मंगलवार, फ़रवरी 11, 2025

दिल्ली विधानसभा चुनाव परिणाम

 

दिल्ली विधानसभा चुनाव परिणाम

वीरेन्द्र जैन

दिल्ली विधानसभा के चुनाव सम्पन्न होने के बाद उसके परिणाम आ चुके हैं। इन चुनावों में सीधे सीधे दो दलों, आम आदमी पार्टी [आप] और भारतीय जनता पार्टी [भाजपा] के बीच मुकाबला था, भले ही इस रासायनिक क्रिया में उत्प्रेरक के रूप में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस व ए आई एम आइ एम [अखिल भारतीय मुस्लिम एकता संघ ] भी थीं। यदि ये उत्प्रेरक नहीं होते तो सीटों के परिणाम में भी दोनों मुख्य प्रतिद्वन्दी बिल्कुल बराबर पर होते या विपरीत होते। अभी भी उनके मतों के बीच कुल दो प्रतिशत का अंतर है। वैसे पिछले विधानसभा चुनावों से भाजपा के वोट सात प्रतिशत बढे हैं तो आम आदमी पार्टी के आठ प्रतिशत घटे हैं। लोकसभा चुनावों में भाजपा को 50% वोट मिले थे और संयुक्त रूप से लड़ने वाली काँग्रेस [18%] व आप [22%] अर्थात कुल 40% वोट मिले थे। यह बताता है कि दिल्ली में चुनाव अनुसार मत बदलने वाले मतदाता बड़ी संख्या में हैं। जिन मतदाताओं ने तीन बार राज्य में आम आदमी की सरकार बनवायी, उन्हीं ने उसके ठीक बाद भाजपा प्रत्याशियों को लोकसभा में भेजा।

 

चूंकि हमारी प्रणाली में विजेता जनप्रतिनिधियों की संख्या का महत्व सचेत मतदाताओं की संख्या से अधिक होता है, इसलिए चुनावी जीत कुछ अर्थ रखती है। विपक्ष में रहने के दौरान लोहिया पंथियों के कथन हुआ करते थे कि ज़िन्दा कौमें पाँच साल तक इंतजार नहीं करतीं। वे निरंतर सड़क के आन्दोलन किया करते थे। अब वैसा नहीं होता। अन्ना आन्दोलन के बाद जनता का स्वतःस्फूर्त कोई आन्दोलन नहीं हुआ, भले ही वेतन आदि में वृद्धि के लिए संगठित मजदूर कर्मचारियों के प्रदर्शन भले ही हुये हों, या कुछ वर्ष पूर्व एम एस पी के लिए सम्पन्न किसानों का आन्दोलन हुआ था। पिछले दिनों विशाल बहुमत से सरकार बनाने वाले केजरीवाल और उनकी पार्टी के प्रमुख लोगों को बिना किसी ठोस सबूत के जेल में भी डाल दिया गया फिर भी इस कार्यवाही के खिलाफ कोई विरोध प्रदर्शन तक नहीं हुआ।  कारण यह रहा कि वे सब प्रभुता के मद से घिर चुके थे, और ना तो उनकी पार्टी का संगठन ही बनाया गया था और ना ही कोई ठोस कार्यक्रम ही बनाया गया था जिसकी रक्षा के लिए कार्यकर्ता आदोलन करने लगते।

विडम्बना यह रही कि उक्त विधानसभा चुनाव में दोनों प्रमुख और दोनों उत्प्रेरक दलों में से किसी ने भी लोकतांत्रिक आदर्शों के अनुरूप चुनाव नहीं लड़ा। पूरा चुनाव सत्तारूढ आम आदमी और उसके पूर्व मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल की आलोचना पर केन्द्रित रहा। अरविन्द केजरीवाल ने तत्कालीन काँग्रेस सरकार के भ्रष्टाचार के खिलाफ चले आन्दोलन से लोकप्रियता अर्जित की थी और उसे राजनीतिक दल में बदलकर अपनी पार्टी बना ली थी। इस पार्टी ने आरोपों से घिरी काँग्रेस पार्टी द्वारा खाली किये गये स्थान को भर कर अपना अस्तित्व बनाया था। उसका इकलौता कार्यक्रम और नीति थी, भ्रष्टाचार मुक्त प्रशासन देना। उसने यह कर के दिखाने की कोशिश भी की। दूसरी ओर देश की दूसरी सबसे बड़ी पार्टी भाजपा ने अपने अश्वमेघ यज्ञ का घोड़ा छोड़ा हुआ था और वे काँग्रेस द्वारा खाली किये गये स्थान को भरने के लिए उतावले थे, इस कारण दोनों में प्रतियोगिता थी। देश के मतदाताओं में एक बड़ा वर्ग अभी भी गैर राजनीतिक आधार पर वोट देता है इसलिए भाजपा के पास एक सुनिश्चित हिन्दू वोट बैंक है और मुस्लिम मतदाता एकजुट होकर भाजपा को हराने वाले दल को समर्थन देते हैं। दिल्ली के चुनाव में आम आदमी के साथ काँग्रेस और एआईएमआईएम के बीच बंट गया फिर भी अधिकतम हिस्सा आम आदमी पार्टी को ही मिला, पर वह सीटें जीतने वाला बहुमत नहीं अर्जित कर सकी और पिछड़ गयी। जीत दर्ज करने वाली भाजपा केवल अपनी केन्द्र सरकार को ही दुहराती रही। डबल इंजन की सरकार को प्रचार का आधार बनाना यह भी बताता है कि केन्द्र सरकार अपने ही दल की सरकार को वांछित मदद करती है। कुल मिला कर दल के आधार पर चुनाव परिणाम का निष्कर्ष निम्नानुसार है –

भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस – इसके स्थानीय नेताओं ने उनकी सरकार पर लगाये गये आरोपों का बदला लेने के लिए वोट काट कर आम आदमी पार्टी से बदला ले लिया, भले ही वे एक भी सीट नहीं जीत सके हों और जिस बड़े उद्देश्य अर्थात साम्प्रदायिक भारतीय जनता पार्टी को हराने के लिए बनाया गये इंडिया गठबन्धन को चोट पहुंचायी हो। काँग्रेस के बड़े नेताओं की असहमति से यह हुआ है तो काँग्रेस की एकता को भी नुकसान पहुंचा है।

भारतीय जनता पार्टी- विधानसभा चुनाव जीत गयी है किंतु उसको लोकसभा में अर्जित वोटों में घटत मिली है। पराजित आम आदमी पार्टी से कुल दो प्रतिशत मत से ही आगे है, दूसरे मुख्यमंत्री चयन के सवाल पर उसे बहुत सारे समझौते करना होंगे। प्रतियोगिता में उसने जो अतिरंजित वादे किये हैं उन्हें निभाने में मुश्किलें आयेंगीं।

आम आदमी पार्टी-  पार्टी चुनाव हार गयी है किंतु यह पार्टी एक व्यक्ति को केन्द्रित कर सिद्धांत और संगठन विहीन पार्टी थी। इसके प्रमुख नेता की छवि को भाजपा ने खराब किया, उसे और उसके सहयोगियों को महीनों जेल में डाल कर रखा। जिस ईमानदारी के आधार पर इन्होंने अपना अस्तित्व बनाया था उसे ही दागदार किया गया। इसके पास जन समर्थन तो है किंतु संसाधनों की कमी है। इनके विधानसभा अध्यक्ष ने पार्टी छोड़ कर भाजपा ज्वाइन कर ली और यही काम टिकिटों से वंचित होने पर आठ और अन्य विधायकों ने भी किया। पार्टी के संस्थापकों में से अनेक पहले ही जा चुके थे जिनमें से एक कवि तो घनघोर आलोचक हैं। इनकी प्रशासनिक ईमानदारी के इतिहास के कारण इनकी जगह भरने वाली पार्टी लम्बे समय तक सतर्क होकर काम करेगी।

ए आइ एम ए आइ एम- मुस्लिम साम्प्रदायिक पार्टी है, हर चुनाव में ध्रुवीकरण करके हिन्दू साम्प्रदायिक पार्टियों को लाभ पहुंचा कर खुद भी लाभांवित होती है। इस चुनाव में भी बिना कोई सीट जीते लाभ में रही। अन्य राज्यों की तरह दिल्ली में भी उपस्थिति बना ली।

किसी शायर का शे’र है –

अय परिन्दो हिज्र करने से भी क्या हासिल हुआ / चोंच में थे चार दाने, चार दाने ही रहे

बुधवार, जनवरी 15, 2025

श्रद्धांजलि : राम मेश्राम उन्होंने कभी गलत के साथ समझौता नहीं किया

 

श्रद्धांजलि : राम मेश्राम  

उन्होंने कभी गलत के साथ समझौता नहीं किया

वीरेन्द्र जैन


गत ग्यारह जनवरी 2025 को गज़लकार पूर्व प्रशासनिक अधिकारी राम मेश्राम का 80 वर्ष की आयु में निधन हो गया। उन्होंने सरकारी पद पर रहते हुए इस समय में नियमों का पालन करते हुए शुचिता के जो मानक स्थापित किये वे उन्हें अपनी तरह का अकेला साबित करते थे। साहित्य और संगीत के प्रति उनका समर्पण बे मिसाल था। मेरा परिचय उनसे साहित्यिक गोष्ठियों के माध्यम से ही हुआ।

बहुत से लोग अपनी पहचान बनाने के लिए युवा अवस्था में साहित्य और कलाओं से जुड़ते हैं किंतु कोई पद प्राप्त करने के बाद उसे पीछे छोड़ देते हैं पर इसके विपरीत राम मेश्राम उन लोगों में से जिनका साहित्य अनुराग, पद के साथ साथ गहरा होता गया। मेश्राम जी और मेरे दूसरे प्रशासनिक अधिकारी मित्र जब्बार ढाकवाला एक ही बैच के थे किंतु जब्बार जी अधिक सक्रिय व युग अनुकूल व्यवहारिक थे इसलिए उनका आई ए एस में चयन हो गया था और मेश्राम जी पीछे रह गये थे। उन्होंने ना तो कभी सिफारिश करवायी और ना ही अपने पद के निर्वहन में किसी की अनुचित सिफारिश मानी इसलिए भी वे राजनेताओं से गठजोड़ नहीं कर सके।

उन्होंने हिन्दी गज़ल की विधा में रचनाएं कीं और संगीत आयोजनों की समीक्षाएं लिखते लिखते खुद भी संगीत का शौक पाल लिया था। मैंने एक लेख लिखा था ‘ हिन्दी गज़ल को गज़ल [उर्दू] से भिन्न विधा मानें’। यह लेख उस समय लिखा गया था जब उर्दू के उस्ताद शायर हिन्दी गज़ल को गज़ल के मानदण्डों से नाप कर उसे कमजोर बताने में लगे थे। मेरा कहना था कि जैसे नई कविता ने छन्द से मुक्त होकर अपनी अलग राह पकड़ी और बात ज्यादा सरल तरह से कह कर अपना स्थान थोड़ा ऊपर बना लिया है उसी तरह हिन्दी गज़ल ने अनावश्यक बन्धनों से मुक्ति लेकर अपने कथ्य पर ध्यान केन्द्रित किया, लोगों के दिलों को छुआ और लोकप्रियता प्राप्त की। हिन्दी गज़ल नवगीत की तरह है जो निजी दुख दर्द की जगह समाज की बात अधिक करती है। दुष्यंत आदि इसके सबसे प्रमुख उदाहरण हैं। यह विचार अनेक उन लोगों को पसन्द आया जो हिन्दी गज़ल के नाम से रचनारत थे। मेश्राम जी भी उनमें से एक थे। प्रकाशन से पूर्व जिन मित्रों को रचना सुना कर प्रतिक्रिया ली जाती है, उन्होंने उनमें मुझे भी शामिल कर लिया था। मैं भी उनको यह कह कर अपनी सलाह देता था कि यह अच्छी रचना अगर मैंने लिखी होती तो इन शब्दों का प्रयोग करता। उन्हें दूसरे मित्रों की तुलना में मेरा यह अन्दाज पसन्द आता जिसमें कहीं ऊंच नीच का भाव नहीं होता।

