गुरुवार, फ़रवरी 01, 2018

दिशाहीन समय में भटकते भटकाते लोग







दिशाहीन समय में भटकते भटकाते लोग
वीरेन्द्र जैन


कम लोगों को याद होगा कि 1947 के विभाजन के समय पर जो यादगार कहानियां लिखी गयी थीं, उनमें से एक कहानी का शीर्षक ‘बारह बजे’ था जो बाद में ‘सरदार जी’ के नाम से भी प्रकाशित हुयी थी। कहानी में एक सिख की मानवीयता का चित्रण था जो अपनी जान पर खेल कर भी कुछ मुस्लिम महिलाओं की जान बचाता है। कहानी बताती है कि पहले कुछ लोग उस सिख से बारह बजे की याद दिला कर मजाक भी किया करते थे जिस पर वह उत्तेजित भी हो जाता था तथा लड़ने को आ जाता था, किंतु भीषण साम्प्रदायिकता के दौर में जब कोई किसी पर भरोसा नहीं कर रहा था तब एक विरोधी समझे गये व्यक्ति के अन्दर छुपा मानव तलवार लेकर उनकी रक्षा करता है। इस कहानी को एक विशेषांक में सारिका ने तब पुनर्प्रकाशित किया था जब देश में खालिस्तानी आतंकवाद का जोर था। उस समय सारिका के सम्पादक कन्हैया लाल नन्दन हुआ करते थे। परिणाम यह हुआ कि कट्टर सिखों की एक बड़ी भीड़ ने टाइम्स दिल्ली के दरियागंज कार्यालय पर हमला कर दिया था जिसमें टाइम्स का एक गार्ड भी मारा गया था। इन हमलावरों में से शायद किसी ने भी वह कहानी नहीं पढी थी, जिसकी तारीफ कभी राजेन्द्र सिंह बेदी और खुशवंत सिंह जैसे लोग भी कर चुके थे। 
पद्मावती फिल्म जिसे बाद में बदल कर पद्मावत कर देना पड़ा ऐसा ही उदाहरण है। जब दूरदर्शन पर ‘तमस’ सीरियल आता था तब सीरियल प्रारम्भ होने से पहले एक वाक्य आता था ‘ जो लोग इतिहास से सबक नहीं लेते वे उसे दुहराने को अभिशप्त होते हैं’। उक्त फिल्म देखने के बाद यह वाक्य बुरी तरह याद आया। पद्मावत फिल्म देखने के लिए मुझे झारखण्ड यात्रा में समय निकालना पड़ा क्योंकि जैसे लोगों द्वारा जिस तरह से उसका विरोध किया जा रहा था उसका अहिंसक प्रतिरोध फिल्म देख कर ही किया जा सकता था। अब फिल्म देखने के बाद मैं कह सकता हूं कि मेरी रुचियों और समझ के हिसाब से यह ‘बाहुबली’ की तरह खराब फिल्म है और पिछले अनेक अनुभवों के आधार पर माना जा सकता है कि बहुत सम्भव है कि इसके विवाद को फिल्म निर्माता ने स्वयं ही प्रोत्साहित किया हो।
जिस फिल्म को थोड़ी कतरव्योंत के बाद सेंसर बोर्ड ने पास कर दिया, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने प्रदर्शन के लिए दो बार अनुमति दे दी। जिसके विरोध के ढंग के खिलाफ राष्ट्रपति तक को परोक्ष में बयान देना पड़ा, जिसे भाजपा शासित अनेक राज्यों में प्रदर्शन की अनुमति दी गयी हो उसे मध्य प्रदेश राजस्थान और गुजरात में प्रदर्शित नहीं होने दिया गया। पिछले दिनों तो कथित करणी सेना के इतिहासकारों, और राजघरानों के 6 सदस्यीय के पैनल ने भी हरी झण्डी दे दी तथा बीबीसी लन्दन समेत विदेशी चैनलों ने अपनी समीक्षा में यह भी लिख दिया था कि यह राजपूतों की अतिरंजित प्रशस्ति और मुसलमानों को खलनायक ठहराने वाली फिल्म है, पर फिल्म देखे बिना विरोध करने की ज़िद पर अड़े लोगों के विरोध के कारण अभी भी यह फिल्म इन राज्यों में प्रदर्शित नहीं हुयी है।
इस फिल्म को एक तरफ रखते हुए भी देखने की बात यह है कि हमारे देश के कथित शिक्षित और सम्पन्न लोगों के सूचना के माध्यम कितने सही हैं? हमारी सरकारों की जानकारी के अगर यही माध्यम हैं तो किसी भी तरह की झूठी अफवाह फैलाने में सक्षम लोग समाज में कभी भी आग भड़का सकते हैं। अगर शम्भू रैगर किसी व्यक्ति की हत्या करके उसका वीडियो बना कर वायरल कर सकता है, और मान भी लिया जाये कि वह विक्षिप्त था तो उसके पक्ष में कैसे एक भीड़ न्यायालय पर चढ कर भगवा झंडा फहरा देती है! क्या यह सामान्य घटना है? आखिर क्यों और कैसे वे सारे ट्रालर जो अशिष्ट भाषा में भाजपा के पक्ष में बुद्धिजीवियों के खिलाफ विषवमन करते हैं, शम्भू रैगर के पक्ष में बोलने लगते हैं और उसकी पत्नी के नाम पर लाखों रुपयों का फंड जमा हो जाता है!
दूसरी ओर यह सत्य भी सामने आता है कि इस फिल्म में उन्हीं घरानों का पैसा लगा है जो भाजपा को भी बड़ा चन्दा देते हैं और यही कारण है कि भाजपा शासित राज्यों में से ही कुछ राज्य न केवल फिल्म को प्रदर्शित होने देते हैं, अपितु टाकीजों को समुचित सुरक्षा भी देते हैं। फिल्म की भरपूर कमाई के आंकड़ों के प्रचार के बाद जब यह फिल्म प्रतिबन्धित राज्यों में दिखायी जायेगी तो यहाँ भी भरपूर धन्धा करेगी।
क्या यह कार्पोरेट घरानों के हित में राष्ट्रवादी भावनाओं को भुनाने का खेल है? क्या इसीलिए अवैज्ञानिकता फैला कर बेरोजगारों के गुस्से को आपस में लड़वा कर भटकाने का खेल है? यह क्या है कि अचानक मध्य प्रदेश का मुख्यमंत्री पद्मावती को राष्ट्रमाता घोषित कर देता है और उसकी मूर्ति और मन्दिर बनवाने के संकल्प लिये जाने लगते हैं। ऐतिहासिक पद्मावती जो कुछ भी थीं, या उनमें व्यक्तियों या समाजों की जो भी आस्था हो, वह 2018 में ही क्यों पूजनीय हो जाती है, जब एक बड़ी लागत की फिल्म आती है।
जो लोग सोच रहे हैं कि इस तरह से वे राजनीतिक लाभ की स्थिति में हैं, तो वे शायद कमंडल, मंडल वाले समय को भूल गये हैं। कूटनीति दुधारी तलवार होती है जो उनको खुद भी नुकसान पहुँचा सकती है।  
वीरेन्द्र जैन
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