प्रसंगवश
27 मई नेहरू जी की पुण्यतिथि पर
एक वैज्ञानिक चेतना से सम्पन्न प्रधानमंत्री
वीरेन्द्र जैन
[पूर्व प्रकाशित एक लेख के अंश]
नेहरूजी के काल में आबादी इतनी अधिक नहीं हुयी थी तथा रोज़गार की दशाएं भी इतनी कठिन नहीं थीं। गरीबी के साथ साथ बौद्धिक पिछड़ापन भी था जिससे गरीबी को ईश्वर प्रदत्त निय्यति मान लिये जाने के कारण असंतोष बहुत तीव्र नहीं था। महात्वाकांक्षांओं की फसल सर्व व्यापी नहीं होती थी इसलिए ईर्षा और प्रतियोगिता कम थी। नेहरूजी को स्वप्नदर्शी माना गया है, और वे निस्वार्थभाव से खुशहाल भारत में लहलहाता जनजीवन देखना चाहते थे। वे चाहते थे कि लोग पूरी दुनिया के समकक्ष देश के विकास के लक्ष्य को रख कर चलें। इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए दुनिया के दूसरे विकसित देशों की वैज्ञानिक चेतना उन्हें आदर्श लगती थी इसलिए वे अपने देश में भी उस चेतना का प्रसार चाहते थे। वे जानते थे कि जिन पकी उम्र वालों की सोच जड़ हो चुकी है उनसे परिवर्तन की आशा रखना कठिन है इसलिए इस देश का भविष्य बच्चे ही बना सकेंगे। नेहरूजी बच्चों से प्यार ही नहीं करते थे अपितु उन्हें वैज्ञानिक सोच से भरा हुआ भी देखना चाहते थे। खेद है कि नेहरूजी के बाद उस दृष्टि को तिलांजलि दे दी गयी तथा शिक्षा को प्राईवेट क्षेत्र की ओर सरका दिया गया, जो वैज्ञानिक की जगह टेक्नोक्रेट या कहें कि मैकेनिक तैयार करते हैं। हर तरह के साम्प्रदायिक अवैज्ञानिक सोच वाले संस्थानों ने शिक्षा जगत पर अधिकार कर लिया जिससे बच्चों में विकिसित हो सकने वाली वैज्ञानिक सोच की दिशा पलट दी गयी। शिक्षा संस्थाएं हिन्दू मुस्लिम और ईसाइयों में बँट गयीं जहाँ अपने अपने देवताओं की मूर्तियों चित्रों या प्रतीकों के सामने प्रार्थनाएं करायी जाती हैं। इन स्कूलों में विज्ञान केवल याद करके पास हो जने वाला विषय भर है।
ऐसी संस्थाओं से जो डाक्टर इंजीनियर व अन्य विषयों के विज्ञानविद ‘उत्पादित’ किये जाते हैं, उनकी दृष्टि वैज्ञानिक नहीं होती है। उनमें से अनेक रहस्यवाद और नियतवाद में भरोसा रखते हैं तथा वैज्ञानिक संस्थाओं से भरपूर वेतन सुविधाएं लेते हुये भी अदृश्य अज्ञात और अस्पष्ट में आस्था रखते हैं। डाक्टर केमिस्टों की तरह दवा या स्वास्थ सेवाओं के विक्रेता हो गये हैं और इंजीनियर दलालों की तरह जाने जाते हैं। इतने विशाल देश में ना तो कोई नई खोज की खबर आती है और ना ही नये प्रयोगों की बात सामने आती है। जो कुछ भी पश्चिमी देशों में खोज लिया जाता है, उसकी हम दुकान सजा कर बैठ जाते हैं। मदरसों, सरस्वती शिशु ‘मन्दिरों’, और ईसाई संतों के स्कूलों में ढले बच्चों से और आशा भी क्या की जा सकती है, जहाँ दोपहर का भोजन करने से पहले भोजन मंत्र का पाठ अनिवार्य होता हो।
हम अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं की मदद से बाल श्रम को चाइल्ड लेबर जैसी अभिजात्य शब्दावली में पुकार, पाँच सितारा होटलों में सेमिनार कर वहाँ के स्वादिष्ट लंच की तारीफ करते रहते हैं। करुण शब्दावली से सुशोभित सेमिनारों के बाद हम एक दूसरे को सुन्दर सफल भाषण के लिए बधाइयाँ देते हैं पर इन सेमिनारों में व्यय हुये धन के अनुरूप वास्तविक उपलब्धियों का मूल्यांकन कभी नहीं करते। अपनी सीमित दृष्टि में हम यह भूल जाते हैं कि बाल श्रम इसलिए भी बढ रहा है क्योंकि वो सस्ता होता है तथा अपने उचित श्रम मूल्य की मांग करने की क्षमता उनके पास नहीं पायी जाती। अपने प्रोजेक्ट को पूरा कर नये प्रोजेक्ट को हथियाने की फिराक में लगी कुछ स्वयंसेवी संस्थाएं श्रमिक बालकों को सेवा से मुक्त कराके उनको तथा उनके परिवार को भुखमरी के कगार पर ला पटकती हैं। वे संस्थाएं नहीं जानना चाहतीं कि जब तक उसके परिवार के व्यस्क सदस्यों को रोज़गार नहीं मिलेगा तब तक बच्चा ही उनका पेट पालता है तथा उसकी जगह बड़े लोगों द्वारा नहीं भरी जा सकती।
नेहरूजी के सपनों को बिखरा देने वाली दुर्घटना चीन के साथ अनावश्यक सीमा विवाद का पैदा होना थी। जिस पंचशील के आदर्शॉं पर चलकर हम पंचवर्षीय योजनाओं के द्वारा विकास कर रहे थे उसकी दिशा भटका दी गयी थी। आज हमारे बज़ट का एक तिहाई हिस्सा केवल रक्षा पर खर्च होता है तथा बालकों की शिक्षा के हिस्से में दो प्रतिशत भी नहीं आता है। नेहरूजी के सपनों पर विचार करते समय हमें उन तत्वों की पड़ताल करना भी ज़रूरी होगा जो हमें शांति से विकास नहीं करने देना चाहते। जिस शक्ति ने सदैव पाकिस्तान को को सैन्य मदद देकर भड़काया है, चीन के साथ सीमा विवाद में फँसाया है, वही अब ईरान से हमारे सम्बन्ध खराब कराके हमें ऊर्ज़ा संकट में डालना चाहती है। नेहरूजी को सच्ची श्रद्धांजलि विवेक का विकास और वैज्ञानिक दृष्टिकोण को व्यापक बना कर ही दी जा सकती है। नेहरूजी के प्यारे बच्चे तब ही फल फूल सकेंगे।
वीरेन्द्र जैन
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मो. 9425674629
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