राजनीतिक सामाजिक और साहित्यिक रंगमंच के नेपथ्य में चल रही घात प्रतिघातों का खुलासा
बुधवार, सितंबर 15, 2010
झांकियों के पण्डालों में ब्राम्हण पुजारी क्यों?
झांकी के पण्डालों में ब्राम्हण पुजारी क्यों?
वीरेन्द्र जैन
कल मैं अपने एक दलित लेखक मित्र के साथ कहीं जा रहा था तो रास्ते में भक्तों के गणपत्ति बप्पा की झांकियाँ जगह जगह रास्ता जाम किये हुये मिल रही थीं। एक जगह मजदूरों दलितों की बस्ती में देखा कि एक झांकी में पूजा चल रही थी और पूजा कराने वाला ब्राम्हण था जिसे मेरे मित्र जानते थे। उन्होंने मुझ से कहा कि गणपति की झांकियों में होने वाली पूजा में बाहर से पुजारी बुलाये जाने की जरूरत नहीं होना चाहिए। चौराहों पर गणपति की झांकी सजाने की परम्परा को अभी सौ साल भी नहीं हुये हैं और उत्तर भारत में गैर मराठी लोगों के बीच इसका प्रसार तो नब्बे के दशक में फैलायी गयी साम्प्रदायिकता के दौरान ही हुआ है। तिलक ने आजादी के लड़ाई में सबकी भागीदारी बनाने के लिए इनका स्तेमाल किया था। दलितों का मन्दिर में प्रवेश वर्जित था इसलिए उन्होंने गणपति की छोटी छोटी मिट्टियों की मूर्तियों की घरों में स्थापना की परम्परा को चौराहों पर सजाने और सभी जातियों को एक साथ भागीदार बनाने के लिए सार्वजनिक झांकियों की नई परम्परा डाली। इसका एक लक्ष्य जातिगत भेदभाव दूर करना भी रहा है इसलिए इसमें पूजा की ऐसी विधि जिससे जातिभेद प्रकट होता हो इसके महान लक्ष्य को दूषित कर सकती है। होना यह चाहिए कि इन पण्डालों में आयोजन समिति के अध्यक्ष, सचिव, कोषाध्यक्ष, आदि ही जातिभेद भुला कर क्रमशः पूजा करें। उन्होंने एक दलित कवि की बहुत ही अच्छी कविता सुनायी। कविता हूबहू तो मुझे याद नहीं किंतु उसका आशय कुछ कुछ ऐसा था-
अजान हुयी
तो सभी मुसलमान उठे और
नमाज पढने के लिए मस्जिद में चले गये,
चर्च की घंटियां बजीं
तो सभी ईसाई उठे और
प्रार्थना के लिए गिररिजाघर में प्रवेश कर गये
मन्दिर का शंख बजा
तो हिन्दू उठे और
मन्दिर की ओर गये
उनमें से कुछ मन्दिर के अन्दर चले गये
और बहुत सारे मन्दिर के बाहर रह गये
उनका प्रवेश वहाँ वर्जित था।
मेरा अनुरोध है कि मेरे मित्र द्वारा उठाये इस विषय पर आप लोग अपने विचार अवश्य ही प्रकट करें और यदि ये विचार इस पोस्ट की टिप्पणी से अलग अपनी साइट पर करें तो मुजे इसकी सूचना अव्श्य दें।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मो. 9425674629
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बिल्कुल वाजिब सवाल उठाया है। एक तरफ राजनीति में धर्म के घालमेंल व सांप्रदायिकीकरण ने तो दुसरी ओर पूंजी और बाजारवाद के हमलों ने हमारी संस्कृति को छिन्न भिन्न कर दिया है, जिसे आमजन द्वारा भी महसूस किया जा रहा है। आज के हिन्दु समाज में बडा अंर्तविरोध दिखाई पड रहा है, एक तरफ वह निरंतर बदलती दुनिया के साथ कदम से कदम मिलाकर चलना चाहता है तो दुसरी तरफ अपनी जातीवादी अस्मिता, धार्मिक रूढियों व अंधविश्वासों को भी नहीं छोडना चाहता है। धर्म के नाम पर क्या अगडे क्या पिछडे सब हिन्दू है, धार्मिक दंगो में दलितो का ही सबसे ज्यादा इस्तेमाल किया जाता है। लेकिन हक की बात आये तो धर्म का स्थान जातीवाद ले लेता है, अगडे अचानक आरक्षण को या दलितों को कोसते नजर आने लगते है।
जवाब देंहटाएंपूजा करना दलितो का भी हक है लेकिन सांप्रदायिकीकरण के कोलाहल में ब्राहृमणवाद को चुनौती देने से दलित भी घबराते है। दुसरी तरफ दलित स्वयं भी अपने पंडालों में ब्राहृमणों को पूजा का न्यौता दे गौरान्वित महसूस करते है। सांप्रदायिक राजनीती की आड में जातीवाद की जडो को भी मजबुत किया जा रहा है।
लेखक को साधुवाद!!!