मेश्राम जी सरकारी नौकरी के आरक्षित वर्ग की उस पीढी से आते थे जिनके परिवारीजनों ने संविधान लागू होने के बाद इस सुविधा का पहले पहले लाभ लिया था इसलिए अगली पीढी व उनके पूरे परिवारीजन और रिश्तेदार शिक्षित थे व सरकारी नौकरी में थे। उन्होंने बुद्ध और अम्बेडकर को पढा ही नहीं समझा भी था, व अपनाया भी था। मैं वामपंथी राजनीति से प्रेरित था व लेखन का शौक पूर करने के लिए स्वैच्छिक सेवा निवृत्ति ले चुके होने के कारण भरपूर लिख व छप रहा था। मेरे ज्यादा छपने का एक कारण यह भी था कि प्रकाशन संस्थानों के लायक लिखने के बाद भी उनसे पारश्रमिक का कोई दुराग्रह नहीं करता था। मेरा लिखना मेश्राम जी को पसन्द आता था।

उन्होंने पत्रकारिता में डिग्री ली थी और प्रारम्भ में म.प्र. के जनसम्पर्क विभाग में जनसम्पर्क अधिकारी के रूप में ही सेवायें दीं। इस विभाग के बड़े अधिकारी उनके समकालीन रहे थे और वे इस मामले में सक्षम थे कि किसी भी पत्र पत्रिका को उसकी पात्रता व विभाग के नियमानुसार विज्ञापन दिलवा सकें। भोपाल ही नहीं दिल्ली आदि से प्रकाशित होने वाली पत्रिकाओं के सम्पादक प्रकाशक भी उनसे सहयोग की अपेक्षा रखते थे। कई समाचार साप्ताहिक पत्र पत्रिकाओं के सम्पादकों को उन्होंने मुझ से रचना मांगने के लिए कहा। उनके आग्रह पर मैंने उन्हें रचनाएं दीं जिसे उन्होंने सम्मान पूर्वक प्रकाशित भी कीं। उन दिनों मैं ताजा ताजा राज्यस्तरीय पत्रकार के रूप में मान्य हुआ था और इस मान्यता को सही सिद्ध करने में जी जान से जुटा हुआ था।

अगर भोपाल या भोपाल से बाहर किसी साहित्यिक कार्यक्रम का उन्हें आमंत्रण मिलता तो वे आयोजकों को मुझे भी निमंत्रित करने के लिए कहते और कनफर्म हो जाने के बाद वे अपने वाहन से साथ चलने के लिए कहते। इस बीच उक्त आमंत्रण में उनकी भूमिका की कोई चर्चा नहीं होती। यह बात बाद में पता चली कि वे आयोजक को मना भी कर देते थे कि इस आमंत्रण में उनकी भूमिका की कोई चर्चा न हो।

सरल सहज और निराभिमानी होने के कारण साहित्यिक कार्यक्रमों के लिए शिखर के किसी साहित्यकार के न आ पाने की स्थिति में वे अच्छे विकल्प माने जाते थे। नौकरशाही में उलझे किसी भी सही मामले में वे अपने प्रभाव व सम्पर्क का लाभ उपलब्ध करा सकते थे, उसके पक्ष में दलील दे सकते थे। उनकी स्वच्छ छवि के कारण कोई उन पर अनावश्यक पक्षधरता का सन्देह नही करता था। सेवा निवृत्ति के बाद जब उनको नर्मदा बाँध में बांटे गये मुआवजों की शिकायत सुनने की जाँच समिति में पद का प्रस्ताव मिला तो मुझसे चर्चा हुयी। मैंने बिना मांगे सलाह दी कि यह पद स्वीकारना उनके लिए ठीक नहीं है, क्योंकि इसमें इतनी पोल और दबाव होंगे कि सिवाय झूठे आरोपों के कुछ हासिल नहीं होना है, व अंततः नीचे से ऊपर तक सभी असंतुष्ट रहेंगे। उस समय तो उन्होंने कुछ नहीं कहा पर अंततः उन्होंने वह पद नहीं स्वीकारा।

एक दिन उनका फोन आया और पूछा कि वो तुम्हारे अम्बेडकर वाले लेख की कापी तो है। मैंने हामी भरी तो बोले कल ज्ञानवाणी चले जाइए और उसे रिकार्ड करा दीजिए, मैं तो अम्बेडकर जयंती पर कई साल से जा रहा हूं और बार बार वही बात कहता आ रहा हूं, तुम्हारे उस लेख में एक नया कोण है। मैं चला गया रिकार्ड करा दिया जहाँ से हाथों हाथ पाँच सौ रुपयों का चैक भी मिल गया, जो मैंने सोचा भी नहीं था। एक बार दिल्ली प्रैस के मालिक परेशनाथ भोपाल आये तो उन्होंने स्थानीय लेखकों को मिलने के लिए बुलवाया जिनमें मेश्राम जी भी एक थे। वे भारतीय भाषाओं की पत्रिकाओं के सम्पादकों के संगठन के राष्ट्रीय अध्यक्ष भी थे तो उनसे बहुत सारी सूचनाएं भी मिलीं और देर तक बात हुयी। जब मेश्राम जी आये तो उन्होंने दिल्ली प्रैस की पत्रिकाओं की सामग्री की कठोर समीक्षा की व अपने बैग से ढेर सारी पत्रिकाएं निकाल कर दिखाते हुए कहा कि देखिए रचनाएं ये होती हैं। संयोग से उन्होंने जिन पत्रिकाओं के जो पृष्ठ दिखाये वे सब मेरी रचनाओं के थे। मैं अचम्भित था और सोच रहा था कि परेशनाथ जी क्या सोच रहे होंगे और उनको कैसे बताऊं कि इस सब में मेरी कोई भूमिका नहीं है।

