गुरुवार, फ़रवरी 17, 2011

राष्ट्रीय दलों से ये निराशा कहाँ ले जायेगी


राष्ट्रीय दलों से ये निराशा कहाँ ले जायेगी

वीरेन्द्र जैन
पिछले दिनों पूरे समय तक विपक्ष की जिस माँग पर सदन का सत्र नहीं चल सका था, वह गठबन्धन सरकारों की मजबूरी में फँसे लोकतंत्र की बिडम्बना का एक नमूना था। एक के बाद उद्घाटित हो रहे भ्रष्टाचार के किस्से, विदेशी बैंकों में जमा अटूट धन के आरोप, किसानों की आत्महत्याएं, साम्प्रदायिक, नक्सलवादी, आतंकवादी और अलगाववादी हिंसा आदि के कुछ ऐसे मामले हैं जो एक साथ सामने आकर सरकार को अस्थिर कर रहे हैं। इससे एक ओर तो व्यापक जन असंतोष पैदा होने की आशंका व्यक्त की जा रही है तो दूसरी ओर विभाजित विपक्ष के कारण मध्यावधि चुनाव की सम्भावनाएं भी बन सकती है। यदि मध्यावधि चुनाव के बाद भी जनादेश कमोबेश इसी तरह का बना तो देश को अपनी लोकतांत्रिक प्रणाली में कुछ बड़े सुधार करने पड़ेंगे। ऐसे में देश के राजनीतिक दलों की दशा का पुनर्परीक्षण जरूरी हो जाता है।
देश में छह राष्ट्रीय दल हैं जिनमें से भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी दो बड़े दल हैं। केन्द्र में सरकार बनाने की दृष्टि से इन्हें मुख्यधारा के दल कहा जाता है, और यह माना जाता है कि जब भी सरकार बनेगी उनमें इन दो दलों की भूमिका प्रमुख होगी। दुर्भाग्य से इन दोनों दलों की हालत भी ठीक नहीं चल रही जिससे देश में कभी भी संवैधानिक संकट आ सकता है।
पिछले दिनों प्रजा राज्यम पार्टी के प्रमुख तेलगु फिल्मों के लोकप्रिय अभिनेता चिरंजीवी को जिस मनुहार के साथ कांग्रेस में सम्मलित किया गया और उनके द्वारा सहमति देने पर कांग्रेस नेताओं के चेहरे पर जो खुशी फूटी पड़ रही थी वह इस राष्ट्रीय पार्टी की दरिद्रता को दर्शा रही थी। सोनिया गान्धी की अध्यक्षता को यह कह कर स्वीकार किया जा सकता है कि वे गुटों में बँटी कांग्रेस की इकलौती निर्विवाद नेता हैं और इंगलैंड की महारानी की तरह कांग्रेस की प्रतीकात्मक प्रमुख हैं, पर प्रधानमंत्री के रूप में मनमोहन सिंह का मनोनयन हमारे लोकतंत्र पर एक बड़ा प्रश्न चिन्ह खड़ा करता है। वे निर्विवाद रूप से एक अंतर्राष्ट्रीय स्तर के अर्थशास्त्री हैं और देश के वित्त मंत्रालय के प्रमुख अधिकारी, रिजर्व बैंक के गवर्नर और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष, विश्व बैंक सहित वित्त मंत्रालय के सलाहकार रह चुके हैं। स्वभाव से विनम्र और मृदुभाषी हैं, किंतु लोकतंत्र में एक अच्छा नौकरशाह होने भर से कोई जनप्रतिनिधि की कुर्सी पर बैठने का अधिकारी नहीं बन जाता। बिडम्बना यह है कि वे लोकसभा का कोई चुनाव नहीं जीत सके और स्वयं को असम का निवासी होने का वैधानिक सच बोल कर वहाँ से राज्यसभा के लिए चुन कर आते हैं। लोकतंत्र में आप जनता को कितना समझते हैं इससे ज्यादा जरूरी होता है कि जनता आप को कितना समझती है और कितना भरोसा करती है। वे योग्य हो सकते हैं और कानूनन प्रधानमंत्री पद को सुशोभित करने की पात्रता रखते हैं किंतु संविधान की मूल भावना की दृष्टिसे किसी जनता के बीच