शनिवार, फ़रवरी 27, 2010

शराब और समाज

[अस्वीकृति में उठा हाथ श्रंखला के अंतर्गत कुछ लेख कभी लिखे थे। यह लेख पूर्व में देशबन्धु समेत एक फीचर एजेंसी के माध्यम से कई समाचार पत्रों में छप चुका है। होली के अवसर पर होली की शुभकामनाओं के साथ साथ इसे ब्लाग के पाठकों के लिये पुनर्प्रस्तुत किया जा रहा है]

विर्मश
शराब और समाज
वीरेन्द्र जैन
एक ओर जहाँ शराब की आलोचना हमारी सामाजिक परंपरा में सम्मिलित रही है वहीं दूसरी ओर उसका प्रयोग तेजी से हमारे व्यवहार का हिस्सा बनता जा रहा है। यह हमारे समाज के बड़े पाखंडों में से एक है। सारी दुनिया के शराबियों में से इकतीस प्रतिशत लोग हमारे देश में रहते हैं। दक्षिण एशिया में हो रहे कुल शराब उत्पादन का पैंसठ प्रतिशत हमारे देश में होता है। आज से तीस साल पहले शराब पीने की औसत उम्र अट्ठाइस साल से प्रारंभ होती थी जो अब उन्नीस तक पहुँच गयी है, तथा इसका नीचे खिसकना लगातार जारी है।
हमारे समाज में विचार का बड़ा स्थान सूचनाएँ और मनोरंजन ने घेर लिया है व परिवर्तन की दिशा व जिम्मेवारी हमने बाजारवादी ताकतों पर छोड़ दी है। सच तो यह है कि हमने विचार करना ही छोड़ दिया है व अगर कहीं विचार सामने आता भी है तो उसके आधार पर सुधार करवाने का नेतृत्व सम्हालने वाले व्यक्ति या संगठन भी चुक गये हैं। एक लम्बे समय से हमारे यहाँ किसी बड़े समाज सुधार का आंदोलन नहीं चला है। लाखों की भीड़ एकत्रित करने वाले राजनीतिक दल और धार्मिक संतों की वेषभूषा में सजे रहने वाले घन्धेबाज अपने धन्धे की दृष्टि से भूले भटके अगर कभी कोई समाज सुधार का नारा उछाल भी देते हैं तो उन पर कोई भी अमल नहीं करता। वे सब के सब भीड़ के यथास्थितिवाद को प्रत्यक्ष या परोक्ष में सहलाते हुये भीड़ से वोट या धन वसूल कर चंपत होने में ही भलाई देखते हैं। वे एक आर्दश विचलित नगर के नागरिकों की प्रशंसा करते हुये उस नगर की महानता व उसके 'गुणग्राहक' नागरिकों की चापलूसी में अपने शब्द भंडार के सारे विशेषण लुटा देते हैं ताकि अपने लक्ष्य हासिल कर सकें। वे चोर को चोर नहीं कह सकते और ना ही गंदगी को गंदगी कहते हैं। उनका मंच वे लोग ही सम्हालते हैं जो समाज में हर तरह की गंदगी के लिए सर्वाधिक जिम्मेवार होते हैं।
देखना यह है कि शराब के विरोध की इतनी लम्बी परंपरा होने के बाद भी वह क्यों फैल रही है। ऐसे समय में शराब के केवल दोषों को गिनाना स्वयं को और जमाने को धोखा देना है। आवश्यकता इस पर गहन विचार विर्मश की है। जब तक बीमारी की जड़ तक नहीं पहुँचा जायेगा तब तक उसे दूर करने के बारे में सोचना केवल ऊपरी कर्तव्य निर्वहन से अधिक नहीं हो सकता।
शराब इतिहास के हर हिस्से में मौजूद है यहाँ तक कि पुराण कथाओं और सारी धार्मिक पुस्तकों में उसका उल्लेख है भले ही वह उसके नकार के रूप में मौजूद हो पर यह भी उस ग्रन्थ के रचनाकाल के दौर में उसकी उपस्थिति और उस उपस्थिति के आतंक की सूचना देती है।
