मंगलवार, नवंबर 23, 2010

मानवाधिकार और गडकरी Human rights and BJP president Gadakaree

मानवाधिकार और गडकरी
वीरेन्द्र जैन
गत दिनों भाजपा के मानवाधिकर प्रकोष्ठ द्वारा नई दिल्ली में एक गोष्ठी का आयोजन किया गया था जिसका विषय था- मानवाधिकार आन्दोलन: गलत धारणा को सुधारना। इस विषय पर बोलते हुए भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी ने कहा कि अलगाववादियों और आतंकवादियों के मानवाधिकार संरक्षण की बात करना देशद्रोह के समान है। दलितों, महिलाओं, गरीबों,और आत्महत्या के लिए मजबूर किसानों के मानव अधिकारों की बात की जाना चाहिए, पर अलगाववादियों और आतंकवादियों के मानव अधिकारों की बात करने की इजाजत नहीं दी जा सकती। [जनसत्ता 2 नवम्बर 2010] गडकरी समेत संघ परिवारियों के बयानों से उनका फासिस्ट चरित्र लाख छुपाने के बाबजूद भी छुप नहीं पाता और वह कहीं न कहीं से प्रकट हो ही जाता है। भारत देश के आम नागरिक को जो अधिकार मिले हैं वे भाजपा और संघ परिवार की इजाजत से नहीं मिले हैं अपितु देश के संविधान के आधार पर मिले हैं। हमारा संविधान जाति, धर्म, क्षेत्र, भाषा, रंग, और लिंग का कोई भेद किये बिना श्री नितिन गडकरी और मानव अधिकारवादियों समेत सबको अभिव्यक्ति का समान अधिकार देता है। यदि कोई किसी के बयान से असहमत है तो वह भी अपनी असहमति और तर्कों समेत अपनी बात खुल कर रख सकता है जिस पर एक लोकतांत्रिक समाज में देश की जनता विचार करेगी और उचित समय पर अपना फैसला लेगी। स्मरणीय है कि इमरजैंसी के बारे में अपनी बात रखते हुए एक बार अटल बिहारी बाजपेयी ने कहा था कि इमरजैंसी में जिन्दा रहने के अधिकार समेत सारे ही मूल अधिकार समाप्त कर दिये गये थे, जबकि जिन्दा रहने का अधिकार हमें ईश्वर ने दिया है न कि संविधान ने दिया है। इसे कोई इमरजैंसी खत्म नहीं कर सकती।
स्मरणीय है कि इमरजैंसी में संघ पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया था। रोचक है कि उसके विरोध में संघ के किसी नेता ने गिरफ्तारी नहीं दी थी अपितु तत्कालीन सरकार ने जैसे ही उनके कुछ बड़े बड़े नेताओं को गिरफ्तार किया वैसे ही उसके अधिकांश सदस्यों ने अपने खाकी नेकर छुपा दिये थे और सारे पूर्णकालिक सक्रिय कार्यकर्ता भूमिगत हो गये थे। जो लोग जेल में गये थे उनमें से अनेक लोगों ने बाहर आने के लिए क्षमा याचना की थी। स्वयं देवरस जी ने सुप्रीम कोर्ट द्वारा श्रीमती इन्दिरा गान्धी का चुनाव वैध घोषित किये जाने के बाद उनके कार्यों की प्रशंसा करते हुए उन्हें पत्र लिखा था और उस पत्र में संघ से प्रतिबन्ध हटा लेने की दशा में उनके कार्यक्रमों के प्रति पूरा समर्थन व्यक्त करते हुए सहयोग देने का वादा किया था। यही लोग इमरजैंसी हटने के बाद अपने आप को क्रांतिकारी बताने लगे थे और बड़ोदा डाइनामाइट षड़यंत्र कांड के लिए मशहूर हुए जार्ज फर्नांडीस समेत इमरजैंसी में मंत्री रहे बाबू जगजीवन राम, हेमवती नन्दन बहुगुणा, विद्याचरण शुक्ल आदि के सहयोग से बनी जनता पार्टी सरकार में सम्मलित होने के लिए इतने लालायित रहे कि उन्होंने अपनी पार्टी जनसंघ को जनता पार्टी में विलीन करने में एक क्षण की भी देर नहीं की, जबकि मार्क्सवादी कम्युनिष्ट पार्टी ने ऐसी सरकार में सम्मलित होने के प्रस्ताव के प्रति अपनी असहमति खुल कर व्यक्त की थी जिसके सदस्य बिना माफी माँगे पूरे समय तक जेल में रहे थे और वहाँ पर भी अपनी असहमतियों को लगातार बनाये रहे थे। इमरजैंसी हटने के तीस साल बाद संघ के लोगों की मध्य प्रदेश में सरकार बनने के बाद उन्होंने अपने जेल से माफी माँग कर आये साथियों समेत सबको मीसा बन्दी आजीवन पेंशन बाँध ली जिसे मार्क्सवादी कम्युनिष्ट