आकाशवाणी के उद्घोषक राजुरकर राज ने अपने निजी प्रयासों से दुष्य़ंत कुमार के नाम पर एक पाण्डुलिपि संग्रहालय स्थापित किया था जो विस्तरित होकर पत्रिकाओं का प्रकाशन। लेखकों के पते, फोन नम्बर और उनके सुख दुख की सूचनाएं भी साझा करने का काम भी करता था। बाद में उन्होंने लेखकों को सम्मानित करना भी प्रारम्भ कर दिया था। बाहर से आने वाले विशिष्ट लेखकों को वे संग्रहालय देखने के लिए आमंत्रित करते थे और चुनिन्दा लोगों को उनसे बातचीत के लिए आमंत्रित करते थे। एक कार्यकाल में उन्होंने राम मेश्राम जी को ट्रस्ट का अध्यक्ष भी चुना था। जब पुष्पा भारती जी का भोपाल आगमन हुआ तो इस अवसर पर मेश्राम जी ने मुझे बुलवाया क्योंकि मैं धर्मयुग में काफी समय तक छपता रहा हूं। इस बातचीत में उनसे सार्थक संवाद हुआ। उन्होंने कुछ बहुत रोचक संस्मरण सुनाये जो भारती जी के साथ लोहियाजी, चन्द्रशेखर, लता मंगेशकर आदि के बारे में थे जो हम लोगों ने पहली बार सुने थे।

नवगीत के प्रति उनको कुछ विशेष लगाव था। हम दोनों ही नईम जी को पसन्द करते थे। जब वे अस्वस्थ हुये तो सरकारी सहायता दिलाने में उन्होंने बहुत प्रयास किये। बाद में भोपाल में भी उनकी स्मृति में एक नवगीत पर सम्मेलन आयोजित कराया व उन पर नवगीत को केन्द्रित कर एक स्मारिका भी प्रकाशित करायी जिसके विमोचन के अवसर आयोजित सम्मेलन में मुझे भी देवास ले गये थे। मैंने नईम जी के निधन पर हंस में जो श्रद्धांजलि लेख ‘ न हन्यते’ स्तम्भ में लिखा था उसमें मेश्राम जी के प्रयासों का उल्लेख भी किया था।

छोटी छोटी बहुत सी यादें हैं। पिछले कुछ वर्षों से वे होशंगाबाद रोड पर अपने नये मकान में रहने चले गये थे और मुलाकातें कम हो गयी थीं। उनके अस्वस्थ होने की जगह अखबार से सीधी उनके निधन की खबर मिली। विद्युत शवदाह गृह में बौद्ध रीति रिवाज से उनका अंतिम संस्कार हुआ। एक बात कई दिनों से सता रही है कि उन्होंने साहित्य संगीत व प्रकाशन के क्षेत्र में भोपाल के सैकड़ों लोगों की बिना किसी स्वार्थ के मदद की किंतु उनके अंतिम संस्कार के समय दुष्यंत संग्रहालय की करुणा राजुरकर व अध्यक्ष वामनकर जी के अलावा उनके साहित्यिक मित्रों में मैं अकेला था।  

वीरेन्द्र जैन

2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड

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फोन न. 0755 4205073       

 

मंगलवार, अक्टूबर 08, 2024

श्रद्धांजलि / संस्मरण, कण्ठमणि बुधौलिया

 

श्रद्धांजलि /              संस्मरण
कण्ठमणि बुधौलिया

वे दतिया में गिनती के राजनीतिक व्यक्तियों में से एक थे

वीरेन्द्र जैन

बुधौलिया जी के निधन की सूचना देर से मिली। अचानक ही शकील अख्तर के श्रद्धांजलि लेख को पढ कर ही पता लगा। अब दतिया में ऐसे कम लोग बचे हैं जो उस दौर के व्यक्तियों के योगदान को याद करते हों जिस दौर में बुधौलिया जी सक्रिय थे।

अपनी बातों में मैं अक्सर एक बात कहा करता था कि दतिया में कुल दो लोग हैं जो राजनीति में हैं, और उनमें से एक कण्ठमणि बुधौलिया हैं। राजनीति में होने का दिखावा करने वाले अन्य लोग या तो राजनीति को रोजगार के विकल्प के रूप में लिए हुये हैं या अपनी हीनता की भावना से उबरने के लिए राजनीति में कोई पद हासिल करने की कोशिश में कहीं सम्बद्ध हो गये हैं। वे ना तो अपने दल के विचार के आधार को जानते हैं, ना ही उसके कार्यक्रम से परिचित हैं। राजनीतिक दलों से जुड़े व्यक्ति या तो नगरीय निकायों के सदस्य या सदस्य बन सकने की उम्मीद में काम करने वाले होते रहे थे या बाद में पंचायती राज आने के बाद पंच, सरपंच, जनपद पंचायत, मंडी कमेटी सदस्य आदि में खप जाते हैं। किसी गरीब क्षेत्र में लोग अपने छोटे मोटे पद से जुड़े बजट में से यथा सम्भव नोंचने में लग जाते हैं। बुधौलिया जी समाज को बदलने वाली राजनीति का हिस्सा थे।