शराब भूगोल के हर हिस्से में मौजूद है जो इस बात का प्रमाण है कि इस अविष्कार के पीछे दुनिया के हर कोने में रहने वाले मनुष्य की आवश्यकता सदियों से जुड़ी रही है। जितने लोग खुल कर शराब पीते हैं उतने ही छुप कर भी पीते हैं।
शराब साहित्य और साहित्यकारों के साथ ही कला के अनेक साधकों के साथ जुड़ी रही है। शराब राज्य और राजनीतिज्ञों के जीवन में भी दिखाई देती रही है। सैनिकों को इसे राशन की तरह दिये जाने की परंपरा रही है।
शराब हर तरह के अपराधियों और अत्याचारियों के जीवन में भी देखने को मिलती है। सामाजिक मूल्यों को ताक पर रख देने वाले जीवन से निराश लोग भी विवेकहीन ढंग से इसका भरपूर उपयोग करते हैं।
शराब को श्रम से पैदा हुयी थकान के बाद अच्छी नींद के द्वारा शक्ति को पुन: अर्जित करने के लिए भी दवा की तरह प्रयोग में लाया जाता है। गन्दे नालों और दूसरी बदबूदार जगहों की सफाई करने वालों को सफाई से पूर्व शराब का सेवन करना जरूरी हो जाता है ताकि वह उस बदबू को सहन कर सकें।
शराब को सर्दी से लड़ने के अस्त्र के रूप में भी प्रयोग में लाया जाता है यहाँ तक कि बच्चों तक को सर्दी के मौसम में ब्रान्डी जैसी शराब की एक दो चम्मचें दी जाती हैं। शराब को यौन क्षमता में वृद्धि करके यौनानन्द बढाने वाली भी माना जाता रहा है।
शराब की विशेषता यह है कि वह अस्थायी तौर पर व्यक्ति के मन को मजबूत करती है और वह अपने प्रभाव काल तक उसे सामाजिक दबावों से स्वतंत्र करती है। इसके सेवन के बाद मजदूर अपने मालिक के प्रति वे भावनाएं व्यक्त करता है जो उसके मन में होती हैं तथा कुंठित प्रेमी अपनी दबी भावनाएं व्यक्त कर देता है। अपने घर परिवार दोस्त और अफसरों द्वारा किया गया अन्याय जो उसने दबा कर रखा होता है वह फूट पड़ता है। स्वतंत्रता का यह अहसास उसे लगभग वैसा ही आनंद देता है जैसे कि किसी किशोर को पहली बार बाइक चलाने का अवसर मिलता है तो उसके पंख लग जाते हैं और वह हवा से बातें करने की कोशिश करता हुआ वहाँ वहाँ पहुँचने की कोशिश करने लगता है जहाँ वह साधनों के अभाववश जाने में असमर्थ रहा होता है। दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि शराब व्यक्ति को सामाजिक बंधनों से मुक्त हो जाने का भ्रम देकर असामाजिक बनाती है। यह खुली असामाजिकता समाज को भयभीत करती है इसलिए वह शराब पीने वाले व्यक्ति को दण्डित करने के लिए उसकी निंदा से दण्ड देना प्रारंभ करता है। बाद में क्रमश: उसके दण्ड बढते जाते हैं। समाज चाहता है कि व्यक्ति उसके नियंत्रण में रहे व उसके द्वारा बनाये गये नियमों के अनुसार ही चले पर शराब का सेवन इसमें बाधक होता है।
शराब के उपरोक्त उपयोग देखते हुये सभी शराब पीने वालों को एक ही श्रेणी में नहीं रखा जा सकता क्योंकि समाज से असहमतियाँ व उसके प्रति विद्रोह के सबके तेवर भिन्न होते हैं। शराब पीने के लिए बदनाम शायरों और कवियों ने भी साहित्य जगत में अमूल्य रचनाएं दी हैं क्योंकि यह शोषणकारी समाज के प्रति अपने आक्रोश को व्यक्त करने का उनका तरीका था। (रोचक यह है कि बहुत सारे महात्वाकांक्षी नकलची साहित्यकार तो इस भ्रम में शराब पीने लगे कि उससे वे श्रेष्ठ साहित्य लिख सकेंगे।) घार्मिक मुल्ला मौलवियों व धर्म उपदेशकों के पाखण्ड का सर्वाधिक खुलासा इन्हीं अदीबों ने किया है जिसके लिए हजारों लाखों लोगों ने उनकी शराबनोशी को माफ कर दिया है व उन्हें दिलो जॉन से आदर दिया है। बुद्धिजीवियों के बीच में भी इसे वर्जित वस्तु नहीं समझा जाता।
