गांघी दर्शऩ में सादगी और स्वतंत्रता का अंर्तसम्बंध
वीरेन्द्र जैन
हमारी आजादी की लड़ाई के सबसे बड़े कप्तान मोहनदास करम चंद गांधी को महात्मा गांधी के नाम से पुकारा गया है
गांधीजी साधनों और सेना के बिना भी आजादी की लड़ाई में इसलिए सफल हो सके क्यों कि वे सबसे पहले अपने आप को स्वतंत्र कर सके थे। स्वतंत्रता की लड़ाई का नेतृत्व वही कर सकता है जो स्वयं में स्वतंत्र हो। गांधीजी ने सबसे पहले अपनी गुलामी की जंजीरें हटायीं। आम तौर पर गांधीजी की मुक्त कंठ से प्रशंसा करने वाले लोग भी उनके ब्रम्हचर्य और नशा मुक्ति सम्बंधी सिद्धांतों से सहमत नहीं होते तथा उन्हें इन मामलों में गांधीजी के तर्क बेहद बचकाने लगते रहे हैं। मैं समझता हूँ कि उन्हें गांधीजी के पूरे जीवन र्दशन के सन्दर्भ में इन पर पुर्नविचार करना चाहिये।
अपनी आत्म कथा 'सत्य के साथ मेरे प्रयोग' में वे लिखते हें कि सैक्स उनकी कमजोरी थी व जब उनके पिता की मृत्यु हो रही थी तब भी वे अपने कमरे में पत्नी के साथ दाम्पत्य जीवन का देहधर्म निभा रहे थे तभी बाहर से किसी ने आवाज देकर उन्हें पिता की मृत्यु की सूचना दी थी जिसे सुन कर उन्हें बड़ा धक्का लगा था और ग्लानि हुयी थी। बाद के दिनों में यही ग्लानि उन्हें सदैव सालती रही और अंतत: ब्रम्हचर्य तक ले गयी। जब श्री लंका के एक आयोजन में वे कस्तूरबा गांधी के साथ गये हुये थे तब सभा संचालक ने भूल वश कह दिया कि बड़ी खुशी की बात है कि गांधीजी के साथ उनकी माँ भी आयी हुयी हैं, तब गांधीजी ने अपने भाषण में उनकी भूल को बताते हुये कहा था कि उनके शब्दों का मान रखते हुये आज से मैं उन्हें माँ ही मानना प्रारंभ कर देता हूँ। सच तो यह है कि गांधीजी ने धीरे धीरे वे सारी चीजें छोड़ दीं जिनके बारे में उन्हें लगता था कि वे उन्हें गुलाम बना रही हैं। अपनी देह के सुख और सुविधाओं की गुलामी से मुक्त होने का जो प्रयोग कभी जैन धर्म के प्रवर्तक महावीर स्वामी ने किया था कुछ कुछ वैसा ही प्रयोोग गांधीजी ने देश के स्वतंत्रता संग्राम के लिए अपने जीवन के साथ किया। बचपन में कभी उन्होंने शौकिया तौर पर माँसाहार भी किया था और बाद में भी वे आज के 'हिंसक शाकाहारियों' की तरह के शाकाहारी नहीं हुये अपितु उन्होंने अपने भोजन पर नियंत्रण रखा व स्वयं के लिए शाकाहार चुना। उनके निकट के लोगों में जवाहरलाल नेहरू प्रतिदिन एक अंडे का नाश्ता किया करते थे और जब बचपन में इंदिराजी ने उनसे पूछा था कि क्या मैं अंडा खा सकती हूँ बापू!, तो उन्होंने कहा था कि यदि तुम्हारे घर में खाया जाता हो और तुम्हारी रूचि हो तो खा सकती हो। खान अब्दुल गफ्फार खाँ जिन्हें दूसरा गांधी या सीमांत गांधी के नाम से पुकारा जाता था उनके सबसे आज्ञाकारी लोगों में से एक रहे व काँगेस के ऐसे विरले नेताओं में से एक थे जो विभाजन के सबसे ज्यादा खिलाफ थे व गाँधीजी द्वारा विभाजन स्वीकार कर लिए जाने पर गांधीजी के कंधे पर सिर रख कर फूट फूट कर रोये थे, माँसाहारी थे, व गाँधीजी ने उन्हें कभी भी माँसाहार से नहीं रोका। गाँधीजी का अनशन करना या नमक खाना छोड़ देना उनके आत्म नियंत्रण के प्रयोग भी रहे होंगे। नशा मुक्ति की बात करने के पीछे भी गांधीजी की दृष्टि गुलामी से दूर रहने की रही होगी, क्योंकि नशा अपना गुलाम बना लेता है।
एक देशी कहावत है कि नंगे से भगवान भी डरता है, वह दर असल ऐसी सत्ता से भयभीत होने का प्रतीक है जिसकी कोई कमजोरियाँ नहीं हों। जो जितना अधिक कमजोरियों से मुक्त होगा उससे समाज उतना अधिक डरेगा। सारे सामाजिक नियम व कानून व्यक्तियों की कमजोरियों पर ही पल रहे हैं इसीलिए आत्मघाती लोगों पर कोई भी रोक संभव नहीं हो पाती। मौत की सजा सबसे बड़ी सजा होती है और जो जान देने पर ही उतर आया है उसको इससे अधिक सजा दे पाना कानून के हाथ में नहीं होता। बीबी बच्चों के प्रेम की भावुकता के बंधन से मुक्त रहने के लिए ही क्रान्तिकारी लोग शादी नहीं करते रहे। समाज भी अपने नियंत्रण में रखने