कण्ठमणि बुधौलिया अपनी युवा अवस्था से ही समाजवादी विचारधारा के प्रभाव में आ गये थे जिस कारण वे क्षेत्र की कथित मुख्यधारा की राजनीति के नाम से चलने और पलने वाले गिरोहों से मुक्त रहे। वे किसी धन सम्पन्न परिवार से नहीं आते थे। उनका परिवार पण्डिताई करने वाला किसान परिवार था और फिर भी उन्होंने अपनी विचारधारा के प्रभाव में नौकरी के पीछे भागने की जगह वकालत करना स्वीकार किया था। वकालत एक ऐसा काम है जिसमें ज्यादातर वे ही लोग सफल हो पाते हैं जो किसी सफल वकील परिवार से आते हैं या किसी सफल वकील के जूनियर बन जाते हैं।  अपनी स्वतंत्र वकालत शुरू करने वाले इक्का दुक्का लोग ही किसी संयोगवश सफल होते पाये जाते हैं। बुधौलिया जी एक योग्य किंतु व्यावसायिक रूप से असफल वकील थे, फिर भी उन्होंने कभी कोई समझौता नहीं किया। अपनी समाजवादी विचारधारा और ईमानदारी पर अडिग रहे।

अपने छात्र जीवन में मेरी पहचान भी एक वामपंथी विचारधारा के छात्र के रूप में विकसित हुयी जिसका कारण मेरे पिता का प्रगतिशील आचरण और उनकी वाम पक्षधरता का प्रभाव था। अपने प्रवेशांक से ही मेरे घर में हिन्दी ब्लिट्ज़ आता था जिसे में नियमित रूप से पढता था और उसमें व्यक्त तर्कों को अपनी बातचीत में लाता था, जिस कारण से ऐसा समझा जाता था। जब राजनीति में केवल काँग्रेस, हिन्दू महासभा का नाम सुनायी देता था तब भी छुटपुट रूप से इस सामंती क्षेत्र में समाजवादी, प्रजा समाजवादी, संयुक्त समाजवादी आदि के नारे लिखे मिल जाते थे। बाद में जनसंघ ने हिन्दू महासभा का स्थान ले लिया था।

1971 तक दतिया में कुल जमा दो समाजवादी थे जिनमें से एक कण्ठमणि बुधौलिया और दूसरे राजाराम श्रीवास्तव। इनके अनुयायी के रूप में एक ओम प्रकाश श्रीवास्तव भी दिख जाते थे, जो कार्यकर्ता अधिक थे। ये तीनों ही लोग अपनी सादगी से पहचाने जाते थे। उन दिनों भिंड से समाजवादी पार्टी के एक विधायक हुआ करते थे, नाम था श्री रघुवीर सिंह कुशवाहा जो विशेष रूप से मुझसे मिलने के लिए दतिया आये थे और वहाँ समाजवादी युवजन सभा स्थापित करने का प्रस्ताव दिया था। मैं इसे स्वीकार तो नहीं कर सका किंतु नगर में एक सहयोगी ग्रुप बन गया था जिस कारण मेरा परिचय बुधौलिया जी से हुआ जो मुझ से सीनियर थे और वकालत प्रारम्भ कर चुके थे। नागरी प्रचारणी सभा की ओर से एक रिसर्च स्कालर श्री उदय शंकर दुबे भी उन दिनों दतिया में सक्रिय थे जो इलाहाबाद बनारस तरफ के थे और पुराने समाजवादी थे। उनसे साहित्यिक विमर्श होता रहता था। स्थानीय अखबारों में कभी कभी हम लोगों के सम्मलित बयान छप जाया करते थे।

उन्हीं दिनों मुख्यधारा की राजनीति में अपना स्थान बनाने के लिए उतावले एक प्रतिभाशाली युवा नेता शम्भू तिवारी उभरे थे जिन्होंने अपना एक निजी संगठन तैयार कर लिया था। वे भी अपनी राजनीति के हिसाब से हमारे वाम ग्रुप से पास और दूर होते रहे। इमरजैंसी के दौरान वे बुधौलिया जी के साथ जेल में रहे, तब तक मैं नौकरी में आकर बाहर चला गया था इसलिए जेल जाने से बच गया था। दतिया जेल में संघ वालों से असहमति रखने वाले ये दो ही प्रमुख लोग थे। तिवारी जी बाद में लोकदल और जनता दल के प्रयोग में भी साथ रहे तथा संभावना अनुसार काँग्रेस और भाजपा की ओर भी आवागमन करते रहे। एक बार तो वे भाजपा की ओर से विधायक बनने में भी सफल हुये, किंतु विधानसभा भंग हो जाने के कारण कार्यकाल पूरा नहीं कर सके थे।

बुधौलिया जी को अपनी विचारधारा के साथ अकेले खड़े होने भी कभी संकोच नहीं हुआ। देश और प्रदेश में यदा कदा उनकी विचारधारा के साथ चलने वाली सरकारें भी बनीं किंतु उन्होंने ना तो कभी सरकार से कोई पद चाहा न लाभ लिया। दतिया में बीड़ी निर्माण का लघु उद्योग चलता था जिसमें बीड़ी वर्कर्स की एक यूनियन उन्होंने गठित की थी। उस यूनियन को साथ लेकर वे प्रत्येक मई दिवस को नगर में रैली निकालते थे। इस रैली में बैंक और बीमा आदि की कर्मचारियों की यूनियन भी भाग लेने लगी थीं। 1990 के आसपास सीटू के नेता वकार सिद्दीकी भी दतिया आ गये थे और साथ में नेतृत्व करने लगे थे। जब उन्होंने साक्षरता आन्दोलन चलाया तो उसमें भी बुधौलिया जी ने साथ दिया था। एक बार उन्होंने एक शंकराचार्य से सवाल पूछने के क्रम में पूछ लिया था कि महाराज जी परमाणु विस्फोट का फार्मूला बताइए और उनका गुस्सा झेला था।

