शनिवार, नवंबर 13, 2010

संत संघ और सन्देश्

संत संघ और संदेश
वीरेन्द्र जैन
मध्य प्रदेश के इन्दौर शहर से समाचार है कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के विशाल पथ संचलन और सम्मिलन की अगुआई एक जैन मुनि ने की और उसके बाद एक सम्मेलन को सम्बोधित करते हुए संघ की प्रशंसा की और उनके गणवेश से चमड़े के बैल्ट और जूतों को बदलने का आवाहन किया। बाद में संघ के पदाधिकारियों ने उनके आग्रह को स्वीकार कर लिया और अपने गणवेश में से चमड़े का सामान हटाकर रेक्जीन के बैल्ट और कैनवास के जूतों को अपने गणवेश में सम्मलित कर लिया है। जैन संतों का यह आवाहन और संघ का सौदा धार्मिक जगत और आम जनता के बीच भ्रम पैदा करते हैं। भौतिक वस्तुओं को त्याग कर कठोर जीवन जीने वाले जैन संतों के प्रति समाज में अतिरिक्त सम्मान रहा है और उनकी बातों को निजी स्वार्थों से मुक्त माने जाने के कारण बहुत ध्यान से सुना जाता रहा है। पिछले कुछ वर्षों में तो अनेक सुशिक्षित और प्रवचन कुशल युवकों ने भी जैन दीक्षा ली है व वे अपनी बात तर्कों और आधुनिक प्रतीकों के माध्यम से कह कर बड़े गैर जैन समुदाय को भी प्रभावित करने लगे हैं। पर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और उनके द्वारा प्रायोजित राजनीतिक दल को जो लोग भी जानते हैं उनके मन में उपरोक्त घटना से श्रद्धा का ह्रास ही हुआ होगा।
अपनी बात को बहुत पैने तरीके से कहने वाले ओशो रजनीश ने एक बार कहा था कि महावीर के किसी भी वचन में यह नहीं कहा गया है कि मांसाहार मत करो, क्योंकि उन्होंने उससे भी बड़ा अहिंसा का सन्देश दिया है। जब कोई व्यक्ति अहिंसा धर्म का पालन करेगा तो यह सम्भव ही नहीं है कि आहार में उसकी प्राथमिकता मांसाहार हो। पर जहाँ अहिंसा धर्म का पालन करने से व्यक्ति मांसाहार के प्रति विरक्त तो हो सकता है किंतु मांसाहार न करने से उसका अहिंसा धर्म के प्रति रुझान का होना अनिवार्य नहीं है। एडोल्फ हिटलर न केवल शाकाहारी था अपितु धूम्रपान और मदिरापान भी नहीं करता था। उसी हिटलर ने निर्दयता पूर्वक लाखों लोगों को गैस चेम्बर में निर्दयतापूर्वक मार डाला था। क्या हिटलर के मात्र शाकाहारी होने के कारण उसको श्रद्धा की दृष्टि से देखा जा सकता है?
ऐसा लगता है कि उपरोक्त घटना से जुड़े जैन संत बहुत भोले हैं और अनजाने में ही वे गलत अपेक्षा के शिकार हो गये हैं। उनके इस कदम से संघ जैसे संगठन की करतूतों को एक मुखौटा लगाने का मौका मिल गया है जो चिंतनीय है। चमड़े से बनी अधिकांश सामग्री स्वाभाविक रूप से मृत या मांसाहार के लिए मारे गये जानवरों के चमड़े से बनती है, न कि सामग्री बनाने के लिए जानवरों को मारा जाता है। मृत जानवरों के अवशेषों का यह स्तेमाल पिछले हजारों वर्षों से पूरी दुनिया में हो रहा है। अहिंसा धर्म की किसी भी भावना से ऐसी सामग्री का स्तेमाल गलत नहीं है। चमड़े की वस्तुओं के प्रयोग न करने का आवाहन भी पिछली शताब्दी के उत्तरार्ध से अधिक पुराना नहीं है। प्लास्टिक और केनवास के जूते आने से पहले सभी के द्वारा चमड़े के जूतों का ही प्रयोग होता रहा था। रोचक यह है कि जो लोग हर बात में पीछे की ओर देखते हैं वे ही इस तरह के चुनिन्दा मामलों में आधुनिक वस्तुओं के समर्थक होने में देर नहीं लगाते। भारतीय दर्शन में जो देह और आत्मा की कल्पना है उसके अनुसार भी देह मिट्टी है, भौतिक है, नश्वर है, किंतु आत्मा अमर है। इसी विश्वास के अनुसार मृत देह तो दूसरे किसी भी प्राकृतिक पदार्थ की तरह हो जाती है। तब फिर इसके नष्ट हो जाने वाले किसी भी अवयव का प्रयोग हिंसा कैसे हो सकता है। यदि ऐसा ही मानने लगें तो मोतियों की माला, सीप के आभूषण और हाथी दांत से बनी सजावटी वस्तुएं ही नहीं जैन मुनियों के द्वारा प्रयुक्त की जानी वाली मोर पखों की पिछी भी उसी श्रेणी में आ जायेगी। मिष्ठान्नों पर चढाये जाने वाले सोने और चाँदी के बरकों को भी जानवरों की आंतों में रख कर ही कूटा जाता है। शक्कर को साफ करने के लिए भी जानवरों की हड्डियों के चूरे का प्रयोग किया जाता है। बाजार में बिकने वाली आइसक्रीम में भी हड्डियों के चूरे का प्रयोग होता है, रसायन रंगी -सीटीसी- चाय को तो शाकाहारी समाज एक बार छोड़ने के बाद फिर से अपना चुका है,... और यह सूची बहुत लम्बी हो सकती है।
