रविवार, अगस्त 18, 2013

चुनावों में जाति के नाम पर भटकाव कब तक ?

चुनावों में जाति के नाम पर भटकाव कब तक ?
वीरेन्द्र जैन
       हमारे स्वतंत्रता संग्राम के प्रमुख नायकों में से एक सुभाष चन्द्र बोस ने कहा था- तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आज़ादी दूंगा। यह कर्म और प्रतिफल का सिद्धांत दर्शाता है।
       किसी भी त्याग की अपेक्षा के लिए कुछ लक्ष्य निर्धारित किये जाते हैं। लोग धर्मिक सलाहों पर दान देते समय भी कल्पित सुखदायी स्वर्ग में अपना स्थान सुरक्षित होने की संभावनाओं से प्रभावित रहते हैं। किंतु चुनावों में जातिवाद पर अधारित समर्थन एक निरर्थक भटकाव के अलावा कुछ भी नहीं है।
       बहुलताओं से भरे हमारे देश के लोकतंत्रातिक विकास में जो प्रमुख बाधाएं सामने आ रही हैं उनमें साम्प्रदायिकता, जातिवाद, क्षेत्रीयता, भाषावाद, आदि प्रमुख हैं, जिनके सहारे चन्द नेता एक पहचान देने के भ्रम में जनता से अन्ध समर्थन हथिया लेते हैं और अवसर पाकर उस समर्थन से प्राप्त ताकत का सौदा जनविरोधी शक्तियों के साथ कर लेते हैं। देश के कुछ प्रमुख राज्य जैसे उत्तर प्रदेश, बिहार, हरियाणा, राजस्थान, आदि चुनावों में जातिवाद की बीमारी से इस तरह ग्रसित हैं कि कई राज्यों में देश के प्रमुख राष्ट्रीय राजनीतिक दल, हाशिये पर आ गये हैं। उल्लेखनीय है कि अपनी जाति के व्यक्ति को सरकार के प्रमुख पद पर देखने के झूठे आत्म गौरव के अलावा जातिवाद से प्रभावित इन मतदाताओं को कोई हित नहीं हुआ है। सच तो यह है कि सभी नागरिकों को एक समान मानने वाले संविधान के अनुसार उन्हें अपनी जाति के नेता के पदासीन होने पर विशिष्ट लाभ मिल भी नहीं सकता है। पर विडम्बना है कि जातिवाद से भ्रमित मतदाताओं के बड़े वर्ग को अब तक यह सच्चाई समझ में नहीं आ रही है, और स्वार्थी राजनेता उन्हें समझने भी नहीं देना चाहते। रोटी, रोजगार, मकान, स्वास्थ, शिक्षा, सद्भाव, , सड़क, सफाई, बिजली, पानी, व निर्धनता उन्मूलन आदि जीवन से जुड़ी समस्याओं और उसके स्तर को सुधारने हेतु सच्चा संघर्ष करने वालों की तुलना में अपनी जाति का उम्मीदवार प्राथमिकता पा जाता है।
              उल्लेखनीय है कि बहुजन समाज पार्टी ने दलितों के एक खास वर्ग को जाति के आधार पर प्रभावित किया हुआ है और उस जाति का अन्धसमर्थन ही उनका मूल आधार है, किंतु राज्यसभा में चुन कर भेजने के मामले में उन्होंने आम तौर पर अपनी समर्थक जाति को आधार नहीं बनाया और सम्पन्न तथा सवर्णों को अपने वोट देकर भरपूर सौदा किया। जब जब मायावती उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री बनीं, उस काल में दलितों की दशा में ना तो आर्थिक और ना ही सामाजिक दशा में कोई अंतर आया। दलित जातियों को आरक्षण से मिलने वाले लाभ भी वैसे ही मिले जैसे कि किसी भी अन्य सरकार में मिलते रहे हैं। मुलायम सिंह ने अपने कार्यकाल में अपनी जाति से मिले चुनावी समर्थन का लाभ ठाकुर अमर सिंह और उनके माध्यम से देश के चुनिन्दा उद्योगपतियों को ही पहुँचाया। यादव जाति के अन्ध समर्थन से चुनाव जीते मुलायम सिंह ने ही, श्रीमती जया बच्चन और अनिल अम्बानी जैसे लोगों को राज्यसभा में भेजा, व अमिताभ बच्चन को उत्तर प्रदेश का ब्रान्ड एम्बेसडर बनाया जो अब नरेन्द्र मोदी के गुजरात के ब्रांड एम्बेसडर बने हुए हैं व अब उनके समर्थक बनते जा रहे हैं । कर्नाटक में जातिगत वोटों के आधार पर चुने हुए विधायकों ने अपनी राजनीतिक प्रतिबद्धता को दरकिनार