जो लोग समाज से ऊपर माने जाते रहे हैं वे लोग समाजिक नियमों के पालन के प्रति निरपेक्ष होकर शराब का सेवन करते रहे हैं। जब से दुनिया में समानता के विचार ने जोर पकड़ा तब से समाज का आम आदमी भी समाज के शिखर पर बैठे लोगों जैसे होने के सपने देखने लगा है व एक वर्ग तो उनकी नकल करने लगा है जिसमें शराब का सेवन करना भी एक है। वह उनके लिए एक नई डिश की तरह है जो उनकी दावतों में परोसी जाकर उनके स्तर को बढाती हो। विशेष रूप से मध्यम वर्ग ऐसी नकलों के लिए मशहूर रहा है। नये शराबियों में सर्वाधिक इसी वर्ग के नवधनाड्य लोग जुड़ रहे हैं।
शराब सपनों की तरह मन की दूसरी कुंठाओं को बहुत तेजी से उभारती है इसलिए कई बार ताजा ताजा परेशान करने वाली अप्रिय घटनाओं को दूसरी इच्छाओं से ढक देने के लिए भी शराब पियी जाती है जिसके लिए कहा जाता है कि शराब गम को भुला देती है, जो असल में किसी दूसरे सपने या कुंठा के आच्छादित हो जाने का परिणाम होता है। रासायनिक रूप से इसका प्रभाव नींद लाने वाला भी होता है इसलिए वह जागृत अवस्था में पैदा हुये तनावों को भुलाने का काम भी करती है। शराब दिमाग को किसी विषय विशेष पर केन्द्रित करने का काम भी करती है, आमतौर पर कलाकार इसी विश्वास के साथ इसका सेवन करते हैं। इसे मंच के संकोच को दूर करने वाली दवाई भी माना जाता है।
बनावटी तौर पर शराब साहस का संचार भी करती है जो कि एक मनोभाव भर होता है। सामान्य अवस्था में व्यक्ति दूरदृष्टि से सोचता है और वह वे काम करने से बचता है जिनके करने से समाज के द्वारा उसे दण्डित किया जा सकता है किंतु शराब के सेवन से दूरदृष्टि धुंधला जाती है जिससे वह समाज द्वारा अस्वीकृत काम को करने का साहस कर लेता है। कई बार बाद में वह इस विद्रोह का परिणाम भी भुगतता है।
शराब में अनेक दुर्गुण भी हैं जिनके लिए उसकी अनेक विशेषताओं को ताक पर रख कर उसे वर्जित वस्तु की तरह रखा व प्रचारित किया गया है। उसका सबसे बड़ा दुर्गुण तो यह है कि उसकी सारी विशेषताएँ अस्थायी होती हैं। वे तब तक ही काम करती हैं जब तक कि व्यक्ति शराब के प्रभाव में रहता है। शराब उतरने के बाद उसका सारा दुस्साहस एक पश्चाताप के रूप में सामने आता है। शराब का अस्थायी आनन्द उसे बनाये रखने के लिए बार बार शराब पीने को प्रेरित करता है जो अंतत: एक ऐसी आदत में बदल सकता है कि उससे बचना आदमी के वश में नहीं रह जाता।
