छोटे राज्यों का प्रश्न और भाजपा का अवसरवाद
वीरेन्द्र जैन
सत्ता लोलुपता के लिये भाजपा की गुलांटें किसी मदारी के करतबों जैसी दिखती हैं। इन करतबों में उसकी तथाकथित राष्ट्रवाद की पोल भी खुल जाती है। ताज़ा उदाहरण के रूप में उसके अलग तेलंगाना राज्य से उठे विवादों पर दिये विरोधाभासी बयानों को लिया जा सकता है। जो लोग जनता की मांगों पर कोई अभियान नहीं चलाना चाहते वे ऐसे शार्टकट अपनी सुविधा के अनुसार तलाशते रहते हैं।
जब मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, बिहार, के बँटवारे में उसे सम्भावनायें नज़र आ रहीं थीं तो उसने अलग छत्तीसगढ उत्तराखण्ड और झारखण्ड का समर्थन किया इसमें रोचक यह है कि छत्तीसगढ की मांग के लिये कभी दो सौ लोगों से ज्यादा का ज़लूस नहीं निकला। अपने सबसे बड़े विरोधी सीपीएम की सरकार को संकट में डालने के लिये अलग गोरखालेंड की मांग को सही ठहराते हुये , गोरखा नेशनल फ्रंट का समर्थन किया जबकि सीमंत क्षेत्रों में ऐसे अलगाववादी आन्दोलन राष्ट्रीय एकता के लिये खतरनाक हो सकते हैं। वह तेलंगाना राज्य की मांग के समर्थन में है क्योंकि उससे कांग्रेस संकट में आती है और इससे उसे किसी गठबन्धन के सहारे मौका मिल सकता है। किंतु वही भाजपा अलग बुन्देलखण्ड, हरित प्रदेश, पूर्वांचल, और बृज प्रदेश के लिये सहमत नहीं है। अलग विदर्भ में सम्भावना सूंघ रही है किंतु गठबन्धन सहयोगी बाल ठाकरे की अनुमति न मिलने के कारण खतरा मोल लेने को तैयार नहीं है।
भाजपा एक मान्यता प्राप्त राजनीतिक दल है जो स्वयं को सैद्धांतिक दल बताते नहीं थकता। वह अपनी सीटों के आधार पर कांग्रेस के बाद दूसरा सबसे बड़ा दल भी है। किंतु यदि ऐसा है तो एक राजनीतिक दल के रूप में आखिर वह क्यों स्पष्ट घोषित नहीं करती कि राज्यों के पुनर्गठन के बारे में उसकी नीति क्या है। यदि अलग तेलंगाना राज्य का समर्थन किया जा सकता है तो अलग बुन्देलखण्ड का क्यों नहीं किया जा सकता जो तेलंगाना की तुलना में अधिक उपयुक्त मामला है। पिछले दिनों भाजपा के अनेक नेता बुन्देलखण्ड के बारे में कह चुके हैं कि उनकी पार्टी बुन्देलखण्ड राज्य का समर्थन करती है, और उनकी ही पार्टी से निकली व उसमें फिर से जाने को उतावली उमा भारती खुल कर पृथक बुन्देलखण्ड का समर्थन कर रही हैं।
दरअसल छोटे राज्यों की मांग समावेशी विकास की मांग को भटकाने का एक तरीका है। भौगोलिक विविधिता वाले देश में उत्पादन और राजस्व प्राप्ति के क्षेत्र समान नहीं होते हैं जबकि किसी भी राज्य का स्थापना व्यय लगभग समान होता है। केन्द्रीय कर्मचारियों का जब वेतन या मँहगाई भत्ता बढाया जाता है तो राज्य कर्मचारी भी उसकी मांग करने लगते हैं, और उन्हें यह नहीं कहा जा सकता कि अमुक राज्य में राजस्व प्राप्ति का केन्द्र या दूसरे किसी राज्य से मुक़ाबला नहीं किया जा सकता। यदि राज्य बड़ा होता है तो एक क्षेत्र की कमी की भरपाई दूसरे क्षेत्र से हो जाती है। कहीं पर कच्चा माल उत्पादन हो सकता है और कहीं पर कुशल कारीगर उपल्ब्ध होने के कारण उसको उपयोग के लायक बनाने वाली मिलें लगाई जा सकती हैं। ऐसी अवस्था में दोनों क्षेत्र ही विकास कर सकते हैं जबकि बँटवारे की दशा में अलग अलग राज्यों के टैक्स मिला कर उत्पादन को बाज़ार में मँहगा करके उसे बाज़ार से बाहर भी कर सकते हैं।