के लिए ही व्यक्तियों को सामाजिक बंधनों में बांधने के प्रति सर्वाधिक सक्रिय रहता है। जाति समाजों के मुखिया लोग भी समाज के लोगों की शिक्षा, स्वास्थ, रोजगार, मकान आदि पर ध्यान देने की जगह शादियों पर ही अपना ध्यान सीमित रखते हैं। सामाजिक गुलामी बनाये रखने की यह सबसे बेहतर जंजीर उनके पास रहती है इसीलिए वे जाति समाज में ही विवाह के नियम को सबसे कठोरतापूर्वक पालन कराते हैं। पुराने समय में राजा सबसे स्वतंत्र और शक्तिशाली व्यक्ति हुआ करता था इसलिए उसे किसी भी जाति समाज में विवाह करने की छूट मिली हुयी थी।
सभ्यता सुविधाएँ देती है। जैसे जैसे नई नई सुविधाएँ पैदा होती जाती हैं वैसे ही वैसे आदमी गुलामी में घिरता जाता है। दूसरे शब्दों में कहें तो व्यक्ति जितनी अधिक सुविधाओं का उपयोग करता है वह उतना ही अधिक गुलाम होता है। उससे भी अधिक गुलाम बनाने वाली वे सुविधाएँ हैं जो कहीं अन्य जगह से नियंत्रित होती हैं। आज बिजली, मोबाइल, कुकिंग गैस, टीवी, इन्टरनैट, पैट्रोल चलित वाहन आदि उच्च और मध्यम वर्ग की दैनिक उपयोगिता की वस्तुओं में आ गयी हैं किंतु इनका नियंत्रण इनके हाथ में नहीं है। अपने कमरों को एयर कन्डीशन्ड करा लेने वाले बिजली के चले जाने पर कीड़े मकोड़ों की तरह बाहर बिलबिलाने लगते हैं। बिजली उत्पादन और वितरण के केन्द्र पर बैठे व्यक्ति लाखों करोड़ों लोगों को एक साथ एक जैसा सोचने और प्रतिक्रिया देने को मजबूर कर देते हैं। बिजली के बिना घर की बोरिंग भी काम नहीं दे सकती तथा इनवर्टर की भी एक सीमा होती है। तत्कालीन केन्द्रीय संचार मंत्री प्रकाश चन्द्र सेठी के व्यवहार से जब टेलीफोन विभाग के कर्मचारी नाराज हो गये थे तब उन्होंने पूरे देश के टेलीफोन ठप करके देश को लगभग जाम कर दिया था और तब तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती गांधी को हस्तक्षेप करना पड़ा था व बाद में सेठी जी को स्तीफा भी इसी कारण से देना पड़ा था। आज मोबाइल या इन्टरनैट की कनेक्टीविटी फेल हो जाने पर करोड़ों लोग हाथ पर हाथ धर कर बैठने को मजबूर हो जाते हैं, तथा लाखों कार्यालय और संस्थानों के काम रूक जाते हैं। पैट्रोल और गैस की सप्लाई बन्द हो जाने पर पूरा का पूरा शहर मुश्किल से दो चार दिन ही गुजार पायेगा।
आज आतंकवाद के विश्वव्यापी हो जाने के बाद कहा नहीं जा सकता कि ऐसी स्थितियाँ कब उपस्थित हो जायें। ऐसे में एक बार फिर से गांधीजी याद आते हैं जो किसी भी तरह की पर निर्भरता के सख्त खिलाफ थे। उनकी खादी और चरखा ही नहीं, प्राकृतिक चिकित्सा भी आजादी की प्रतीक थी। वे कहते थे कि हमें उस सामग्री से अपने मकान बनाना चाहिये जो हमारे निवास के दस मील के दायरे में पायी जाती है। वे लंदन में पढे थे, दक्षिण अफ्रीका में उन्होंने वकालत की थी व दुनिया भर में घूमे थे, दुनिया के बड़े बड़े राजनेताओं, लेखकों, पत्रकारों, आदि से उनका पत्र सम्पर्क रहा पर वे सदैव ही किसी भी तरह की परनिर्भरता के खिलाफ ही रहे। अपने को वैष्णव हिंदू कहने वाले गांधीजी गाय नहीं, बकरी पालते थे और उसी का दूध पीते थे व लोगों को पीने की सलाह देते थे। असल में बकरी उनकी 'खादी' थी जो अपने भोजन के लिए भी अपने पालक को ज्यादा गुलामी नहीं देती।
सादगी और स्वतंत्रता का सीधा सम्बंध है। अपने आत्मिक उत्थान के लिए ऋषिमुनि जंगल की ओर प्रस्थान करते थे तथा सन्यास का मतलब ही होता था ईश्वर या प्रकृति की गोद में जाकर बैठ जाना। इस तरह प्राकृतिक हो जाना ही आध्यात्मिक हो जाना भी है जो एयर कंडीशंड आश्रमों और हरिद्वार जैसे अनुकूल मौसम वाली जगहों पर गैस्टहाउस बना कर रहने पर संभव नहीं होता।
देशों की स्वतंत्रताएं उनके लोगों की स्वतंत्रता पर ही निर्भर करती हैं और लोगों की स्वतंत्रताएं उनके अधिक से अधिक प्राकृतिक होने पर निर्भर करती हैं। इसलिए जो देश जितना कम सुविधाजीवी होगा उसकी स्वातंत्र चेतना उतनी अधिक होगी।
वीरेन्द्र जैन
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