मैं कामरेड सव्यसाची जी द्वारा जनसामान्य की भाषा में लिखी पुस्तिकाओं से प्रभावित था और उनकी पुस्तकें व पत्रिका मंगाता था व उन्हें जरूर देता था। एक बार जब एरियर मिला तो उस राशि में से मैंने सीपीएम के मुख पत्र लोकलहर के वार्षिक चन्दे को दस लोगों के नाम देकर भेज दिया था। बुधौलियाजी भी उनमें से एक थे। वे स्थानीय अखबारों में सामायिक टिप्पणियां तो लिखते ही थे अपितु कवितायें भी लिखते थे और कवि गोष्ठियों में आते थे। जनवादी लेखक संघ के सदस्य थे। उनका एक कविता संकलन भी प्रकाशित है।

एक बार निजी बातचीत में कैफी आज़मी ने मुझ से कहा था कि कामरेड विचारधारा का रिश्ता खून के रिश्ते से भी बढ कर होता है। इस तरह उनसे एक रिश्ता था। एक समर्पित साथी के जाने का दुख है, सम्भव है कि उनकी स्मृतियों से उनके कदमों पर चलने वाले और लोग भी निकलें।     

वीरेन्द्र जैन

2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड

अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023

 

गुरुवार, सितंबर 12, 2024

श्रद्धांजलि कामरेड सीताराम येचुरी

 

श्रद्धांजलि कामरेड सीताराम येचुरी

वीरेन्द्र जैन

[ अध्यक्ष, म.प्र. जनवादी लेखक संघ ]


कामरेड येचुरी देश के ऐसे प्रमुख युवा नेताओं में से थे जिनकी प्रतिभा से देश की राजनीति का हर वर्ग प्रभावित था। वे अजातशत्रु थे। जे एन यू की छात्र राजनीति से प्रारम्भ करके येचुरी ने वहाँ ऐसी नींव डाली कि यह विश्वविद्यालय देश और दुनिया के श्रेष्ठ विश्वविद्यालयों में शामिल हो गया था। इस विश्वविद्यालय का हर कोना एक क्लासरूम बन गया था जहां चौबीसों घंटे हर विषय पर गहनतम विमर्श चलता रहता था और सामूहिक मंथन से जो प्रतिभाएं विकसित हुयी हैं उन्होंने हर क्षेत्र में नेतृत्वकारी व्यक्ति दिये हैं।

कामरेड येचुरी कम से कम नौ भाषाओं के जानकार थे और हिन्दी, अंग्रेजी, तेलगु, मलयालम. बंगला, उर्दू के साथ साथ अनेक विदेशी भाषाओं में धारा प्रवाह विचार व्यक्त कर सकने में सक्षम थे। आमतौर पर वामपंथी नेता सर्वाधिक शिक्षित और अध्ययन शील नेताओं में आते हैं किंतु ऐसे नेता कम ही मिलते हैं जो सरल हिन्दी या क्षेत्रीय भाषाओं में राजनीतिक विश्लेषण को आम मजदूर किसान तक पहुंचा सकें। यही कारण रहा कि वामपंथ को राजनीतिक चुनौती न मिलने के बाद भी वह पूरे भारत में उस वर्ग तक नहीं पहुंच सका जिसके साथ होने का वह दावा करता रहा है। येचुरी इसमें अपवाद थे। वे अपनी वक्तृत्व कला की क्षमता से देश भर के मजदूरों, किसानों, युवाओं, बुद्धिजीवियों, राजनीतिक कार्यकर्ताओं को प्रभावित करते थे। वे राज्यसभा के उन विरले सांसदों में रहे जिन्हें बिना टोके पूरे ध्यान से सुना जाता था और उनके कथन की गहराई को महसूस किया जाता था। विरोधी दल के प्रमुख नेता होते हुए भी उन्हें कभी उत्तेजित या क्रोधित मुद्रा में नहीं देखा गया। वे कठोर से कठोर बात भी अपने हँसमुख स्वभाव से कह जाते थे। जब देश में वी पी सिंह की सरकार रही हो या यूनाइटिड फ्रंट की सरकार रही हो जिसमें उनकी पार्टी प्रमुख सहयोगी पार्टी रही, उन्हें कभी सत्ता के शक्ति का उपयोग करते नहीं देखा गया।

जब यूनाइटिड फ्रंट सरकार में उन्हें बयान देने के लिए रोज रोज टीवी पर आना पड़ता था, उन्हीं दिनों हम लोगों ने मुलाकात होने पर उनसे मजाक मजाक में कहा कि कामरेड अब तो आपको देश भर में पहचाना जाने लगा है तो उन्होंने एक दिलचस्प घटना सुनायी। एक बार वे महाराष्ट्र के सचिव के साथ कार से रत्नागिरि से लौट रहे थे तो उन्होंने बताया कि रास्ते में एक ढाबा मिलता है जिसमें बहुत अच्छा सी फूड मिलता है। वे लोग उसमें पहुंच गये और मीनू देखा, देख कर अपनी अपनी जेबें टटोलीं तो पाया कि मीनू में उनके लोकप्रिय आइटम की जो दरें दर्शायी गयी थीं उन्हें चुकाने लायक पैसा तो दोनों के पास नहीं था। इसलिए उन्होंने अपनी जेब के अनुसार आर्डर किया और वह विशिष्ट आइटम खाने की तमन्ना शेष रह गयी। जब वे बिल चुकाने काउंटर पर गये तो मालिक ने हाथ जोड़ कर कहा कि आपका आना ही हमारे लिए गौरव की बात है, आपसे बिल कैसे ले सकते हैं। येचुरी जी बोले अगर पहले पता होता तो वह आइटम मंगा लेते जिसके लिए इस ढाबे पर रुके थे। उन दिनों डिजिटल मुद्रा का चलन प्रारम्भ नहीं हुआ था।

येचुरी जी देश की राजनीति में बड़ी जगह खाली कर गये हैं। उन्हें क्रांतिकारी सलाम के साथ श्रद्धांजलि।     

