शुक्रवार, सितंबर 18, 2020

सुशांत सिंह का दांव कहीं भाजपा को उल्टा तो नहीं पड़ेगा?

सुशांत सिंह का दांव कहीं भाजपा को उल्टा तो नहीं पड़ेगा?

वीरेन्द्र जैन


आज की राजनीति इतनी अमानवीय है कि अपनी राजनीतिक महात्वाकांक्षाओं के लिए किसी को भी बलिवेदी पर चढा सकती है। इस दौर का गिरोह झूठ को सच और सच को झूठ बनाने व उसे प्रचारित करने के लिए पूरा तंत्र सुसज्जित कर के पहले भक्तों को और फिर देश को भटका रहा है। मीडिया पर इतना नियंत्रण है कि समाचार भले ही लिख लिया जाये किंतु वह जनता की पहुंच के स्तर तक छप नहीं सकता, प्रसारित नहीं हो सकता।

गोवा में भाजपा ने गठबन्धन सरकार बनायी थी जिसके कुछ घटकों ने साफ साफ कह दिया था कि वे भाजपा का नहीं अच्छी छवि वाले मनोहर पारीकर को समर्थन दे रहे हैं, और इस सरकार को यह समर्थन पारीकर के मुख्यमंत्री बने रहने तक ही सीमित है। दुर्भाग्यवश पारीकर अस्वस्थ हुये व जांच में एडवांस स्टेज के कैंसर से पीड़ित पाये गये। उन्हें अंतिम दिनों में आराम की सख्त जरूरत थी वहीं दूसरी ओर मोदी-भाजपा को सरकार बचाने के लिए उस पद पर पारीकर की जरूरत थी। उनसे इसी हालत में काम लिया गया और बजट भी पेश कराया गया ताकि सरकार बची रहे। ऐसी ही अवस्था में उनका निधन हुआ। अरुण जैटली हों, सुषमा स्वराज हों, अनंत कुमार हों, अनिल माधव दवे आदि की जरूरत प्रशासनिक निर्विकल्पता नहीं, अपितु राजनीतिक अधिक रही। एक बहुत बड़ी संख्या में सदन की सदस्यता के प्रत्याशी केवल संख्या बल के लिए सामने लाये जाते हैं और उनकी छवि के सहारे बहुमत बना कर मनमानी का अधिकार प्राप्त कर लिया जाता है। दल बदल से लेकर विधायकों के सौदे तक में उनकी पितृ संस्था के पाखंडी आदर्शवाद को कोई आपत्ति नहीं होती। उदाहरण इतने अधिक और जगजाहिर हैं कि उनका अलग से उल्लेख करने की कोई जरूरत नहीं।

इसी क्रम में इन्होंने आगमी बिहार विधानसभा के चुनावों को देखते हुए बालीवुड कलाकार सुशांत सिंह की दुखद मृत्यु पर दांव खेला और इसके लिए अपने सारे संसाधन झौंक दिये। इनका प्रयास आईपीएस भट्ट की तरह कुछ लोगों को जेल में डालने और कुछ आई ए एस को मुख्यधारा से हटा कर, गुजरात में नरसंहार के बाद भी असत्य आधारित भावनात्मक प्रचार से चुनावी लाभ उठाने जैसी योजना का हिस्सा लगता है। अब सीबीआई की जाँच के बाद सामने आये संकेतों से पुष्ट हो चुका है कि सुशांत सिंह ने आत्महत्या ही की है। सीबीआई के संकेतों के बाद उसके पिता ने भी स्वीकार कर लिया था किंतु बाद में उसका बयान बदलवा दिया गया। जिस शिवसेना को काँग्रेस समझ कर इन्होंने राजनीतिक षड़यंत्र  शुरू करवाया, वैसा ही आक्रामक जबाब अगर शिव सेना ने दिया तो भाजपा को भागते राह नहीं मिलेगी। उसके पालतू मीडिया ने आगे बढ बढ कर दो महीने तक इतने अतिरेक में काम किया कि इस विषय पर स्टोरी करने की प्रतियोगिता शुरू हो गयी। इसमें सुशांत सिंह की जिन्दगी का वह निजी पक्ष भी सामने आ गया जिसके ढके रहने पर उसकी एक मनमोहक कलाकार की स्वच्छ छवि बची रह सकती थी। इसी क्रम में यह भी सामने आ गया कि वह अपने घर से दूर होने के प्रयास में ही इंजीनियरिंग की शिक्षा को छोड़ कर बालीवुड भाग आया था, और कि वह अपने पिता को पसन्द नहीं करता था। उसे अपनी बहिनों और उनके पतियों पर भी भरोसा नहीं था, इसलिए वह अपने आसपास रहने वाली लड़कियों में ही दिली सुकून  तलाशता था, उनसे ही अपने दिल की बातें साझा करता था। अपने घर से लेकर व्यवसाय तक में वह प्रोफेशनल प्रबन्धकों पर ही निर्भर था। इसी क्रम में उसे सफलताएं भी मिलती रहीं और कम उम्र में ही उसने अपनी कल्पना से अधिक पैसा व यश कमा लिया। इसके सहारे वह बालीवुड की वर्जना मुक्त जिन्दगी का पर्याप्त आनन्द भी उठाने लगा। यही वह समय था जब वह चरस और मारजुआना आदि के नकली आनन्द का शिकार हो गया। आचार्य रजनीश जब अपनी लोकप्रियता के शिखर पर थे उसी समय दुनिया में हिप्पीवाद फैला था और यौनानन्द की सीमा से अधिक आनन्द की तलाश करने वाला समाज  मेडीटेशन की कठिन राह पर आकर्षित हुआ था। इस साधना की कठिनाई का सरल हल उन्हें उस समय के इसी तरह के नशे एलएसडी में मिलने लगा था। तब रजनीश जी ने अपना एक प्रवचन इसी विषय  पर दिया था जो बाद में “एलएसडी, ए फाल्स वे आफ मेडीटेशन” के रूप में प्रिंट मीडिया में सामने आया था। इसमें वे मानते हैं कि इस तरह के नशे भी ध्यान में मिलने वाले आनन्द के जैसा भ्रम देते हैं और यह शार्टकट आदमी को भटका देता है।

