नो वन किल्ड जेसिका
न्याय व्यवस्था पर गम्भीर सवाल उठाती फिल्म
वीरेन्द्र जैन
यह एक ऐसी फिल्म है जिसमें नब्बे प्रतिशत यथार्थ है और दस प्रतिशत कहानी होते हुए भी न केवल एक सम्पूर्ण फीचर फिल्म है अपितु बहुत सारी दूसरी फिल्मों से बेहतर और महत्तर सवाल उठाती है। आम तौर पर जब भी किसी कला के माध्यम से व्यवस्था के सवाल उठाये जाते हैं तो वे केवल उस बौद्धिक जगत में चर्चा तक सीमित होकर रह जाते हैं जिसे उन तथ्यों की जानकारी पहले से ही होती है। किंतु रंग दे बसंती, पीपली लाइव, और नो वन किल्ड जेसिका जैसी फिल्में आम जन को भी महत्वपूर्ण सूचनाएं पहुँचाने के साथ उसकी सम्वेदनाओं को झकझोरती हैं। हम कह सकते हैं कि यह फिल्मी एक्टविस्म का प्रारम्भ है।
एक डांस बार में पद और पैसे के मद में अन्धा एक मंत्री का पुत्र तय समय के बाद शराब न देने पर देश की राजधानी में रेस्त्राँ की कर्मचारी एक लड़की को सरे आम गोली मार देता है, किंतु पैसे और दबाव के आगे सारे गवाह टूटते जाते हैं और भरपूर पैसे की मार के आगे एक नामी क्रिमिनल वकील आरोपी को मुक्त करा देता है। डर के मारे उस समय रेस्त्राँ में उपस्थित तीन सौ सम्भ्रांत लोग गवाही देने के नाम पर साफ झूठ बोल जाते हैं कि वे वहाँ से चले आये थे। रेस्त्राँ की मालकिन तक अपनी गवाही में मुकर जाती है। उसके बाद उसकी बहिन की जुझारू लगन और मीडिया के स्टिंग आपरेशन द्वारा एकत्रित सत्य के आधार पर जो जन दबाव बनाया जाता है तो सरकार को उच्च न्यायालय में अपील के लिए विवश होना पड़ता है और सत्ता, पैसा, और संगठन होते हुए भी मंत्री पुत्र को सजा होती है। छह-सात साल तक चले इस घटनाक्रम को देश की जनता ने बार बार भूलने और फिर याद करने की हालत में एक कमजोर प्रभाव की तरह ग्रहण किया हुआ था। इसके फिल्मीकरण के द्वारा जब दर्शक इसे तीन घंटे में देखता है तो उसके मानस पर यह गहरा प्रभाव जरूर पड़ता है कि भले ही व्यवस्था बहुत खराब हालत में है किंतु जन जागरूकता और सक्रियता से उसे ठीक रास्ते पर लाया जा सकता है।
फिल्म एक बहुत ही सशक्त माध्यम है जो बिना शोर किये भी कम से कम समय में बहुत सारी बातें एक साथ कह सकता है। इस फिल्म के माध्यम से कथा में गूंथ कर जो कहा गया है वह विचारणीय है। पहला सवाल मीडिया और उसकी भूमिका का है। स्मरणीय है कि लोगों तक अपनी बात पहुँचाने के लिए गान्धीजी ने हमेशा ही इस माध्यम का सहारा लिया था। सबसे पहला अखबार उन्होंने दक्षिण अफ्रीका में निकाला था इसके बाद भी वे यंग इंडिया और हरिजन नामक अखबारों के सम्पादक रहे। दाण्डी मार्च की सफलता के पीछे बीबीसी के वे दो पत्रकार भी थे जिन्हें लगातार अपने साथ रख कर उन्होंने दुनिया भर तक अपनी बात पहुँचायी थी। अपनी कहानियों, उपन्यासों के माध्यम से हिन्दी उर्दू की दुनिया में धाक जमाने वाले सुप्रसिद्ध लेखक प्रेमचन्द ने भी जागरण अखबार का सम्पादन सम्हाला था तथा आज भी उनके लिखे सम्पादकीय इस क्षेत्र के लिए मानक हैं। स्वतंत्रता आन्दोलन के दौर के सभी प्रमुख नेताओं ने किसी न किसी तरह से मीडिया से जुड़ाव रखा। यह फिल्म भी बताती है कि न्याय पाने हेतु जनदबाव बनाने के लिए भी मीडिया ही सहारा बनेगा, भले ही आज का मीडिया पूंजी केन्द्रित होने के कारण अपने आर्थिक लाभ हानि की दृष्टि से ही घटनाओं को उछालने और दबाने का काम कर रहा हो। यह फिल्म, मीडिया में स्टिंग आपरेशन के महत्व को भी बताती है, और उसकी अनिवार्यता को प्रकट करती है।
