बुधवार, अप्रैल 16, 2014

किताबों के बहाने राजनीतिक हमले

किताबों के बहाने राजनीतिक हमले
वीरेन्द्र जैन

       सोलहवीं लोकसभा के लिए हो रहे आम चुनाव देश में हुए पिछले आम चुनावों से भिन्न हैं जो सबसे बड़े विपक्षी दल के एक व्यक्ति की तानाशाही में बदलने और उसके द्वारा चुनाव जीतने के सारे हथकण्डे अपनाने के लिए जाने जा रहे हैं। इस राजनेता ने पहले तो अपने दल और पितृ संगठन के सक्रिय नेताओं को हाशिये पर किया और बाद में न केवल अपने विपक्षियों को दल बदलने के लिए उत्प्रेरित कर दो दर्ज़न से अधिक टिकिट तो हाल ही में दल बदल करके आने वाले लोगों को दिये हैं अपितु दूसरे दलों से टिकिट प्राप्त [भिंड] और नामांकन दाखिल करने के बाद [नोएडा] भी दलबदल करवाया है। मशहूर फिल्मी कलाकार, गायक, संगीतकार ही नहीं अपितु पूर्व राजघरानों  के सदस्यों के साथ साथ राज्य सभा सदस्यों, विधायकों. और राजनेताओं के पुत्र पुत्रियों, पूर्व सेना अधिकारियों, पुलिस अधिकारियों, प्रशासनिक अधिकारियों, को टिकिट देकर किसी भी तरह से जीत सुनिश्चित करने की व्यवस्थाएं की गयी हैं। अंतर्राष्ट्रीय विज्ञापन एजेंसियों की सेवायें लेना, सोशल मीडिया पर जाली एकाउंटों के द्वारा लोकप्रियता का भ्रम पैदा करना, वीडियो कैमरों की नई तकनीक से भीड़ को अतिरंजित करके दर्शाने और उसे मीडिया घरानों तक पहुँचाने, चुनावी सर्वेक्षणों की निरपेक्षता को प्रभावित करने और विज्ञापनों के समस्त माध्यमों में विज्ञापन की बाढ लाने के उदाहरण सामने हैं। देश को सबसे पुरानी और एतिहसिक पार्टी कांग्रेस से मुक्त करने के नारे से शुरू करके साम्प्रदायिक सद्भाव बिगाड़ने तक के सारे अनैतिक तरीके अपनाये जा रहे हैं।
       चुनाव को संग्राम में बदल कर हर अनैतिक काम को उचित बनाने के इस दौर में ही प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के पूर्व सलाहकार संजय बारू और पूर्व कोयला सचिव पारख की किताब का आना केवल एक किताब का आना और उस किताब पर भाजपा नेताओं की पूर्व तैयार प्रतिक्रिया का आना उनकी रणनीति के हिस्से से अलग नहीं है। सभी जानते हैं कि हमारे यहाँ क्रमशः परिपक्वता की ओर बढ रहे लोकतंत्र में चुनाव परिणामों में अभी तक चुनाव पबन्धन की बड़ी भूमिका है और गाँधीनगर से पर्चा भरते समय अडवाणीजी ने भाजपा की ओर से घोषित प्रधानमंत्री पद प्रत्याशी मोदी को एक बेहतर इवेंट मैनेजर की तरह बता कर स्थिति को और भी स्पष्ट कर दिया था।
       इसमें कोई सन्देह नहीं कि श्री मनमोहन सिंह अचानक पैदा हुयी परिस्तिथियों के कारण प्रधानमंत्री बने थे और वे चुनावी प्रबन्धन में निष्णात जननेता कभी नहीं रहे। वे एक अंतर्राष्ट्रीय ख्याति के अर्थशास्त्री होने के बाद भी नई दिल्ली लोकसभा क्षेत्र जैसे सर्वाधिक शिक्षित मतदाताओं के बीच भी श्री जगमोहन से हार गये थे और उसके बाद असम राज्य से राज्यसभा में चुन कर आते रहे। देश की सभी गैरकांग्रेसी सरकारों के भी आर्थिक सलाहकार रहे श्री सिंह ने देश के इस सर्वोच्च पद पर आने के बारे में सोचा भी नहीं होगा। जब 2004 के लोकसभा चुनाव में अपने इंडिया शाइनिंग के भ्रम और कपोल कल्पित सर्वेक्षणों के प्रभाव में भाजपा को सच्चाई का सामना करना पड़ा और श्रीमती सोनिया गाँधी के नेतृत्व वाली काँग्रेस से पराजय झेलना पड़ी तो वह बौखला गयी थी। उसको समर्थन देने वाले अधिकांश दल 2002 में गुजरात में हुये मुसलमानो के नरसंहार के बाद एनडीए को छोड़ कर जा चुके थे। इस बौखलाहट में उसने अपने पुराने गैर राजनीतिक हथकण्डों को अपनाना शुरू कर दिया।
