अलग तेलंगाना राज्य और मधु कौड़ाओं की सम्भावनाएं
वीरेन्द्र जैन
केन्द्रीय मंत्री सुबोध कांत सहाय ने आरोप लगाया है कि भाजपा नेता अर्जुन मुंडा मधु कौड़ा से भी बड़े घोटालेबाज हैं जिन्होंने अपने कार्यकाल में अरबों रुपयों का महा घोटाला किया है। श्री सहाय ने कहा कि मधु कौड़ा ने तो अपने शासन काल में 15 से 20 खदानों के ही पट्टे दिये थे जबकि अर्जुन मुंडा ने अपने कार्य काल के दौरान 35 से 40 पट्टे दिये थे। अगर कौड़ा के लिये इंटेरपोल की मदद ली जा रही है तो मुंडा के लिये कहां जाना होगा! उन्होंने याद दिलाया कि 2005 में अर्जुन मुंडा की सरकार बनवाने के लिये भाजपा, मधु कौड़ा, एनौस एक्का, हरि नारायण राय जैसे निर्दलीय विधायकों, जो बाद में मंत्री बने और अब भ्रष्टाचार के मामले में जेल में बन्द हैं को विमान से जयपुर ले गयी थी। यह नव गठित राज्य में भ्रष्टाचार का बीज बोने जैसा काम था।
मधु कौड़ा पर लगे आरोप और उनके खातों की जांच से निकली जानकारी आम आदमी के लिए सचमुच आंखें खोल देने वाली है और इससे भी भयानक इस बात की आशंका है कि ये जो जनजाति के लोग हैं वे भ्रष्टाचार के मामले में बहुत सिद्ध हस्त न होने के कारण पकड़ में आ गये हैं किंतु विकसित समाज के जो नेता जांच के घेरे में नहीं आ पाये हैं वे कितने भ्रष्ट होंगे! यदि ठीक से जाँच हो तो उसके परिणामों को देखकर देश की जनता का विश्वास हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था पर टिका रहेगा या नहीं! जनता की समझ में अब साफ साफ आने लगा है कि जो लोग देश और समाज की सेवा के नाम से वोट मांगते हैं वे मंत्री बनने के लिये इतने उतावले क्यों दिखते हैं और मंत्री बनते ही उनके चारों ओर सम्पन्नता और भव्यता का उजास कैसे विकसित हो जाता है। बिना प्रेस की कोट और कमीज़ पहिनने वाले समाजवादी नेता के पास रक्षा मंत्री बनने के बाद पन्द्रह करोड़ की दौलत कैसे प्रकट होने लगती है। क्या कारण है कि मुख्य मंत्री पद से हटा दिये जाने के बाद संघ परिवार के मदन लाल खुराना, कल्याण सिंह, उमा भारती, अर्जुन मुंडा, शंकर सिंह बघेला, केसू भाई पटेल आदि बिफरने लगते हैं और अपने पितृ मातृ संगठन के खिलाफ ही कुछ भी बोलने लगते हैं।
असल में इसकी जड़ में छोटे राज्यों का गठन भी एक है। मधु कौड़ा को निर्दलीय जीतने और इकलौते सदस्य होने के बाबज़ूद भी मुख्य मंत्री बनने का मौका इसी लिये मिल सका क्योंकि छोटे राज्य में पक्ष और विपक्ष के सदस्यों की संख्या में अंतर कम होता है व प्रत्येक निर्दलीय सद्स्य का अपना महत्व होता है, जिसकी कीमत बहुत होती है और आम तौर पर उसे मंत्री बनाना ही पड़ता है। यही कारण है कि हरियाणा जैसा राज्य अपने दल बदल के कारण शुरू से ही विख्यात रहा है। गोआ और उत्तर पूर्व के अधिकांश राज्य पूरे कार्यकाल अस्थिर बने रहते हैं उत्तराखंड में बिना निर्दलीय सद्स्यों के सहयोग के सरकार नहीं बन पाती और फिर भी बीच के समय में मुख्य मंत्री बदलना पड़ता है। छोटे राज्यों के गठन से केवल चन्द कुंठित राजनेताओं को मुख्य मंत्री मंत्री आदि के पद मिल जाते हैं और सरकारी अफसरों को प्रमोशन के अवसर आदि मिल