बिहार में विधायक निधि की समाप्ति
ये फैसला जेडी[यू] का है या एनडीए का?
वीरेन्द्र जैन
बिहार में नितीश कुमार ने सत्ता में वापिस लौटते ही चुनावों के दौरान किये गये वादे के अनुसार विधायक निधि समाप्त करने का फैसला ले लिया। इस क्षेत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार को देखते हुए इस फैसले की व्यापक सराहना हुयी है। यह विषय उस समय भी चर्चा में आया था जब तत्कालीन लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी ने भी सांसद निधि समाप्त करने पर विचार करने के लिए कहा था। स्मरणीय यह भी है कि जब वीरप्पा मोइली के नेतृत्व में गठित द्वित्तीय प्रशासनिक सुधार आयोग ने सरकार से यह सिफारिश की थी कि वह सांसद विधायक निधि को समाप्त कर दे, तब इस सिफारिश का समर्थन करते हुए भाकपा के महासचिव ए.बी. बर्धन ने कहा था कि बामपंथी दल तो शुरू से ही इस योजना के विरोधी रहे हैं। इस तरह देखा जाये तो इस निधि के दुरुपयोग को देखते हुए देश के अधिकांश दल सैद्धांतिक रूप से इस निधि के खिलाफ मुखर रहे हैं किंतु इसकी समाप्ति के साहस करने का श्रेय नितीश कुमार को जाता है।
बिहार में विधानसभा चुनाव परिणाम आने के बाद जहाँ सारे समाचार पत्र और टिप्पणीकार इसे नितीश की जीत बता रहे थे वहीं भाजपा इसे एनडीए की जीत बता रही थी और वह मानती है कि बिहार में नितीश के नेतृत्व में एनडीए की सरकार बनी है। यदि इसे सच माना जाये तो बिहार में विधायक निधि समाप्त करने का फैसला एनडीए का हुआ न कि जेडी[यू] का। एनडीए में सबसे बड़ा दल भाजपा है जिसे राष्ट्रीय मान्यता प्राप्त है। इस तर्क से गुजरात, छत्तीसगढ, मध्य प्रदेश, कर्नाटक, हिमाचल प्रदेश, कर्नाटक, झारखण्ड और पंजाब में भी एनडीए की सरकारें हैं। जब एक राज्य में विधायक निधि समाप्ति करने के बाद सभी ओर से साधुवाद मिलता है तो इस नीति को दूसरे एनडीए शासित राज्यों तक भी फैलाया जाना चाहिए। पर क्या कारण है कि उपरोक्त राज्यों को तो छोड़ ही दीजिए बिहार में भी इस नीति को लागू करवाने का श्रेय भाजपा को नहीं मिल रहा है। क्या भाजपा बिहार में सचमुच इस नीति को लागू करवाने के पक्ष में रही या यह नितीश कुमार का एक पक्षीय फैसला था? यदि यह एनडीए का फैसला है और भाजपा अपने को एनडीए में सम्मलित दलों का नेता मान कर चलती है तो उसे अपने द्वारा शासित राज्यों में भी इसे तुरंत ही लागू करवाना चाहिए अन्यथा यह केवल नितीश कुमार का ही फैसला माना जायेगा। पिछले दिनों जब सांसद निधि बेचने वाले सांसदों को स्टिंग आपरेशन में पकड़ा गया था तब उसमें छह में से तीन फग्गन सिंह कुलस्ते, चन्द्रप्रताप सिंह, और राम स्वरूप कोली तो भाजपा के थे। फग्गन सिंह कुलस्ते तो उस दौरान भाजपा के सचेतक और अनुसुचित जाति मोर्चे के अध्यक्ष भी थे। यदि यह तर्क दिया जाये कि उनके इस काम में पार्टी की जिम्मेवारी नहीं बनती है तो वह इसलिए गलत होगा क्योंकि उसके बाद भाजपा ने उन्हें फिर से टिकिट देकर यह सन्देश दिया कि उनका काम पार्टी की निगाह में गलत नहीं है। श्री फग्गन सिंह कुलस्ते तो परमाणु विधेयक पर बहस के दौरान फिर से चर्चा में आये थे जब उन्हें भाजपा के अन्य दो सांसद अशोक अर्गल, और महावीर भगौरा के साथ सदन में एक करोड़ रुपयों को लहराते देखा गया। यह जिज्ञासा सहज ही हो सकती है कि अगर यह रकम सचमुच ही यूपीए के किसी घटक ने दी थी तो उसने इसके लिए श्री फग्गन सिंह कुलस्ते का चुनाव ही क्यों किया। उल्लेखनीय यह भी है जिस दृष्य को देश के चालीस लाख लोग देख रहे थे उस घटना के बारे में कोई भी जाँच अभी तक नहीं हो पायी है कि वो एक करोड़ रुपये सचमुच किसने दिये थे और वे कहाँ से आये थे। आज भ्रष्टाचार के बारे में बहुत बातें हो रही हैं किंतु यह कोई पता नहीं लगाना चाहता कि पूरे एक करोड़ की रकम को खर्च करने के पीछे किसका क्या हित हो सकता था और चारे की तरह डाल दी गयी इस रकम को खर्च करने वाले ने उसके पीछे अपना कितना हित साधा होगा। यह मामला तो देश की सुरक्षा और दूसरे महत्वपूर्ण मुद्दों से भी जुड़ा हुआ था। इसी तरह पैसे लेकर सवाल पूछने के लिए किये गये स्टिंग आपरेशन में भाजपा सांसद प्रदीप गान्धी को भाजपा ने छतीसगढ में चुनावों का प्रभारी बनाया था। जब स्वयं उनके राष्ट्रीय अध्यक्ष रंगे हाथों देश की रक्षा के लिए उपकरण सप्लाई के नाम पर किये गये स्टिंग में पकड़े गये थे तो उनकी गैर राजनीतिक पत्नी को राजस्थान के सुरक्षित क्षेत्र से सांसद चुनवा कर उनके पद त्याग की भरपाई की थी। जब भाजपा ने स्पेक्ट्रम घोटाले में जेपीसी जाँच की माँग पर पूरा सत्र नहीं चलने दिया तो यह जरूरी हो जाता है कि वह भ्रष्टाचार के बारे में अपने पत्ते साफ साफ खोले अन्यथा यह भ्रष्टाचार का खुलासा नहीं, अपितु प्रतियोगिता का हिस्सा हो कर रह जायेगा।
वीरेन्द्र जैन
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