अपने संगठनों में अराजकता वाले दल देश में अराजकता कैसे रोकेंगे
वीरेन्द्र जैन
बिहार के गत विधानसभा चुनावों में राज्य के अधिकांश प्रमुख दलों को टिकिट वितरण में जिस संकट का सामना करना पड़ा वह लोकतंत्र के लिए चिंतनीय है। टिकिट वितरण के लिए चयनित नेताओं को छुप कर रहना पड़ा, कई जगह उन्हें मारपीट और झूमा झटकी का सामना करना पड़ा। पटना में तो एक टिकिट वंचित टिकिटार्थी ने कांग्रेस कार्यालय में आग ही लगा दी थी। असल में हम दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश होने के जो दावे करते हैं उनकी दलों के स्तर पर सच्चे अर्थों में स्थापना अभी बाकी है। सम्बन्धित दलों में टिकिट वितरण के कोई स्पष्ट और घोषित आधार नहीं हैं। इनके लिए चुनाव अपनी राजनीतिक विचारधारा पर जनमत प्राप्त करना और अपनी घोषणाओं के लिए जनता का समर्थन पाने के लिए नहीं अपितु वे सम्पत्ति की खुली लूट और उस कारण जनता के गुस्से से सुरक्षा पाने के लिए सत्ता की ताकत हथियाने का अवसर होते हैं। इसलिए एन केन प्रकारेण चुनाव जीतना इनका लक्ष्य बन गया है। इसके लिए पूर्व से स्थापित जाति व्यवस्था को और मजबूत कर दिया गया है ताकि थोक में वोटों के ठेकेदारों से सौदा किये जा सकें। साम्प्रदायिकता, क्षेत्रवाद, भाषावाद,सामंतवाद और गैर राजनीतिक कारणों से अर्जित लोकप्रियता को वोट झटकने के लिए स्तेमाल किया जाता है। सत्ता का विदोहन करने, अपने उद्योग व्यापार के लिए मनमानी सुविधाएं जुटाने व सरकारी कर चुराने पर भी सुरक्षित बने रहने के लिए बड़े बड़े पूंजीपति अब चुनावों में ‘इनवेस्ट’ करने लगे हैं जिससे चुनाव, चुनाव से अधिक धन बल का खेल होकर रह गये हैं। 544 सदस्यों की संसद में 300 से अधिक करोड़ पतियों का पहुँचना इसका प्रमाण है। हमारे यहाँ काम करने वाले अधिकांश राजनीतिक दल एकदम स्वच्छन्द हैं और उनके संगठन के कोई सुचिंतित नियम नहीं हैं। जहाँ पर ये नियम कागजों पर बने हुये भी हैं वहाँ भी इनका गम्भीरता से पालन नहीं होता। चुनाव आयोग का राजनीतिक दलों को गिरोहों में बदलने से रोकने के लिए उन पर कोई नियंत्रण नहीं है। जब राजनीतिक दल राजनीतिक दलों की तरह काम ही नहीं कर रहे होंगे तो चुनाव ठीक से कराने का महत्व ही कितना रह जाता है। दलों के कार्य करने की कोई न्यूनतम साझा आदर्श आचार संहिता ही नहीं है। गत वर्षों में आधे अधूरे मन से कुछ प्रयास किये गये, जैसे दलों में संगठन के सावधिक चुनावों की अनिवार्यता, चुनाव लड़ने वाले प्रत्याशी को अपनी सम्पत्ति और दर्ज आपराधिक प्रकरणों की घोषणा करना, चुनाव खर्च पर कड़ा नियंत्रण आदि सम्मलित हैं। किंतु इन पर भी गम्भीरता से पालन नहीं हो रहा है। कितना आश्चर्यपूर्ण है कि सार्वजनिक जीवन में काम करने वाले राजनीतिक दल अपनी आय और उसके स्त्रोतों को गोपनीय बनाये रखना चाहते हैं। उनके कार्यालय में आयकर अधिकारी सर्वेक्षण या जाँच करने नहीं जा सकते, जबकि सर्वाधिक धन इन्हें टैक्सचोरों से ही मिलता है।