बिहार के आगामी चुनावों की राजनीति ने इस राजनीतिक हथकण्डे में उसकी मृत्यु के काफी समय के बाद सुशांत के पिता और उसकी बहिनों को इस आत्महत्या को हत्या बताने के लिये उकसाया। कहानी बनाने के लिए उसमें रिया चक्रवर्ती उसके परिवार को मुख्य साजिशकर्ता ठहराया व राजनीतिक रंग देने के लिए दिशा सालियान की आत्महत्या के समय महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे के बेटे की काल्पनिक  उपस्थिति व मुम्बई पुलिस द्वारा जाँच में लापरवाही बरतने के आरोप लगा कर गठबन्धन सरकार को कटघरे में खड़ा करने की कोशिश की। ऐसा इसलिए किया ताकि बिहार में रिपोर्ट दर्ज करायी जा सके और रिया चक्रवर्ती को बिहार पुलिस के दबाव में मनमाना बयान दिलवाया जा सके। और इसी बहाने पिंजरे के तोते के आरोपों वाली सीबीआई को शामिल किया जा सके। फिल्मी दुनिया जैसे व्यव्साय में टैक्सों से बचने के लिए दो नम्बर की समानांतर व्यवस्था चलती है जिसका एक जाल जैसा बन जाता है। एक का काला धन दूसरे के पास भी काले धन के रूप में ही पहुंचता है। जब भी इस क्षेत्र में विस्तार से जाँच होगी तो कहीं न कहीं कुछ न कुछ निकल ही आयेगा जबकि इस जाल से जुड़े सभी लोग उसके लिए जिम्मेवार नहीं होते। रोचक यह है कि फिल्मी दुनिया को नशे की दुनिया बताने वाले व इसका विरोध करने वाले काले धन के विषय को नहीं छेड़ रहे। ईडी की जांच रिपोर्ट के बारे में भाजपा के प्रवक्ता समेत सब गुपचुप हैं।   

भाजपा की यह कोशिश थी कि सुशांत को बिहार के सपूत के साथ मुम्बई की गैर भाजपा सरकार द्वारा हुयी ज्यादती की तरह चुनाव में प्रस्तुत किया जाये। उन्होंने फिल्म उद्योग में चल रहे नेपोटिज्म के आरोप के बहाने मुस्लिम कलाकारों और गैर मुस्लिम कलाकारों के बीच तनाव का खेल भी खेलना चाहा, ताकि इसके सहारे चुनावों में साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण का सहारा मिल जाये। किंतु उनकी सभी चालें बिफल हो गयीं। फिल्म उद्योग हमेशा से साम्प्रदायिकता मुक्त है। अपने निकट के किसी भी व्यक्ति को एक मौका अवश्य मिल जाता है किंतु वह अपनी प्रतिभा से ही आगे बढ पाता है। ना तो अमिताभ बच्चन अपने पुत्र को प्रमोट करने में सफल हो सके और ना ही हेमा मालिनी अपनी बेटियों को। सलीम खान के दूसरे बेटे भी सलमान नहीं बन सके ना ही नितिन मुकेश मुकेश की जगह ले सके। मौका सबको दिया गया। भाजपा के सरकारी लाभांवित कलाकार भी इस मुहिम को आगे नहीं बढा सके। केवल अयोग्यता से असफल हुए व्यक्ति ही अपनी कुंठाएं इस तरह से व्यक्त करते रहे हैं।

मीडिया खबरों के अनुसार तीन तीन केन्द्रीय एजेंसियां अपनी गहन जाँच के आधार पर जिस निष्कर्ष पर पहुंचती दिख रही हैं वह यह है कि सुशांत सिंह लम्बे समय से चरस का आदी था और अपने फार्म हाउस पर पार्टियां किया करता था। पिछले एक साल से वह फिल्मों में कैरियर के सपने देखने वाली रिया चक्रवर्ती के साथ लिव इन में रह रहा था जो उसके प्रेम में थी। इसी भावना में लाकडाउन के दौरान उसने सुशांत के लिए पाउडर मंगवाने में अपने भाई की मदद ली। यह कलाकार डिप्रैशन का भी शिकार था किंतु अपनी प्रोफेशनल जरूरतों के अनुसार इस बात को सार्वजनिक नहीं होने देना चाहता था। रिया उसका इलाज करा रही थी व उसके इलाज को प्रोफेशनल कारण से ही गोपनीय रखना चाहती थी। उसके पैसे का हिसाब उसकी मैनेजर देखती थी जिसका पता ईडी की रिपोर्ट के बाद लगेगा। इससे भी छवि में निखार नहीं आयेगा। कंगना का उत्पाती प्रवेश भी विषय को और मचायेगा, अपना प्रारम्भिक नुकसान वह करा ही चुकी है, फिल्म उद्योग भी सशंकित हो जायेगा। भाजपा को इससे भी मदद नहीं मिलने वाली क्योंकि बिहार सरकार से निराश वहां का मजदूर मुम्बई वापिस जाने की राह देख रहा है।

क्या यह दांव भाजपा को उल्टा ही पड़ेगा?  

वीरेन्द्र जैन

2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड

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