें कहीं घड़ा या धातु के कलशों में जेवर गाड़े जाते थे। ये काम कई बार घरों के बाहर जंगलों में सुनसान जगहों में भी किया जाता था और पहचान के लिए वहां किसी देवता का स्थान जैसा चिन्ह बना दिया जाता था। मन्दिर आदि भी धन गाड़ने के सुरक्षित स्थान माने जाते थे और जिन मुगल शासकों पर मन्दिर तोड़ने के आरोप लगाये जाते हैं उनमें धार्मिक साम्प्रदायिक भावनाओं से अधिक धन की लूट का उद्देश्य होता था। इतिहासकार बताते हैं कि सोमनाथ मन्दिर पर जो हमला किया गया था उसके पीछे वहाँ छुपी अटूट दौलत थी जिसे हमले के बाद मुगल सेना ने लूटा था। देश में तिजोरियों का इतिहास भी बहुत पुराना नहीं है। बहुत सारे साहूकार तो लोगों द्वारा उनके पास सुरक्षा के लिए रखे गये धन को हड़प कर ही सम्पत्तिशाली बने थे।
देश में बैंकों का प्रारम्भ अंग्रेजों के आने के भी बहुत बाद प्रारम्भ हुआ। अंग्रेजों द्वारा स्थापित इलाहाबाद बैंक ने दो दशक पहले और लाला लाजपत राय द्वारा स्थापित पंजाब नैशनल बैंक ने पन्द्रह वर्ष पहले ही अपनी स्थापना की शताब्दी मनायी है। बैंकों में लाकरों की सुविधा प्रारम्भ हुये कुल पचास साठ साल हुये हैं और देश में बैंक शाखाओं के तीव्र विस्तार का काम 1969 में 14 बड़े बैंकों के राष्ट्रीयकरण के बाद ही शुरू हुआ। 1955 तक सभी बैंक प्राइवेट थे और वे सब देश के औद्योगिक घरानों के हाथों में थे। सेंट्रक बैंक टाटा का था, तो यूको बैंक बिड़ला का था, बैंक आफ बड़ोदा बालचन्द हीरानन्द् का था तो ओरंटियल कामर्स बैंक थापर का था, इंडियन बैंक चेटियार का था तो, सिंडीकेट बैंक पइयों का था और दूसरे भी इसी तरह थे। इनके अलावा भी अनेक छोटे छोटे रईसों के बैंकों को मिला कर कुल 566 बैंक थे जो जनता द्वारा जमा धन अपनी मन मर्जी के हिसाब से उपयोग करते थे और बैंकों के डूबने के साथ ही जनता का जमा धन भी डूब जाता था। ये बैंक धीरे धीरे जनता द्वारा जमा धन के साथ डूबते गये और 1969 में इनकी कुल संख्या 89 बची थी। मजबूर होकर सरकार को 1968 में बैंकों पर सोशल कंट्रोल और 1969 में 14 बड़े बैंकों के राष्ट्रीयकरण के कदम उठाने पड़े। इसी समय बैंकों में जमा धन के लिए डिपाजिट इंस्योरेंस एंड क्रेडिट गारंटी कार्पोरेशन द्वारा बीमा कराने की व्यवस्था हुयी। 1969 में जहाँ कुल बैंक शाखाएं 8262 थीं वहीं आज यह संख्या 65000 के आस पास है। औसतन प्रति 15000 की आबादी पर एक बैंक शाखा है और उनका विस्तार दूर दराज के गावों तक है। अधिकतम 18 किलोमीटर की परधि में बैंक सुविधा उपलब्ध है। इसके अलावा सहकारी बैंक, क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक, और पोस्ट आफिसों में भी धन जमा करने की सुविधाओं में विस्तार हुआ है। पिछले पाँच सालों में देश भर में 4000 से अधिक एटीएम स्थापित होने के बाद नगरों और कस्बों में तथा हाईवे पर चौबीसों घंटे धन निकासी की सुविधा उपल्ब्ध हुयी है। इन एटीएम मशीनों और डेबिट क्रेडिट कार्डों एवं मोबाइल बैंकिंग सेवा से रेल के टिकिटों से लेकर विभिन्न प्रकार की खरीदों और बिलों आदि को जमा करने की सुविधा ने अपनी जेबों और घरों में नकदी रखने की मजबूरी से छुट्टी दिलायी है। सीबीएस अर्थात कोर बैंकिंग सिस्टम आने के बाद किसी भी बैंक की किसी भी सीबीएस शाखा से धन का लेन देन किया जा सकता है। पिछले दो दशकों में देश में भ्रष्टाचार में बहुत तेजी देखने को मिली है। इससे परेशान देश की बेचैनी जब तीव्र होने लगी तो पिछले कुछ वर्षों में आयकर विभाग द्वारा छापा मारने की गति में भी तेजी आयी है। राजनेताओं के निकटस्थ लोगों से लेकर, चुनिन्दा नौकरशाहों, निरीक्षकों, पुलिस और फौज के अधिकारियों, ठेकेदारों, व्यापारियों, दलालों, के यहाँ पड़े छापों में करोड़ों रुपयों की मुद्रा और सोना मिलना आम बात हो गयी है। किंतु यह भी देखने को मिलता है कि एक बार ये छापे अखबार