राजनीतिक दल अपने दैनिन्दन कार्यों से लेकर चुनावों तक के लिए पूंजीपतियों से चन्दा लेते हैं। ये पूंजीपति उन्हें उनके घोषित राजनीतिक कार्यक्रमों के प्रभाव में चन्दा नहीं देते अपितु सत्ता पाने की दशा में विशेष पक्षधरता पाने के लिए चन्दा देते हैं। कितना बिडम्बनापूर्ण है कि कोई पूंजीपति सभी प्रमुख पार्टियों को उदारता से चन्दा देता है ताकि सरकार किसी की भी बने पर पक्षधरता उसकी ही करे। जिन राजनीतिक दलों को पूंजीपतियों के रहमोकरम पर जिन्दा रहना पड़ता है वे उसके द्वारा की गयी अनियमताओं का विरोध कैसे कर सकते हैं। दूसरी बात यह है कि राजनीतिक दलों में काम करने वालों के लिए दलों की ओर से वेतन और पेंशन की कोई सुनिश्चित व्यवस्था नहीं है जिससे इनके पूर्णकालिक कार्यकर्ता राजनीति को जल्दी से जल्दी आर्थिक सुरक्षा पाने की होड़ का साधन बनाने में जुट जाते हैं। इसमें सफल हो जाने वाले के लालच का कोई अंत नहीं होता, और सफल न होने वाले सारे उपलब्ध साधनों और अवसरों को अपनी सफलता के प्रयास में लगा कर पूरे तंत्र को भ्रष्ट करने में जुट जाते हैं। ऐसे राजनीतिक दलों में काम करने वालों से आदर्श लोकतंत्र की स्थापना की उम्मीद कैसे की जा सकती है। इसमें सुधार के लिए जरूरी है कि-
• राजनीतिक दलों की वित्तीय व्यवस्था पारदर्शी हो राजनीतिक दलों के लिए कोई साझा आचार संहिता हो, और उस पर अमल सुनिश्चित कराने के लिए कानून विद्यमान हों, और जिनका पालन भी हो।
• मतदाता सूची की तरह राजनीतिक दलों के सक्रिय सदस्यों की सूची सार्वजनिक रूप से घोषित हो और निर्वाचन आयोग से पुष्ट हो, तथा किसी दल की दो साल की न्यूनतम वरिष्ठता वाले सदस्यों को ही उनके टिकिट पर चुनाव लड़ने का अधिकार हो।
• केवल अपने सदस्यों से ही आय के अनुपात में लेवी लेकर दल को संचालित करने की आदत डालें, जैसा कि कुछ बामपंथी दलों में होता है जहाँ आय बढते ही लेवी की दर भी बढ जाती है। जो पचास पैसे प्रतिशत से लेकर आठ प्रतिशत तक जाती है।
• एक संस्थान केवल एक ही दल को चन्दा दे सके और अधिक अच्छा हो कि उसके कर्ताधर्ता किसी राजनीतिक दल के सदस्य बनें व चन्दा देने की जगह आय के अनुपात में लेवी का भुगतान करें।
• प्रत्येक पूर्णकालिक कार्यकर्ता को दलों की ओर से न्यूनतम वेतन मिलना सुनिश्चित हो तथा दलों और सरकार की ओर से सेवा निवृत्ति के बाद उन्हें आवश्यकता होने पर पेंशन मिलना सुनिश्चित हो।
जब तक दलों की दशा नहीं सुधरेगी तब तक लोकतंत्र की दशा नहीं सुधर सकती, इसलिए दलों की सांगठनिक व्यवस्था में सुधार जरूरी हो गया है ताकि मतदाता को यह माँग न करना पड़े कि उसे किसी को भी वोट न देने के लिए मतदान पत्र में खाली कालम भी रखा जाये
वीरेन्द्र जैन
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