सोमवार, जनवरी 10, 2011

राजनीतिक दलों में लेवी प्रणाली का महत्व


राजनीतिक दलों में लेवी प्रणाली का महत्व
वीरेन्द्र जैन
कोई भी व्यवस्था अपना स्वरूप अकेले नहीं गढ सकती। क्षिति, जल, पावक, गगन, समीरा, की तरह व्यवस्था का शरीर भी विधायिका, पुलिस, प्रशासन, न्याय, और फौज से मिल कर ही बनता है। यदि किसी एक क्षेत्र में विकृति आती है तो दूसरा क्षेत्र उस पर लगाम कस कर उसे बहकने से रोक सकता है। किंतु जब विकृति को सारे क्षेत्रों से मदद मिलने लगती है तो पूरा तंत्र प्रभावित हो जाता है। आज भ्रष्टाचार की भी यही दशा है। राजनेताओं के भ्रष्टाचार उनके जिन्दा रहने की मूल आवश्यकताओं के लिए किये गये पथ विचलन नहीं हैं, अपितु इतिहास में अपना नाम दर्ज कराने की हवस में अधिक से अधिक समय तक सत्ता प्रतिष्ठानों की कुर्सी पाने, उसे बनाये रखने, और उसके लिए आर्थिक संसाधनों को जोड़ने की होड़ का हिस्सा होते हैं। यही होड़ प्रकारांतर आदत में बदल जाती है। भ्रष्टाचार की व्यापकता को देखते हुए ऐसा लगता नहीं है कि किसी सुधारात्मक उपाय से कोई बात बनने जा रही है फिर भी लोकतंत्र के प्रति आस्थावानों द्वारा सुधारात्मक उपाय किये ही जाने चाहिए। लोकतंत्र में सत्ता पाने के लिए जनता से उनका वोट रूपी समर्थन प्राप्त करना होता है जिसके लिए राजनीतिक दल न केवल उन्हें भावनात्मक रूप से भटकाते हैं अपितु उन्हें कुछ राशियां भी भेंट करने लगे हैं। ये राशियां उन्हें पूंजीपतियों से प्राप्त होती है, इसके बदले में पूंजीपति उनसे ऐसी नीतियां बनाने की अपेक्षा करते हैं जिससे उन्हें दिये गये धन से कई गुना लाभ हो। रोचक यह है कि ये पूंजीपति यह राशि किसी एक दल को नहीं देते हैं अपितु इसे स्वीकार करने वाले तमाम सत्तामुखी सम्भावित दलों को देते हैं। हमारे लोकतंत्र की बिडम्बना यह है कि हमारे देश के कुछ प्रमुख बड़े दल अपने सदस्यों के सहयोग से न चलकर पूंजीपतियों के चन्दों से चलते हैं और अपने हिसाब किताब को गोपनीय रखना अपना विशेषाधिकार मानते हैं। जो दल पूंजीपतियों के चन्दे से चलेंगे उनसे यह अपेक्षा व्यर्थ है कि वे उनके विरोध और जनता के पक्ष में नीतियां बना सकेंगे। अतः पहली जरूरत यह है कि राजनीतिक दलों की अर्थ व्यवस्था पारदर्शी हो।
यदि राजनीति को भ्रष्टाचार की गंगोत्री मान कर चला जाये तो सबसे पहला सुधार भी यहीं से करना पड़ेगा। प्रत्येक दल की अर्थ व्यवस्था को उसके सदस्यों के सहयोग तक सीमित करना होगा। इसके लिए आवश्यक होगा कि दलों में उसके सदस्यों से आय के अनुपात में लेवी लेने की व्यवस्था हो और उसे कानूनी रूप दिया जाये। हमारे देश के ही एक बामपंथी दल में ऐसी व्यवस्था है जहां आय के अनुसार सदस्यों से लेवी ली जाती है जो इस प्रकार है-
रु.300/- प्रति माह आय वाले सदस्य को 0.25 रु. प्रति माह्
रु 301/- से 500/- प्रति माह आय वाले सदस्य को रु.0.50 प्रति माह
रु.501/- से 1000/- प्रति माह आय वाले सदस्य को रु.1.00 प्रति माह
रु1001/- से 3000/- प्रति माह आय वाले सदस्य को आय का 1%
रु3001/- से 5000/- प्रति माह आय वाले सदस्य को आय का 2%
रु5001/- से 7000/- प्रति माह आय वाले सदस्य को आय का 3%
रु7001/- से 8000/- प्रति माह आय वाले सदस्य को आय का 4%
और रु8000/- से ऊपर प्रति माह आय वाले सदस्य को आय का 5%