की सुर्खियाँ बन जाने के बाद दोषियों को कोई कठोर सजा या दण्ड नहीं मिलता है और वे यथावत अपनी जिन्दगी ऐश के साथ गुजारते देखे जाते हैं। कहा जाता है कि ये लोग थोड़ा टैक्स और जुर्माना अदा करने के बाद आसानी से छूट जाते हैं क्योंकि इनके खिलाफ कोई सबूत नहीं होते हैं और मिले हुए समय में वे झूठे सच्चे हिसाब किताब बनाकर उसे वैध बना लेते हैं। सवाल यह है कि इतनी अधिक बैंक सुविधाओं के बीच इतनी बड़ी मात्रा में मिली धन राशि अपने आप में सबूत क्यों नहीं बनती। क्या यह पर्याप्त सबूत नहीं है कि एक आईएएस अधिकारी या मंत्री को नोटों की गिड्डियां बिस्तरों के नीचे रखने को विवश क्यों होना पड़ता है। उचित दण्ड न मिलने के कारण आर्थिक अपराधियों के बीच कोई भय नहीं व्यापता। वे स्पोर्टमेन स्प्रिट से भ्रष्टाचार का खेल खेलते रहते हैं।
यदि ऐसा कोई कानून नहीं है तो क्या यह उचित समय नहीं है जब लोगों को अपने घरों, व्यापारिक संस्थाओं, और कार्यालयों में निश्चित मात्रा से अधिक नकदी रखे होने की सूचना उसके कारण सहित स्थानीय पुलिस स्टेशन को देना अनिवार्य बनायी जाये, जिसकी अवधि भी अधिकतम एक या दो दिन हो। जब चेक का बिना भुगतान के वापिस होना अपने आप में एक अपराध है तो फिर सीमा से अधिक राशि का घरों में पाया जाना अपराध क्यों नहीं बनाया जाता। इस नियम के कुछ और भी दूसरे लाभ होंगे, जैसे
• घर में सीमा से अधिक धन की सूचना देने वाले के निवास को पुलिस विशेष निगरानी में रख कर उसे सुरक्षा दे सकेगी।
• छापों के दौरान सीमा से अधिक पकड़े जाने पर उसकी आमद की जानकारी की तारीख बतानी होगी जिसे देने वाले के साथ क्रास चेक किया जा सकता है
• ज्यादातर लेन देन चेक और बैंक के माध्यम से होने के कारण नकली मुद्रा के खतरों को कम किया जा सकता है, और अधिक धन प्रचलन में आने के कारण अर्थव्यवस्था को गति दे सकता है
• हिसाब किताब पर नियंत्रण रखा जा सकता है, और टैक्स चोरी का पता लगने की सम्भावनाएं बढ सकती हैं
• हवाला, आतंकवाद, सट्टा, जुआ, आदि अवैध गतिविधियों पर जिनमें अधिकतर नगद का ले देन होता है, अंकुश रखा जा सकता है।
• दहेज, अपहरण, फिरौती आदि के बारे में संकेत मिल सकते हैं
• बड़ी रिश्वतों, चुनावों और दलबदल के लिए धन के प्रयोग आदि पर लगाम लग सकती है। आदि
इसलिए इतनी अधिक बैंक सुविधाओं के होते हुए अकारण एक सीमा से अधिक पुलिस को बिना बताये नकदी रखे जाने को प्रतिबन्धित करना व्यक्ति, समाज, लोकतंत्र और देश के हित में होगा। स्मरणीय है कि पिछ्हले दिनों भाजपा के मुख्यालय की तिजोरी से डेढ करॉड़ रुपये गायब हो गये थे और उन्होंने पुलिस की जाँच कराना भी जरूरी नहीं समझा। बसपा को भी अपने कई रज्यों के अध्यक्षों को अमानत में खयानत के कारण ही हटाना पड़ा था। चुनावों में व्यय जब पारदर्शी होगा तो लोकतंत्र सफल होने की ओर बढेगा तथा सदन में करोड़ पतियों की जगह सिद्धांतवादी कर्मठ राजनीतिज्ञ अधिक पहुँचेंगे। बैंकों में भी जो गोपनीयता का कानून है उसके अंतर्गत भी अदालत, पुलिस और आयकर विभाग द्वारा मांगी गयी जानकारी सम्मलित नहीं होती। किसी भी व्यवस्था के कानून जनहित में सुधारे भी जा सकते हैं और जिन्हें व्यक्तिहितों के ऊपर ही होना चाहिए।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मो. 9425674629
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बहुत अच्छी जानकारी और उससे भी अच्छी सलाह के लिए आपको धन्यवाद और बधाइयाँ ...
जवाब देंहटाएंजब तक भारत की अर्थव्यवस्था नकदी-आधारित रहेगी, सुधार की आशा करना व्यर्थ है. दूसरे, काले धन के रख रखाव को टैक्स की दरों से अधिक महंगा कर देना अन्य तरीक़ा है. पर सरकार इन दोनों ही तरीक़ों की दिशा में गंभीर नहीं लगती.
जवाब देंहटाएंसच लिखा है। चिन्तनीय विषय उठाया है।
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