के और उसके विश्वास प्राप्त व्यक्ति को ही प्रधानमंत्री पद पर होना अधिक नैतिक होता है। ऐसा हुआ भी होता अगर देश की सबसे बड़ी पार्टी इतनी ढीली पोली नहीं होती कि उसके पास राष्ट्रीय स्तर का कोई जननेता ही न हो। इन्दिरा गान्धी पर भले ही वंश परम्परा से आने का आरोप लगता रहा है किंतु उन्होंने अपने आप को एक योग्य प्रशासक और जनप्रिय नेता साबित कर दिखाया था। पर राजीव गान्धी और सोनिया गान्धी उस गुण के धनी नहीं रहे, जिसकी पूर्ति राहुल गान्धी पूरी करने की कोशिश कर रहे हैं। राहुल गान्धी को भी कांग्रेसी एकता की दृष्टि से पार्टी के सर्व स्वीकार नेता होने के रूप में देखा जा रहा है, किंतु प्रधानमंत्री के रूप में वे अभी भी अपरिपक्व हैं। कांग्रेस के पास नेताओं की ऐसी श्रंखला है जो अपने चुनाव क्षेत्र में अपना प्रभाव रखते हैं और चुनाव जीत कर कांग्रेस को मजबूती देते हैं। किंतु यह मजबूती कांग्रेस की न होकर उसके नेताओं की मजबूती होती है।
भाजपा एक संगठित पार्टी है जिसके पास आरएसएस का मजबूत कैडर है, जो देश के मध्य और पश्चिमी राज्यों में विशेष प्रभाव रखती है। बजरंग दल से लेकर विश्व हिन्दू परिषद तक उसके पास चौंसठ संगठन है जिसके सदस्य विचार की जगह भावना के आधार पर कुछ भी करने को तैयार रहते हैं। उसके पास अभी आडवाणी जैसा राष्ट्रीय स्तर का नेता बचा हुआ है जिसके पास अनुभव और क्षमताएं भी हैं। किंतु भाजपा एक संकीर्ण विचारों वाली हिन्दुत्व के नाम पर वोट जुटाने वाली साम्प्रदायिक पार्टी के रूप में जानी जाती है जिसके नेता भ्रष्टाचार में कांग्रेस के कतिपय नेताओं से प्रतियोगिता करते रहते हैं। भाजपा को देश की उदार विचारों और पंथ निरपेक्षता में विश्वास करने वाली जनता पसन्द नहीं करती। भाजपा के पास अपना एक छोटा सा वोट बैंक है जो उसे सत्ता तक नहीं पहुँचा सकता इसलिए इस कमी को उसे भी लोकप्रिय फिल्मी सितारों, खिलाड़ियों, साधु भेषधारियों, पूर्वराजपरिवार के सदस्यों आदि से भरना होता है। वे भी चैनलों पर बहस के लिए वकीलों को भरती करते हैं और प्रचार के लिए पत्रकारों व अखबारों को खरीदते हैं अर्थात पेड न्यूज का सहारा लेकर अपना झूठ भी प्रचारित करा लेते हैं। उनके पास सबसे बड़ा मीडिया सैल है। वे हिन्दू वोटों को अपनी ओर करने के लिए साम्प्रदायिकता पैदा करने में गुरेज नहीं करते। कुल मिलाकर उनके पास भी एक आदर्श लोकतांत्रिक व्यवस्था के लायक ढाँचा नहीं है, भले ही दल के रूप में कई मामलों वे कांग्रेस से आगे हों।
बहुजनसमाज पार्टी, आजादी के बाद दलितों को संवैधानिक अधिकारों के मिलने किंतु सामाजिक रूप से उन अधिकारों के न मिलने के द्वन्द से उत्पन्न पार्टी है जो आरक्षण से प्राप्त अवसर को भुना पाने में सफल हो चुके लोगों के सहयोग से एक निश्चित समर्थन जुटाने में सफल हुयी। किंतु इस पार्टी के संस्थापकों और उनके उत्तराधिकारियों का विश्वास जन से अधिक धन में रहा और वे पार्टी के विकास में धन की भूमिका से प्रभावित रहे। यही कारण रहा कि उन्होंने जुटाये हुए समर्थन का सौदा किया और विशाल कोष जुटाया। इस कोष जुटाऊ प्रवृत्ति ने एक ओर तो उन्हें उनकी मूल नीतियों से भटका दिया तो दूसरी ओर उनके दूसरे नम्बर के नेता भी टूट कर धन जुटा कर वैसी ही अलग अलग जातिवादी पार्टियाँ बनाते चले गये जिससे उन्हें नुकसान हुआ। वे अब सवर्णों के साथ समझौता करके केवल एक राज्य में सता में हैं और दूसरे राज्यों में अपना वोटों का प्रतिशत बनाये रखने के लिए सभी सीटों पर चुनाव लड़ते हैं जिसमें से कहीं कहीं दलबदल कर आया कोई नेता अपने व्यक्तिगत प्रभाव के कारण जीत भी जाता है। यह दल केवल धन से ही खिंच रहा है और सता से धन बनाने के कारखाने चला रहा है। समाज में वर्णभेद के बने रहने और सत्तालोलुप सवर्णों के समर्थन देने तक ही इसका अस्तित्व है। सत्ता से फिसलने पर इसके धन के स्त्रोत भी सूख जाएंगे और दल भी इतिहास बन जायेगा क्योंकि जिस आन्दोलन के आधार पर इसने अपनी स्थापना की थी उसे भुला दिया गया है। अब न यह जातिवादी उत्पीड़न के खिलाफ लड़ता है, न किसानों मजदूरों की माँगों के लिए और न ही महँगाई जैसे मुद्दों को ही छूता है।
नैशनलिस्ट कांग्रेस पार्टी अर्थात एनसीपी कांग्रेस का ही एक टुकड़ा है जो सोनिया गान्धी को नेता स्वीकार न करने वाले शरद पवार जैसे कुछ वरिष्ठ नेताओं ने बनायी थी जिन्होंने बाद में कांग्रेस से ही समझौता करके और सरकार में सम्मलित होकर अपनी स्थापना के आधार को ही मिटा दिया। अब वह केवल एक नेता और उसके द्वारा कमाई हुयी दौलत के सहारे चल रही है व केवल महाराष्ट्र तक केन्द्रित होकर रह गयी है। यह पार्टी या तो जल्दी ही कांग्रेस में मिल जायेगी या इसकी राष्ट्रीय मान्यता समाप्त होने की स्तिथि आ जायेगी। काले धन पर सम्भावित कार्यवाहियों का भी इस पर गहरा असर पड़ेगा।
अंतिम दो पार्टियां कम्युनिष्ट पार्टियाँ हैं जो अपने अस्तित्व में तो देशव्यापी हैं और अधिकांश राज्यों में अपनी क्षीण उपस्तिथि रखती हैं किंतु अलग अलग होने के कारण संख्या बल में कमजोर हैं। डा. राधाकृष्णन ने उन्हें न्यू ब्राम्हण कहा है और बिल्कुल सही कहा है, क्योंकि उनके लिए बाकी की पार्टियाँ अछूत हैं। गठबन्धन के युग में भी वे सत्ता के लिए किसी से भी सैद्धांतिक समझौता नहीं करते। वे सत्ता में आना ही नहीं चाहते पर जब भी वे किसी को समर्थन देते हैं तो न्यूनतम साझा कार्यक्रम बना कर अपनी शर्तों पर ही समर्थन देते हैं। गत दिनों उनके विपक्ष के एक हो जाने के कारण वे अपने गढों में भी चुनाव परिणामों में पिछड़ गये हैं भले ही उनकी आन्दोलनकारी क्षमता बची हुयी हो। अपनी ईमानदारी के कारण वे संसाधनों के बिना चुनाव मैदान में उतरते हैं और दूसरे दलों की बराबरी नहीं कर पाते।
कुल मिला कर हालत यह है कि राष्ट्रीय मान्यता प्राप्त दलों के अलावा विभिन्न राज्य स्तरीय दलों के लोग बहुत बड़ी संख्या में जीत कर आने की आशंका बनी हुयी है जिनमें से कितने “राजा” बनने का प्रयास करेंगे कहा नहीं जा सकता। ऐसी स्तिथि में कुछ संवैधानिक सुधारों के बिना नई संसद चुनने के से भी हालात कुछ बेहतर नहीं हो पायेंगे।


वीरेन्द्र जैन
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