       2004 के चुनावों के बाद कांग्रेस अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गाँधी काँग्रेस की स्वाभाविक नेता के रूप में उभरी थीं और देश की बहुरंगी संस्कृति की तरह सभी क्षेत्रों और रुझानों वाले काँग्रेसियों का भी उनके नेतृत्व पर मतैक्य था। बाहर से समर्थन देने वाले बामपंथियों ने भी कह दिया था कि काँग्रेस में नेतृत्व का मामला उनका अपना आंतरिक मामला है और उनका बाहर से समर्थन न्यूनतम साझा कार्यक्रम पर आधारित है। काँग्रेस संसदीय दल के चुनाव में भी श्रीमती गाँधी सर्व सम्मति से नेता चुनी गयी थीं। इस बीच अपनी अप्रत्याशित पराजय की खीझ में भाजपा ने यह जानते हुए भी कि वैधानिक रूप से देश का कोई भी नागरिक किसी भी पद पर चुना जा सकता है, सोनियाजी के विदेशी मूल का मुद्दा उछाल दिया था और समानांतर रूप से ईसाई मिशनरियों द्वारा बलात धर्म परिवर्तन के शगूफे उछालना शुरू कर दिये थे। श्रीमती सुषमा स्वराज ने तो श्रीमती गाँधी के प्रधानमंत्री पद पर आने की स्थिति में अपना सिर मुड़ाने, चने खाकर रहने और ज़मीन पर सोने जैसे आचरण करने की धमकी दे डाली थी जो हिन्दू धर्मग्रंथों में भारतीय विधवा के लिए बताये गये हैं। उनकी देखादेखी भाजपा में उनकी प्रतियोगी साध्वीके भेष में रहने वाली तमाशाई नेता उमा भारती ने भी भाजपा नेतृत्व से पूछे बिना ऐसा ही आचरण करने की चेतावनी दे डाली थी। उल्लेखनीय है कि श्रीमती सोनिया गाँधी ने श्री राजीव गाँधी की दुखद हत्या के बाद काँग्रेस के सर्वसम्मत अनुरोध के बाद भी राजनीति में रुचि नहीं ली थी और लगभग एक दशक तक दूरी बनाये हुये थीं। किंतु जब काँग्रेस निरंतर कमजोर होती गयी और देश पर फासिस्ट ताकतें देश विभाजन का खतरा पैदा करने लगीं तो उन्होंने बेमन से काँग्रेसियों के अनुरोध को स्वीकार कर आम चुनाव में जनता का विश्वास भी प्राप्त कर लिया था।
       इसमें कोई सन्देह नहीं कि भाजपा के कूटनीतिक लाँछनों और अपमानजनक आरोपों से दुखी होकर ही श्रीमती गाँधी ने स्वयं को दी गयी ज़िम्मेवारी को श्री मनमोहन सिंह की ओर कर दिया था और उन्हें इस पद को ग्रहण करने के लिए मना लिया था। इस घटनाक्रम के दौरान कुछ असंतोष के स्वर भी उभरे थे जिन्हें परिस्तिथियों के सन्दर्भ में सामूहिक नेतृत्व के आश्वासन और श्रीमती सोनिया गाँधी द्वारा यूपीए की चेयरपर्सन का पद स्वीकारने के तर्क पर शांत कर दिया गया था। उल्लेखनीय यह भी है कि पिछले दिनों जब अडवाणी जी को संघ के निर्देश पर सदन में भाजपा के नेतृत्व से हटा दिया गया था और श्रीमती सुषमा स्वराज को इस पद पर प्रतिष्ठित कर दिया गया था तो उनका कहना था कि उन्होंने यह पद अडवाणीजी के इस आश्वासन के बाद ही स्वीकार किया है कि वे दोनों सदनों के नेताओं के ऊपर संसदीय दल का वास्तविक नेतृत्व करते रहेंगे। स्मरणीय है कि विपक्ष के नेता का पद भी संवैधानिक पद है और विपक्ष के नेता को केबिनेट मंत्री की सुविधाएं और अधिकार प्राप्त हैं।
       प्रधानमंत्री कार्यालय ने संजय बारू की किताब में लगाये गये सभी आरोपों से इंकार किया है किंतु ऐसी दशा में यदि पूर्ण सहमति से प्रधानमंत्री गठबन्धन की अध्यक्ष के साथ मिलकर कोई नीतिगत विमर्श करते या सलाह लेते भी हों तो वह अनैतिक तो नहीं माना जा सकता। ठीक चुनाव के बीच में किताब के आने के समय को देखते हुए इस किताब को सामान्य संस्मरण पुस्तक भी नहीं माना जा सकता जबकि प्रधानमंत्री की पुत्री का कहना है कि संजय बारू ने अपनी पुस्तक को चुनाव के बाद जारी करने की बात कही थी। भाजपा के प्रधानमंत्री पद प्रत्याशी श्री नरेन्द्र मोदी देश के इस महत्वपूर्ण पद को जिस तरह की सस्ती मजमेबाज लोकप्रियता की बैशाखियों पर खड़ा करने की कोशिश कर रहे हैं, इस समय पर इस पुस्तक का आगमन इसी की कड़ी का हिस्सा मालूम देती है और दुर्भाग्यपूर्ण है। स्मरणीय है कि विपक्ष द्वारा अपनी आलोचना के स्तर पर क्षुब्ध होकर एक बार तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गाँधी ने कहा था कि इन्दिरा गाँधी महत्वपूर्ण नहीं हैं किंतु देश के प्रधानमंत्री का पद महत्वपूर्ण है और इस पद की गरिमा को नीचे गिराने के काम को देश की गरिमा के साथ किये जाने वाले व्यवहार की तरह देखा जाना चाहिए।  
वीरेन्द्र जैन
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