बुधवार, सितंबर 23, 2020

बदलते कानून और सामाजिक जिम्मेवारी से मुक्त व्यापारी व उद्योगपति

 


बदलते कानून और सामाजिक जिम्मेवारी से मुक्त व्यापारी व उद्योगपति 

वीरेन्द्र जैन

सरकारें कानून बनाती हैं और हर तरह के नियमों व कानूनों को जनता के हित में उठाये गये कदम बताती हैं। सच तो यह है कि यह सरकारों के चरित्र और उनकी क्षमता पर निर्भर करता है कि ऐसे बदलते कानून वास्तव में जनता के हित में होते हैं या नहीं, और अगर होते भी हैं तो क्या सरकार में उनके अक्षरशः पालन कराने की क्षमता भी है या नहीं। सरकार की प्रशासनिक व्यवस्था, न्याय व्यवस्था, न्यायिक फैसलों को पालन कराने वाली मशीनरी का चरित्र और क्षमता आदि पर निर्भर करता है कि कानूनों का अंतिम परिणाम क्या निकलता है।

हर सरकार प्रति वर्ष करोड़ों रुपये यह बताने के विज्ञापनों में फूंकती है कि उसने जनता के हित में क्या क्या किया है। मुझे सुप्रसिद्ध कार्टूनिस्ट आर के लक्ष्मण का एक कार्टून याद आता है जिसमें किसी चुनावी सभा में कोई मंत्री किसी गांव में सभा करते हुए लम्बे लम्बे हाथ फटकार कर बता रहे हैं कि उन्होंने जनता और गरीबों के लिए क्या किया है, वहीं दूसरी ओर कुछ फटेहाल श्रोता बैठे हुये हैं और एक व्यक्ति दूसरे से कह रहा है कि हमारे लिए इतना कुछ हो गया और हमें पता ही नहीं चला। सुप्रसिद्ध कवि आनन्द मिश्र एक कविता सुनाते थे-

बादल इतना बरस रहे हैं

पौधे फिर भी तरस रहे हैं

यही चमन को अचरज भारी

पानी कहाँ चला जाता है

सचमुच में हाल यही है। इन सारे विज्ञापनों के बीच उसी अखबार में खबर छपी होती है कि किसी अधिकारी, किसी इंजीनियर, किसी इंस्पेक्टर या बाबू के यहाँ छापे में करोड़ों की सम्पत्ति बरामद हुयी है। ये छापे उन हजारों इसी तरह के लोगों में से किसी एक के यहाँ पड़ते हैं और सूचनाएं बताती हैं कि इस तरह के पदों पर नियुक्त नब्बे प्रतिशत से अधिक लोग इसी तरह से काम करते हैं और पैसा बनाते हैं, आलीशान मकान बनवाते हैं, सोने चाँदी के गहने खरीदते हैं और बेनामी सम्पत्तियां खड़ी करते हैं, जो सबको दिखती है। ये सारी कमाई उसी कथित विज्ञापित विकास में से निकाली गयी होती है जो केवल विज्ञापन देने के काम आता है, जबकि सच्चाई कुछ और होती है। पदों पर बैठे लोगों की अनुपात से बहुत अधिक सम्पत्ति, विकास के विज्ञापनों का खोखलापन बताती है। यह बताती है कि वैसा कुछ नहीं हुआ है, जैसा बताया जा रहा है।