पार्टी के लोगों ने माफी माँग कर लौटे उन लोगों के साथ लेने से इंकार कर दिया। खेद की बात है कि आज उसी पार्टी का अध्यक्ष मानवाधिकारों की बात करने वालों को बात तक करने की इजाजत ही न देने का फतवा दे रहा है और मानव अधिकार की बात करने को देशद्रोह का नाम दे रहा है। किसी का नाम लिये बिना वे ‘जिन बड़े बड़े पुरस्कार प्राप्त व्यक्तियों द्वारा दिये गये बयानों’ के आधार पर इजाजत न देने की बात कर रहे थे तो उनका साफ संकेत अरुन्धति राय की तरफ था। यह संकेत करते समय वे यह भूल गये कि अरुन्धति राय ने जिन आदिवासियों के संघर्ष का समर्थन करने की बात की थी उसमें दलित, महिला, गरीब और किसान सभी सम्मलित हैं। अंतर केवल इतना है कि वे किसान मजदूर आत्महत्या करने की जगह हथियार उठा कर जंगल में संगठित हो गये हैं और सुरक्षा बलों के साथ हिंसा प्रतिहिंसा के खेल में सम्मलित हो गये हैं। भारत सरकार के कानून के खिलाफ हिंसा में शामिल होने पर स्वाभिक रूप से वे न केवल पुलिस की गोलियों के शिकार हो रहे हैं अपितु पकड़े जाने पर देश के कानून के अनुसार उचित सजाएं भी पा रहे हैं। उनके विचारों और तरीकों से असहमत हुआ जा सकता है, और देश के संविधान के अनुसार उचित कार्यावाही की माँग की जा सकती है। सरकार की लापरवाही और उदासीनता की स्थिति में सरकार के खिलाफ आन्दोलन किये जा सकते हैं, पर किसीके विचारों की आज़ादी और मानवाधिकारों पर रोक लगाने की माँग करना फासिस्ट तरीका है।
यही संघ परिवार आतंकवादियों को तुरंत फाँसी देने की उत्तेजना फैलाने में सबसे आगे रहता है किंतु जब मय सबूतों के उनसे जुड़े लोग आतंकी गतिविधियों में सामने आये तो वे न केवल उनके बयान बदलवाने लगे अपितु जाँच एजेंसियों के खिलाफ वातावरण तैयार करने लगे। किसी के आतंकी या देशद्रोही गतिविधियों में सम्मलित होने न होने के बारे में फैसला लेने के लिए जाँच एजेंसियां और न्यायपालिका मौजूद है। यही न्यायपालिका जब उनके पक्ष में फैसला देती है तो वे ढोल बजा कर उसका स्वागत करते हैं। आतंकवादियों का कोई धर्म नहीं होता यह संघ परिवार के लोग भी कई बार दुहरा चुके हैं। तब ऐसी दशा में किसी भी धर्म के आरोपी कि खिलाफ हो रही जाँच और सही न्याय के काम में मदद दी जानी चाहिए। अगर कहीं कमियों हैं तो उनको सामने लाया जाना चाहिए। किंतु न्यायालय में अनास्था, स्वतंत्र जाँच और अभिव्यक्ति की आजादी पर रोक लगाने की माँग अलोकतांत्रिक है।
रोचक यह भी है अभी जब भाजपा की मातृ पितृ संस्था के प्रमुख रहे सुदर्शनजी ने यूपीए की अध्यक्ष सोनिया गान्धी के सम्बन्ध में असमय, बेतुकी, आधारहीन और अश्लील टिप्पणियाँ कीं तथा कुछ कांग्रेस के कार्यकर्ताओं ने विरोध किया तो संघ परिवार का एक हिस्सा उसे सुदर्शनजी की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता कह कर उनका पक्ष ले रहा था। इस पक्षधरता के बाबजूद भी सुदर्शंनजी की अभिव्यक्ति की आजादी पर आरएसएस ने ही रोक लगा दी और उन्हें घेरे में लेकर पत्रकारों व बुद्धिजीवियों से बात करने से रोक दिया। उनका बयान या टेप किया हुआ सन्देश तक बाहर नहीं आने दिया गया।
फसिस्ट संगठन अपने विरोधियों की स्वतंत्रता नहीं अपितु अपनों की स्वतंत्रता को भी बाधित करते हैं। जहाँ जहाँ मानव अधिकारों का हनन होता महसूस किया जा रहा हो वहाँ वहाँ मानव अधिकारों की माँग को उठाने की स्वतंत्रता होना चाहिए और उसके सही या गलत होने का फैसला नियमानुसार न्याय, शासन, प्रशासन और जनता को करने देना चाहिए। नाथूराम गोडसे और बेअंत सिंह को भी उन्हें अपना पक्ष रखने का पूरा अवसर देने के बाद ही फाँसी दी गयी थी।

वीरेन्द्र जैन
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