छोटे राज्यों के पीछे आम तौर पर वे नेता होते हैं जो स्वयं को सरकार में होने का सुपात्र समझते हैं किंतु सरकार बनाने वाले ऐसा नहीं समझते। सरकार में उचित स्थान न पाने वाले नेता और दल अपने नेतृत्व की क्षमता का प्रदर्शन ऐसे बँटवारे की माँग करके करते हैं। ऐसी माँग हमेशा उस क्षेत्र की जनता के विकास की मांगों से जुड़ी नहीं होती। राज नेता हमेशा राज्य की भाषा में ही बात करते हैं जबकि जनता की ज़रूरत उसकी मौलिक सुविधायें और विकास के अवसरों की होती हैं। राजनेता उन ज़रूरतों की मांग को उठने से पहले ही उन्हें अलग राज्य जैसे आन्दोलनों में भटका कर अपने हित में स्तेमाल करने लगते हैं। वे नहीं बताते कि अलग राज्य बन जाने के बाद वे व्यवस्था में ऐसा क्या परिवर्तन ला सकेंगे जिससे जनता की हालत में सुधार होगा य जहाँ पर छोटे राज्य बन गये हैं वहाँ केवल मधु कौड़ाओं की सम्पत्ति के अलावा क्या विकास हुआ है। कई बार तो सत्तारूढ दल भी जनता के आन्दोलनों की दिशा भटकाने के लिये ऐसे आन्दोलनों को पीछे से प्रोत्साहित करते रहते हैं।
यदि बिना उचित विचार के छोटे राज्यों की मांगें मान ली जाती हैं तो फिर ऐसे आन्दोलनों की बाढ को नहीं रोका जा सकता क्योंकि हमारा देश बहुराष्ट्रीयताओं का देश है और नेताओं को प्राप्त राजसी सुविधाओं के कारण उन्हें पाने का लालच रखने वाले नेता अनंत हैं। इसलिये ज़रूरी है कि एक बार फिर ऐसा राज्यों का पुनर्गठन आयोग बने जो किसी राज्य की पहुँच का क्षेत्र, सम्वाद की भाषा, सांस्कृतिक एकता, शिक्षा, स्वास्थ व उद्योगों की उपस्तिथि के साथ साथ उसकी आर्थिक आत्मनिर्भरता का मूल्यांकन करते हुये आवश्यक सुझाव दे व प्रमुख मान्यता प्राप्त राजनीतिक दलों द्वारा मिले सुझावों के आधार पर सर्व सम्मति से स्वीकृत करा सके। विकास की कमी को विकास की पूर्ति से ही दूर किया जा सकता है। ज़रूरत इस बात की है कि-
· सरकारें राज धर्म निभाते हुये पक्षपात न करें
· कमजोर क्षेत्रों की पहचान पूर्व घोषित हो और इन क्षेत्रों के विकास को प्राथमिकता मिले
· सरकार में रहने वाले नेताओं को कम से कम व्यक्तिगत सुविधायें हों और उनका जीवन सादगी पूर्ण हो ताकि सुविधाओं के लालची सत्ता में आने के लिये जनता की ज़रूरतों के मूल आन्दोलनों को न भटका सकें
· नेताओं का ज़ीवन पारदर्शी हो तथा उन्हें प्रति वर्ष अपनी और अपने परिवार की सम्पत्ति की घोषणा करना अनिवार्य हो।
· किसी स्वार्थवश अलगाववादी आन्दोलन भड़काने वालों के खिलाफ सार्वजनिक रूप से देशद्रोह का मुकदमा चलाया जाये
सच्चाई यह है कि चाहे छोटे राज्य का आन्दोलन हो या राम मन्दिर बनाने के नाम पर बाबरी मस्ज़िद तोड़ने का अभियान हो ये सब सता की मलाई के लिये ललचाते नेतओं के हथकण्डे हैं और ये सत्ता के आस पास ही घूमते रहते हैं। जब इन्हें सता मिल जाती है तो ये वह सब कुछ भूल जाते हैं जिसके नाम पर इन्होंने मासूम लोगों को हिंसक आन्दोलनों में लगाया होता है।
वीरेन्द्र जैन
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