शनिवार, अगस्त 24, 2024

श्रद्धांजलि / संस्मरण सुशील गुरु

 

श्रद्धांजलि / संस्मरण

सुशील गुरु

वीरेन्द्र जैन

जैन परिवार में जन्मे सुशील गुरु सेना से सेवा निवृत्त ऐसे सैनिक थे जो कवि भी थे। ऐसा संयोग कम ही देखने को मिलता है, किंतु वे स्वयं ही कविता नहीं करते थे अपितु अपने जैसे दूसरे कवियों को जोड़ कर गोष्ठियां करने, उनके साथ सहयोगी कविता संकलन प्रकाशित कराने में भी अग्रणी रहते थे। इसके लिए उन्होंने रंजन कलश नामक संस्था बनायी थी जिसकी ओर से प्रतिवर्ष अखिल भारतीय स्तर पर नौ कवियों को रंजन कलश शिव सम्मान देते थे। आम तौर पर ऐसा काम करने वाले कुछ धन्धेबाज लोग होते हैं जो साहित्य में रुचि रखने वालों की यशकामना का विदोहन करते हैं और इस कार्य से कुछ कमाई भी कर लेते हैं, जबकि इसके विपरीत श्री गुरु यह काम बिना किसी लाभ लोभ के अपनी ओर से अपनी रुचि के कारण करते थे। इसमें उन्हें आनन्द आता था।

श्री गुरु आगरा में जन्मे थे। उनकी एक फेसबुक पोस्ट से ज्ञात हुआ कि उनके बचपन में ही उनकी माँ का निधन हो गया था और उन्हें उनके पिता ने ही पाला जो डिप्टी कलैक्टर थे और बच्चों को पालने के लिए ही उन्होंने सेवा में विस्तार लेने से मना कर दिया था। वे पिता की प्रेरणा से ही सेना में भरती हुए थे। उनके प्रोफाइल में लिखा है कि वे चीन के साथ हुयी लड़ाई में लड़े थे व सेवा काल के दौरान उन्हें रक्षा मेडल, संग्राम मेडल स्वंतंत्रता जयंती मेडल व दीर्घ सेवा मेडल प्राप्त हुये थे। सेना से सेवा निवृत्त होने के बाद उन्होंने बी एच ई एल भोपाल में सेक्यूरिटी अधिकारी के रूप में सेवायें दीं और अपना निवास भोपाल में बनाया।

वे ब्रज क्षेत्र के थे और प्रमुख रूप से ब्रज भाषा के छन्दों में ही अपनी रचनाएं लिखते थे। सैनिक होने के कारण उन्होंने राष्ट्रभक्ति की ओजस्वी कविताएं भी लिखी हैं व बाल साहित्य भी रचा है जो उनकी पुस्तकों 1. काव्य कलश, 2. शब्द कलश, 3. मधु कलश, 4. मन के गीत, 5.गीत साधना, 6.बाल कलश, 7. नेह कलश, 8..गीत कलश 9. नव क़लश में संकलित है।

कुछ मामलों में सैनिकों जैसी मुखरता और स्पष्ट्वादिता के बाद भी वे साहित्य प्रेम के प्रति इतने समर्पित थे कि साहित्य में रुचि रखने वालों तक स्वयं पहुंचते थे, उन्हें अपनी गोष्ठियों में आमंत्रित करते थे, उनकी रचनाओं को सहयोगी प्रकाशनों में सम्मलित करते थे, और यथा सम्भव सम्मान पुरस्कार से नवाजते थे। 2001 से मैं भोपाल बस गया था और जब मेरी कुछ रचनाएं उन्हें विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में पढने को मिलीं तो उन्होंने खुद मेरे पास आकर मुझे संस्था का सम्मान देने का प्रस्ताव दिया जिसे मैंने विनम्रता से यह कह कर मना कर दिया कि मैं स्वयं को किसी सम्मान के लायक नहीं समझता हूं इसलिए ग्रहण नहीं कर सकता जिसका प्रमाण यह है कि तीस वर्ष के निरंतर लेखन के बाद भी मेरे परिचय में किसी सम्मान, पुरस्कार का जिक्र नहीं है। बहरहाल मैंने उनकी गोष्ठियों में सम्मलित होने के निमंत्रण को सिर झुका कर स्वीकार कर लिया। अनेक ऐसी गोष्ठियों में उन्होंने मुझ नाचीज को अध्यक्षता दी और अनेक लोगों को मेरे हाथ से सम्मान दिलवाये।

उनकी परिचित किसी पत्रकार को जब दैनिक भास्कर में कल्चर को कवर करने की बीट मिली तो उन्होंने उसे मेरे ऊपर लिखने को कहा और जब उसने पूछा कि आपको मिले पुरस्कार सम्मान बताइए और जब मैंने यही कहा कि मुझे कहीं से कोई सम्मान पुरस्कार नहीं मिला तो उसने आश्चर्य से कहा कि भोपाल में तो गली गली सम्मान देने वाली संस्थाएं हैं और कोई भी लेखक बिना सम्मान के नहीं है तो यह कैसे सम्भव है। उसने आगे कहा कि गुरुजी तो आपके मित्र हैं और प्रतिवर्ष ढेरों पुरस्कार देते हैं, वे आपके प्रशंसक भी हैं और उन्होंने ही मुझे आपके पास भेजा है। कभी मुहल्ले से, मन्दिर से कहीं से कुछ तो मिला होगा! मेरे मना करने पर उसे निराशा हुयी तो उसने मेरे लेख से लेकर आन्ध्र प्रदेश स्थापना के रजत जयंती कार्यक्रम में मुख्यमंत्री द्वारा कवियों के स्वागत को सम्मान बता कर अपनी खबर बनायी। इस पर मैंने गुरु जी से अपना असंतोष भी व्यक्त किया। पर वे सहज रहे।