यदि इसी परिभाषा से अहिंसा को परिभाषित किया जायेगा तो न तो नेत्रदान जैसा महादान सम्भव हो पायेगा और न ही जीवन बचाने के लिए दूसरे अंगों का प्रत्यारोपण ही सम्भव हो पायेगा। उल्लेखनीय है कि अनेक जैन संस्थाएं बड़े बड़े नेत्र चिकित्सालय संचालित करती हैं और नेत्रदान को प्रोत्साहित करती हैं। बड़ी बीमारियों में दूसरों से रक्त लिया जाता है और रक्तदान करने वाले किसी भी अनजान व्यक्ति के लिए रक्तदान करते रहते हैं। क्या इस मानव सेवा को हिंसा अहिंसा की गलत परिभाषा के आधार पर रोक दिया जाना चाहिए।
बिडम्बनापूर्ण यह है कि कथित जैन संतों ने जिस संगठन को चमड़े के जूते और बेल्ट न पहिनने का सन्देश दिया था और जिसने अपना चेहरा उजला बनाने के लिए इसे जोर शोर से स्वीकार कर लिया, उसके बारे में क्या वे बिल्कुल भी नहीं जानते रहे थे या जानबूझकर अनजान बने रहे। यह ऐसा ही है जिसे कि किसी कसाई से छान कर पानी पीने के लिए वे कहें और उसके स्वीकार कर लेने पर ताली बजा कर प्रसन्नता व्यक्त करते हुए उसे समृद्धि का आशीर्वाद दें। संघ परिवार का आदर्श ही हिटलर और मुसोलिनी रहे हैं जो अपनी घृणा, हिंसा और प्रतिहिंसा के लिए कुख्यात हैं। प्रतिहिंसा में भी केवल दोषियों से बदला लेने या हमलावरों से संघर्ष तक ही मामला सीमित नहीं रहता अपितु दूसरे सम्प्रदाय के किसी भी व्यक्ति को मारकर बदला लिया जाता है, भले ही उसका घटना से दूर का भी सम्बन्ध न रहा हो। पिछले वर्षों में गुजरात के गोधरा में कुछ अज्ञात लोगों द्वारा साबरमती एक्सप्रैस की बोगी संख्या 6 में लगायी गयी आग और उसमें दो कार सेवकों समेत 59 नागरिकों के मारे जाने के बाद जिस क्रूरता के साथ निर्धन और निर्दोष 3000 मुसलमानों की हत्याएं की गयी थीं वह हिटलर के कृत्य का दुहराव था। इस कृत्य के कारण अमेरिका और इंगलेंड जैसे प्रमुख देशों ने गुजरात के मुख्यमंत्री को अपने देश में प्रवेश के लिए वीजा देने से मना कर दिया था। क्या जैन संतों को गुजरात के बनावटी एनकाउंटरों और इन्दौर के समीप उज्जैन में प्रोफेसर सब्बरवाल की हत्या का भी पता नहीं है। यदि उक्त परिवार के लोग इन घटनाओं से जुड़े नहीं थे तो उन्होंने इन घटनाओं की निन्दा क्यों नहीं की और असली दोषी को पकड़ने के लिए बयान तक देने की जरूरत क्यों नहीं समझी? क्या मानव हिंसा से बड़ी भी कोई दूसरी हिंसा हो सकती है? कुष्ट रोगियों की सेवा करने वाले आस्ट्रेलियाई पादरी फादर स्टेंस को धर्म परिवर्तन की आशंका के नाम पर दो मासूम बच्चों समेत जिन्दा जलाने वालों को जूता और बेल्ट बदलने के आधार पर क्या किसी जैन संत का चरित्र प्रमाणपत्र दिया जा सकता है? ये भोले भाले जैन संत किसी संस्था के खून के धब्बे धोने की जगह उन्हें जैन दर्शन का अनेकांत क्यों नहीं पढाते जो ‘ही’ की कट्टरता को ‘भी’ की उदारता सिखाता है। संतों का काम स्वयं अध्ययन करते रहना और दूसरों को सिखाते रहना है। समाज से सम्बन्धित उपदेश देने के लिए समाज की सच्चाइयों से परिचित होते रहना भी जरूरी होता है। सामाजिक संस्थाओं को प्रमाणपत्र देने से पहले उनके बारे में विस्तार से जान लेना भी बहुत जरूरी होता है, अन्यथा धर्म प्रचार के लिए दीक्षा लिए हुए संत अपने पथ से विमुख हो जायेंगे। संघ परिवार को उनकी कदमताल से आगे भी देखना परखना जरूरी है।


वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मो. 9425674629

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