इस व्यवस्था के अनेक लाभ हैं, जिनमें सबसे पहला तो यह कि दल में सदस्यता का उचित रिकार्ड रहता है और बोगस सदस्यता की सम्भावना क्षीण रहती है। इसके द्वारा सदस्यों की आय का भी रिकार्ड पार्टी के पास रहता है जिससे किसी भी तरह के भ्रष्टाचार के संकेत तुरंत मिल सकते हैं। यह जानना रोचक हो सकता है कि आन्ध्र प्रदेश के दिवंगत मुख्यमंत्री वाय एस रेड्डी के पुत्र और इस समय कांग्रेस के विद्रोही सांसद जगन मोहन रेड्डी ने इस वर्ष के लिए रु.84 करोड़ आयकर जमा किया है जिसके अनुसार इस वर्ष उनकी आय रु.500 करोड़ से अधिक होना संभावित है यदि कांग्रेस में सदस्यों की आय के अनुसार लेवी प्रणाली होती तो जगन मोहन को रु.25 करोड़ की लेवी जमा करना पड़ती। यदि लेवी सदस्यता की आवश्यक शर्त होती है तो पार्टी के लिए अधिक राशि देने वाला भी आय के अनुसार कम राशि देने वाले के समान ही होगा और अधिक आर्थिक सहयोग के नाम पर कोई अमर सिंह किसी कम आय वाले लोहियावादी सदस्य से श्रेष्ठ नहीं हो सकता व हेमामालिनिओं, जया बच्चनों और जयाप्रदाओं को राजनीति में प्रवेश से पहले गहन चिंतन करना होगा । दलीय लोकतंत्र के साथ लेवी प्रणाली होने से दल पर पूंजी वाले लोग वर्चस्व नहीं बना सकते जैसा कि अभी लोकसभा में 300 से अधिक करोड़पतियों के पहुँचने से पता चलता है। यह इस बात का प्रमाण है कि सभी दलों में पैसे वालों को टिकिट मिलने में प्राथमिकता मिल जाती है, और सब जीतने के लिए धन झोंकने में समर्थ उम्मीदवारों पर दाँव लगाना चाहते हैं। स्मरणीय है कि गत लोकसभा चुनाव में स्वघोषित करोड़पति प्रत्याशियों की संख्या 1054 से अधिक थी। लेवी प्रणाली होने से पूंजीपति को सभी दलों को चन्दा देने की जगह किसी एक दल की सदस्यता ग्रहण करनी होगी और किसी एक दल को ही अपनी आय के अनुसार लेवी देनी होगी। ऐसी स्तिथि में देश की राजनीति और सदन पूंजीपतियों के दुष्प्रभाव और दबाव से कुछ हद तक मुक्त रह सकेंगे।
जब राजनीति भ्रष्टाचार से मुक्त होगी तो वह प्रशासन के भ्रष्टाचार की अनदेखी भी नहीं कर सकेगी, और ना ही उसे न्यायपलिका को भ्रष्ट करने का विचार आयेगा। आज हमारी व्यव्स्था को जो क्रोनी केपटलिस्म, और बनाना स्टेट का नाम दिया जा रहा है, लेवी प्रणाली लागू होने पर ऐसे निन्दक आरोपों से भी मुक्ति मिल सकेगी। जब सभी प्रमुख दलों पर पूंजीपति अधिकार करते जा रहे हैं तो राजनीति को उनकी दया दृष्टि और उनके अहसान से बचाने का यही तरीका हो सकता है कि लेवी प्रणाली को रजिस्टर्ड दलों में सदस्यता की आवश्यक शर्त बनायी जाये और चन्दे की दम पर उन्हें बँधुआ बनाने के दबाव से मुक्ति दिलायी जाये। एक आत्मनिर्भर पार्टी ही सच्ची वैचारिक राजनीति कर सकती है।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मो. 9425674629

2 टिप्‍पणियां:

  1. पूंजीवादी दल राजनिती नही धंधेबाजी करने में लगे है। जो कभी जनता के पास चंदा मांगने न जाये, कार्यकर्ताओ से लेवी न ले वो दल स्वाभाविकतः पूंजीवादीयों से चंदा लेकर काम करेंगा और धन्ना सेठो के ही हितों को साधने का काम करेंगा। केजी बेसिन मामला इसका जीवंत उदाहरण है। अभी कुछ बरस पुर्व सत्ताधारी एवं प्रमुख विपक्षी दल एक उद्योग घराने के विवाद का संसद में निपटान करने पर तुले थे।

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