करते हुए विजय माल्या जैसे उद्योगपतियों को राज्यसभा में पहुँचाया है। गत दिनों हरियाना के एक नेता ने राज्यसभा में पहुँचने की कीमतों का खुलासा करते हुए उन अफवाहों की लगभग पुष्टि ही कर दी है जो हर बार हवाओं में तैरती रहती थीं। गत दिनों झारखण्ड में भाजपा के तत्कालीन राष्ट्रीय अध्यक्ष के प्रिय राज्य सभा उम्मीदवार के चुनाव में लगने वाला धन चुनाव पूर्व ही पकड़ा जा चुका है, और उस कारण चुनाव को स्थगित करना पड़ा था। यह बहुत स्पष्ट है कि राज्यसभा या किसी दूसरे अपरोक्ष चुनाव में चुने जाने वाले सम्पत्तिशाली उद्योगपतियों, व्यापारियों, की भरमार क्यों और कैसे होती जा रही है। इसके साथ यह भी तय है कि इन सौदों में बिकने वाले लोगों में वे ही लोग अधिक होते हैं जो बिना किसी राजनीतिक आधार के जातिवाद जैसे हथकण्डों के सहारे चुने गये होते हैं।
       बहुजनसमाज पार्टी के तरीके से प्रभावित होकर उसी पार्टी में से अनेक उप दल पैदा हो गये हैं, इसमें से निकले नेताओं ने बंसोड़ों, कुशवाहाओं, कुर्मियों, पासवानों, आदिवासियों आदि के वैसे ही जातिवादी दल बना लिये हैं और  जातिवाद उभार कर उससे मिले समर्थन के चुनाव पूर्व सौदे भी करने लगे हैं। ये दल वोट काटने का काम करते हैं। चुनावों से पूर्व ये जगह जगह जातिवादी रैलियां करके अपनी क्षमता का प्रदर्शन कर सौदों का आधार तैयार करते हैं। जहाँ दो प्रमुख दलों के बीच सीधा चुनाव होता है वहाँ वे दल अपने सुरक्षित वोटों से इतर वोटों को अपने विरोधी के पक्ष में जाने से बचाने के लिए ऐसे जातिवादी दलों को चुनाव लड़ने के लिए आर्थिक मदद करते हैं। आर्थिक रूप से कमजोर जातियों के इन नेताओं के पास उपलब्ध संसाधन चमत्कृत करते हैं, पर जातिवाद के नाम पर बहका हुआ मतदाता इस पर विचार ही नहीं करता। 
       जातियों व क्षेत्रीयता के इस अन्धत्व में राजनीतिक विचार गुम हो जाते हैं जो कुछ राजनीतिक दलों के विचार के प्रति प्रतिबद्धता की कलई खोलते हैं। स्मरणीय है कि जब कांग्रेस ने ज्ञानी जैल सिंह को राष्ट्रपति पद के लिए उम्मीदवार घोषित किया था तब उनका समर्थन करने के लिए कांग्रेस का घोर विरोधी अकाली दल साथ आ गया था व श्रीमती प्रतिभा पाटिल के समर्थन में एनडीए का सबसे महत्वपूर्ण घटक शिवसेना अपने गठबन्धन को तोड़कर आगे आ गया था। ऐसा क्षेत्रीयतावाद भी जातिवाद का दूसरा रूप है।   
       दलितों और पिछड़ों के साथ होते रहे सामाजिक भेदभाव के कारण उन्हें प्रतिशोध में शासक वर्ग में शामिल होना एक क्षणिक मानसिक संतोष दे सकता है किंतु पिछले दिनों, ब्राम्हणों, वैश्यों और ठाकुरों के भी जातिवादी सम्मेलन होने लगे हैं जिनमें राजनीतिक विचारों से परे अपनी जाति के व्यक्ति को टिकिट देने का दबाव सभी राजनीतिक दलों पर डाला जाने लगा है। इन सम्मेलनों में यह घोषणा की जाती है कि उनकी जाति का समर्थन उसी दल को मिलेगा जो उनकी जाति के लोगों को संबसे ज्यादा टिकिट देगा। रोचक यह है कि कोई इस बात की चर्चा नहीं करता कि जब जब जिस जाति का व्यक्ति पद पर रहा है तो उस जाति के लोगों का क्या भला हुआ? किसी भी जातिवादी नेता के पास जातिविशेष के विशिष्ट उत्थान की कोई योजना नहीं होती।
       खेद है कि आज़ादी के 66 साल बाद भी राष्ट्रीय राजनीतिक दल इस बीमारी को रोकने का कोई प्रयास नहीं कर रहे हैं अपितु उसी के बीच से अपने लिए रास्ता निकालने की कोशिश कर रहे हैं।                  
वीरेन्द्र जैन
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