पूंजीवादी व्यवस्था में किसी व्यापारी, किसी उद्योगपति की कोई सामाजिक भूमिका नहीं होती। उसका काम केवल अधिक से अधिक मुनाफा कमाना होता है। जब मुनाफा कम होने लगता है तो वह उस व्यापार से हाथ खींच लेता है और उद्योगों में तालाबन्दी कर देता है। बड़े बड़े कार्पोरेट घराने, जो अपने ग्रुप के दूसरे कारखानों से अनाप शनाप मुनाफा कमा रहे होते हैं, भी घाटे के कारखानों को बन्द करने, मजदूरों को बिना उचित मुआवजे के निकाल देने और बैंकों के कर्जे पचाने में गुरेज नहीं करते। किसी भी नियम या कानून में प्राइवेट कम्पनी या व्यापारी की बढती भूमिका को देख कर ही यह समझ लेना चाहिए कि इसका लाभ व्यापारी को ही मिलेगा। इसलिए अगर व्यापारी और उनकी राकनीतिक पार्टियां अगर किसी कानून के समर्थन में हैं तो लाभ मजदूर किसान को नहीं होगा। दूसरी बात यह है कि किसी भी व्यापार, व्यवसाय में लाभ की एक सीमा होती है। अगर किसी प्रोजेक्ट में उसके किसी एक घटक को लाभ का बड़ा भाग मिलना सुनिश्चित हो  रहा है, और उसकी भागीदारी उसकी मर्जी पर हो तो दूसरे घटकों को नुकसान होना तय है। इसके विपरीत यदि व्यापारी की जगह सरकार भागीदार है तो उसकी कुछ सामाजिक जिम्मेवारी होती है। वह नुकसान उठा कर भी मेहनतकश को बेसहारा नहीं छोड़ सकती व उनकी न्यूनतम जरूरतों को पूरा करती है। सेवानिवृत्ति के बाद पेंशन भी देती है। यही कारण है कि लोग कम वेतन पर भी सरकारी नौकरी करना पसन्द करते हैं।

जो लोग प्राइवेट संस्थानों में हुये लाभों की तुलना वैसे ही सरकारी संस्थानों से कर के प्राइवेट संस्थानों की पक्षधरता करते हैं, वे ऐसा करते समय यह भूल जाते हैं कि सरकारी संस्थान इसी दौर में  सामाजिक उत्थान और कमजोर वर्ग के सशक्तीकरण की जिम्मेवारियां भी पूरी कर रहे होते हैं। क्या प्राइवेट संस्थान दलितों, पिछड़ों को सामाजिक बराबरी के स्तर पर लाने के लिए आरक्षण देकर प्रोत्साहित कर रहे होते हैं? क्या प्राइवेट संस्थान महिलाओं को उचित प्रतिनिधित्व देते हुए उनको मातृत्व लाभ से जुड़ी वैसी ही सुविधाएं और छुट्टियां आदि देती है? क्या उन्हें उचित समय पर प्रमोशन और वेतन वृद्धियां आदि देती है? क्या स्वास्थ सुविधाएं देती है? क्या छुट्टियों में परिवार सहित घूमने जाने आदि की सुविधाएं देकर उनके स्वास्थ की चिंता करती है? क्या अपना मकान बनाने के लिए ऋण या रहने के लिए सरकारी मकान देती है? क्या सेवानिवृत्ति पर पेंशन देती है? अगर सरकारी संस्थानों की प्राइवेट संस्थानों से तुलना करनी है तो इन सब मानवीय सुविधाओं का कुछ मौद्रिक मूल्य तय करें और फिर मूल्यांकन करके देखें।

तरह तरह के दावों के बीच कृषि सम्बन्धी नये कानूनों में प्राइवेट व्यापारियों की भूमिका और उनकी हित में अनेक कदम उठाने वाली सरकार की आतुरता को देखते हुए भी मूल्यांकन करना होगा। इसके लिए अध्यादेश लाने की जरूरत नहीं थी। इसे पास कराने के लिए लोकतंत्र की सारी मर्यादाओं को ताक पर धरना जरूरी नहीं था। सरकार आश्वासन दे रही है, किंतु उसे कानून का हिस्सा नहीं बना रही। सत्तारूढ नेताओं ने इससे पहले भी अनेक आश्वासन दिये थे जिनकी उसने उपेक्षा की है। यही कारण है कि जनता का भरोसा उस पर से उठ चुका है। किसान अन्दोलित है, मजदूर परेशान है। कोरोना बढ रहा है, चीन और पाकिस्तान दोनों ओर से सीमा पर मामला संवेदनशील होता जा रहा है। राम जन्मभूमि मन्दिर, तीन तलाक, धारा तीन सौ सत्तर से अब लोगों को बरगलाया नहीं जा सकता।

 

वीरेन्द्र जैन

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