शराब के प्रयोग को कम करने की नैतिकता का झूठा दिखावा करने हेतु अधिकतर राज्य सरकारों ने इस पर बहुत अधिक मात्रा में टैक्स लगा दिये हैं जिससे यह मंहगी हो गयी है व इसकी बिक्री से राज्यों को राजस्व का एक बड़ा भाग प्राप्त होता है। इसकी आदत का शिकार आदमी यदि इसके नियमित प्रयोग का खर्च वहन करने की स्थिति में नहीं होता तो वह अर्थोपार्जन के अवैध रास्ते तलाशने लगता है। दूसरी ओर इसका अवैध उत्पादन अनेक तरह के आर्थिक अपराधों व उससे जुड़े सामाजिक अपराधों को बढावा देते हुये राजनीति को भी प्रभावित करते हैं। राष्ट्रपिता गांधी जी के राज्य गुजरात में उनके नाम पर पूर्ण नशाबन्दी लागू है किंतु वहाँ भी अन्य सभी राज्यों के समान मात्रा में ही अवैध रूप में इसकी खपत होती है तथा राजस्व के बराबर की रकम राजनीतिज्ञों अफसरों और अपराधियों में वितरित हो जाती है। यह हिस्सेदारी लम्बे समय से वहाँ की राजनीति को विकृत कर रही है।
टैक्सों की अधिकता के कारण इसे अवैध रूप से बनाने और बेचने में कई गुना लाभ होता है इसलिए अवैध रूप से बनाने और बेचने का धंधा अपने चरम पर है जो अपनी सुरक्षा के लिए अन्य अनेक तरह के अपराधों को भी संरक्षण देता है। इसके व्यवसाय से जुड़े लोगों के धन और वैभव में होने वाली वृद्धि सबके सामने है और अपनी कहानी आप कहती नजर आती है।
अपराधियों द्वारा शराब सेवन करने के नाम पर सारे दोष शराब को दे दिये जाते हैं जबकि अपराध की कोई सी भी ऐसी विधा नहीं है जो शराब पिये बिना संभव नहीं होती हो या सदैव शराब के सेवन के बाद सारे लोग वैसे अपराध आवश्यक रूप से करते ही हों। सच तो यह है कि यह एक ऊपरी और अस्थायी ऊर्जा है जिसके प्रयोग के बाद अलग अलग तरह के व्यक्ति अपनी प्रकृति के अनुरूप फल देते हैं। जैसे एक ही पानी अलग अलग तरह की फसलों में लग कर उनके बीजों के अनुरूप ही फसल देते हैं उसी तरह शराब भी काम करती है। शराब से होने वाले शारीरिक नुकसान का तर्क भी गढा हुआ है। शारीरिक क्षमता से अधिक किसी भी खाद्य पदार्थ का स्तेमाल नुकसान करता है। अधिक मसाले नुकसान करते हैं, अधिक मैदा नुकसान करती है, यहाँ तक कि नमक और पानी भी अधिक मात्रा में लेने पर नुकसान कर जाता है पर शराब नुकसान का दायरा स्वयं के साथ परिवेश को भी प्रभावित करता है। उसमें गन्ध होती है जो दूसरों तक पहुँचती है और उन्हें अप्रिय लगती है। इसके नशे में आदमी अमर्यादित मन से अपने परिवेश के लोगों के जीवन में हस्तक्षेप करने लगता है। आर्थिक अभावों की स्थिति में उसका पूरा परिवार प्रभावित होता है जिससे या तो वह आसपास के लोगों से पैसा मांगने लगता है या सहज मानवीयतावश लोग उसकी सहायता के लिए विवश हो जाते हैं। मन की तरंग में वह समाज द्वारा निर्मित रिश्तों की मर्यादाएं भी तोड़ने की स्थिति में आ सकता है।
यदि दाम्पत्य संबंधों के देह व्यवहार की तरह इसे गोपनीय व व्यक्तिगत स्तर तक सीमित किया जा सके तो यह एक दवा भी है पर बाजारीकरण के इस दौर में जब दैहिक व्यवहार भी सार्वजनिक होते जा रहे हैं तब इसे कमरे में कैद कराने के लिए गम्भीर उपाय तलाशने होंगे।
वीरेन्द्र जैन
2\1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
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