जाते हैं जिससे भ्रष्टाचार के अवसर और धन की वासना में अटूट विस्तार होता है। छोटे राज्य बनने से गरीब और आम आदमी को कभी भी कोई फायदा नहीं हुआ और ना ही राज्य का ही विकास हुआ है [हरियाना और हिमाचल के विकास के पीछे भी उनकी भौगोलिक स्तिथि है न कि छोटा राज्य] यही कारण है कि इस मांग के पीछे जितने राजनेता होते हैं उतनी जनता नहीं होती। छत्तीसगढ के गठन के समय उसकी मांग के लिये कभी दो सौ आदमियों से ज्यादा का ज़लूस नहीं निकला पर फिर भी छत्तीसगढ बन गया क्योंकि नेताओं को पद चाहिये थे।अलग बुन्देलखण्ड के लिये कुछ सत्ता कामी लोग लगातार लगे रहे हैं पर वे जनता को सक्रिय नहीं कर सके। अगर बुन्देलखण्ड राज्य बना तो वह राजनीतिक गुणा भाग के कारण बनेगा न कि जन आन्दोलन के कारण।
अलग तेलंगाना राज्य के लिये नेताओं की मांग पुरानी थी और उसे लगातार बहलाया फुसलाया तथा वादा करके झुठलाया जा रहा था किंतु जब आन्ध्र प्रदेश के मुख्य मंत्री के असामायिक निधन के बाद उनके उत्तराधिकारी के सवाल पर तलवारें खिंच गयीं तब उस अवसर का लाभ उठाते हुये टी चन्द्र शेखर राव ने अनशन प्रारम्भ कर दिया और उससे घबराकर केन्द्र सरकार ने अलग तेलंगाना राज्य की मांग मानने जैसी गलती कर ली। यदि वहाँ सत्तारूढ दल में राजनीतिक संकट न आया होता तो चन्द्र शेखर राव की बात मानने का सवाल ही पैदा नहीं हो रहा था। अगर हिंसक आन्दोलन की आशंका के आधार पर छोटे राज्यों की मांग मानी जाने लगी तो निहित स्वार्थ ऐसे आन्दोलनों को और प्रोत्साहित करेंगे। इसलिये ज़रूरी हो गया है कि राज्य बनाने के लिये भूगोल, भूमि के प्रकार, प्रशासनिक नियंत्रण, सुगम यतायात, भाषा आदि को दृष्टिगत रखते हुये कुछ नियम बनाये जायें जिनके आधार पर ही राज्यों का गठन सुनिश्चित हो तथा ऐसी दूसरी सारी मांगों को केवल संसद में ही उठाने के नियम बनें। यदि ऐसा नहीं हुआ तो विघटन की श्रंखला कभी खत्म नहीं होगी क्योंकि हर गाँव की एक अलग पहचान है। दूसरी ज़रूरत यह है किसी भी क्षेत्र के विकास में पक्षपात नहीं होना चाहिये तथा जानबूझ कर किये गये किसी भी पक्षपात को देशद्रोह की श्रेणी में गिना जाना चाहिये। आखिर क्या कारण है कि तेलंगाना का विकास आन्ध्र प्रदेश के हिस्से के रूप में नहीं हो पा रहा। कश्मीर, उत्तर पूर्व, माओवादी, हिन्दूवादी आदि आतंकी संकटों के इस दौर में राज्यों के गैर गम्भीर विघटनवादी आन्दोलनों को रोकना देश की सुरक्षा के लिये बहुत ज़रूरी हैं।
वीरेन्द्र जैन
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Katu yatharh aur jantantra ki vartmaan trasad dasha ko bade hi saarthak shabdon me aapne vivechit kar diya hai........ise padhkar laga jaise apne hi man ki baat padh rahi hun....
जवाब देंहटाएंIs sateek aalekh ke liye aapka bahut bahut aabhar..
और मजे की बात यह भी है कि छोटे राज्यों में सत्ता-निर्दलीय-दलबदल आदि खेलों में अधिकतर कांग्रेस की ही अहम भूमिका होती है… ऐसा क्यों? शायद इसी को "कमजोर विपक्ष" या गाँधी परिवार का चमत्कार कहते होंगे… :)
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