फिल्म नारी स्वातंत्र और उसकी यौनिकता के अधिकार की ओर भी इशारा करती है। आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर महिला पत्रकार, आत्मविश्वास से अपने पिता से फोन पर कहती है कि वह अपनी चिंता खुद कर लेगी। वही अपने सहयोगी के साथ अपनी मर्जी से सेक्स सम्बन्ध भी बनाती है और अपनी प्रोफेशनल जरूरत पर सेक्स के बेहद निजी क्षणों को त्याग कर मिशन पर निकल जाती है। स्मरणीय है कि इसी देश में पिछले साल एक पिता ने अपनी पत्रकार पुत्री की इसलिए हत्या कर दी थी क्योंकि वह दूसरी जाति के लड़के के साथ सादी करना चाहती थी। अपने प्रोफेशन के लिए समर्पित वह पत्रकार अपनी थकी हुयी सहयोगी को रात के दो बजे भी काम पर निकलने के लिए कहती है और जब वह समय की बात करती है तो वह कहती है तुम कोई दफ्तर में काम करने वाली लड़की नहीं हो जो दस से पाँच तक काम करे। अपने चैनल प्रमुख से अपनी स्टोरी के लिए लड़ जाने वाली पत्रकार यह भी साबित करती है कि पत्रकारिता एक्टविस्म भी है, और इसमें कोई बुराई भी नहीं है।
यह फिल्म गवाहों सबूतों वकीलों दलीलों के बोझ से दबी न्याय व्यवस्था देश की राजधानी में तीन सौ सुशिक्षित सम्पन्न और सम्भ्रांत लोगों के सामने हुयी ह्त्या के प्रकरण पर गवाही न मिलने की कटु सच्चाई को सामने लाकर एक ओर समाज की भयग्रस्तता को प्रकट करती है तो दूसरी ओर मृतक की सहयोगी द्वारा गवाही देने के दौरान वकील द्वारा पूछे गये उसके कपड़ों के रंग के बेहूदे सवालों के जबाब में खीझ कर अपने अंडर गार्मेंट्स तक के बारे में बता कर अपना गुस्सा प्रकट करती है। फिल्म याद दिलाती है कि न्याय मँहगे वकील, पैसों के लालच और हिंसा की धमकियों से डरे हुए गवाहों, पुलिस को घूस देकर बदल दिये गये सबूतों की दम पर टिका है व जिसने वैध या अवैध किसी भी तरह से पैसा कमा लिया हो तो वह न्याय को अपनी जेब में डाल कर चलता है। मीडिया और सोशल एक्टविस्म की सुविधा दूर दराज के इलाकों को कहाँ उपलब्ध है जो कभी कभी जेसिका जैसे प्रकरण में संयोग से मिल जाती है। इस संयोग को भी फिल्म में बताया गया है कि देश के एक हवाईजहाज के अपहरण हो जाने की घटना के कारण प्रारम्भ में जेसिका का प्रकरण उपेक्षित हो जाता है और मीडिया द्वारा तभी उठाया जाता है जब उसके पास कोई बड़ी स्टोरी नहीं होती।
पैसे वालों के चरित्र का चित्रण करते हुए न केवल उनके द्वारा गवाही देने से बचने के लिए सफेद झूठ बोलने को ही दर्शाया गया है अपितु रेस्त्राँ की मालकिन द्वारा चाकलेट खाते हुए मगरमच्छी आँसू बहाने का दृष्य़ भी बहुत कुछ कह जाता है। फिल्म में एक कंट्रास्ट बहुत जोरदार है। जहाँ एक ओर मृतका की माँ हत्यारों को सजा न मिलने के सदमे से अस्पताल में दम तोड़ रही होती है वहीं हत्यारे अपने छूटने की खुशी में वैष्णोदेवी की यात्रा कर रहे होते हैं और जयकारा लगा रहे होते हैं। फिल्म बताती है कि न्याय पाने में अंततः जन दबाव ही काम आता है और मृतका के परिवार द्वारा चर्च में की गयी प्रार्थनाएं और हत्यारों के परिवार द्वारा की गयी तीर्थ यात्राएं कोई काम नहीं आतीं। एक ओर पुलिस की भूमिका में पुलिस इंस्पेक्टर को न्याय के पक्ष में सम्वेदनशील बताया गया है जो मारपीट करके न पूछने के एवज में मंत्री से भी पैसे ले लेता है तो दूसरी ओर उच्च न्यायालय के सामने पेश करने के लिए सबूत भी खुद ही देता है। इसी पुलिस का दूसरा पक्ष बड़े अधिकारियों द्वारा दबाव में सबूतों को बदलवाने के काम का प्रकटीकरण भी है।
फिल्म यह सन्देश देने में सफल है कि इस मरणासन्न व्यवस्था को सामाजिक सक्रियता से सुधारा भी जा सकता है।
वीरेन्द्र जैन
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