कोरोना के बाद उनके कार्यक्रमों की आवृत्ति भी कम हो गयी थी और मेरा वहां जाना भी। एक दुर्घटना के बाद वे अक्सर ही अपने बेटे के पास इन्दौर रहने चले जाते थे। पिछले 22 अगस्त 24 को इन्दौर में ही उनका देहावसान हो गया। उन्होंने भोपाल के एक साहित्यिक कोने को सूना कर दिया। उनकी रुचि और समर्पण को नमन।    

वीरेन्द्र जैन

2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड

अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023

 

शुक्रवार, जुलाई 26, 2024

श्रद्धांजलि / संस्मरण प्रभात झा

 

श्रद्धांजलि / संस्मरण  प्रभात झा

वीरेन्द्र जैन

दिवंगत कामरेड शैलेन्द्र शैली जिन्होंने अपने ज्ञान, अध्ययन, विवेक और संवाद कौशल के सहारे बहुत कम उम्र में शिखर के राजनेताओं, बुद्धिजीवियों, रणनीतिकारों में अपना स्थान बनाया था, इतने सहज और आत्मविश्वास से भरे रहते थे कि किसी पद, धन या डिग्रीधारी के प्रभाव में नहीं आते थे। अवैज्ञानिक समझ से खुद को समझदार दिखाने का भ्रम करने वालों के साथ तो वे बहुत विनोद से बात करते थे कि पास बैठे लोगों को समझ में आ जाता था कि किसकी क्या प्रतिभा है। इसलिए वे अपने विचारों से असहमत लोगों से भी खूब संवाद करते थे और अन्दाज यह होता है कि जैसे वरिष्ठ जन अपने बच्चों से कहते हैं कि बेटे गुड़िया की शादी कर रही हो, करो पर पकवान क्या क्या परोसोगी, मुझे बुलाओगी या नहीं, या जैसे ईशा मसीह ने शांत चित्त होकर अंतिम शब्द कहे थे कि हे ईश्वर इन्हें माफ कर देना, ये नहीं जानते कि ये क्या कर रहे हैं।

प्रभात झा जब ग्वालियर में पत्रकारिता में आये तब तक शैलेन्द्र शैली पहले छात्र नेता के रूप में और बाद में युवा सीपीएम के नेता के रूप में ग्वालियर में ही कार्य कर रहे थे। दोनों की विचारधारा एकदम विपरीत थी किंतु शैली जैसा युवा नेता अपने पूरे आत्म विश्वास के साथ सबसे संवाद रखता था। प्रभात झा भी उनकी इस प्रतिभा से प्रभवित थे और विमर्श करते रहते थे। उस दौर में दोनों ही सत्तारूढ काँग्रेस के विरोधी थे इसलिए एक बात में तो सहमति थी ही। शैली के अध्यन और विश्लेषण का लाभ ग्वालियर का पूरा पत्रकार जगत उठाता था। यह जानकारी मुझे तब मिली जब कामरेड शैली के निधन के बाद निकले लोकजतन के श्रद्धांजलि अंक में मैंने प्रभात झा का लेख पढा। तब तक वे भोपाल मैं भाजपा के मीडिया प्रभारी की तरह आ चुके थे। यह लेख पढने के बाद मुझे उनके बारे में जानने की जिज्ञासा हुयी तो पता चला कि दोनों के बीच में लोकतांत्रिक संवाद था। पता चला कि एक बार भाषा पर बातचीत के दौरान शैली ने मजाक में उनसे कहा था कि प्रभात तुम आर एस एस से हो इसलिए तुम्हारी मातृ भाषा मराठी होगी और मैं सी पी एम से हूं इसलिए मेरी मातृभाषा बंगाली होगी ।

जब मैं बैंक की नौकरी से मुक्त होकर भोपाल आया तो पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रवेश क्र लिए अतिरिक्त उत्साह से भरा हुआ था इसलिए नये विषयों पर निर्भीकता से लिखता था व उसे प्रकाशित कराने के लिए  मंच की तलाश में रहता था। ऐसा ही एक अवसर आया जब म.प्र. की दिग्विजय सिंह सरकार ने इतिहास पर एक तीन दिवसीय सेमिनार का आयोजन कराया था जिसमें देश के श्रेष्ठ इतिहासकार भागीदारी कर रहे थे। इसमें पढे गये कुछ पर्चों के बारे में प्रभात झा ने दैनिक भास्कर में एक आलोचनात्मक लेख लिखा। लगे हाथ मैंने उसी दिन के कुछ अंग्रेजी अखबारों में भिन्न विचार भी पढे तो तुरंत ही एक लम्बी प्रतिक्रिया लिख कर दैनिक भास्कर के तत्कालीन सम्पादक एन के सिंह के पास पहुंच गया। उन्होंने उसे देखा तो उन्हें विषय वस्तु तो पसन्द आयी किंतु उसका प्रतिक्रिया स्वरूप पसन्द नहीं आया। उन्होंने कहा कि यह क्या है कि बार बार ‘प्रभात झा ने यह कहा है’ ‘प्रभात झा ने यह कहा है’ आ रहा है। आप तो इसी पर एक स्वतंत्र लेख लिख लाइए जिसमें किसी के कथन पर टिप्पणी नहीं की गयी हो।

मैं विधिवत इतिहास का विद्यार्थी तो रहा नहीं और ना ही इंटरनैट गूगल आदि की सुविधाएं उपलब्ध थीं  था इसलिए मुझे सन्दर्भ सहित लिखने में समय लग गया व एक दिन बाद भी उस समय ले कर पहुंचा जब तक सम्पादकीय पेज बन चुका होता है। उन्होंने अप्रसन्नता भी व्यक्त की क्योंकि वे मेरे लेख के इंतजार में काफी देर तक पेज रोके रहे थे। फिर भी उन्होंने लेकर रख लिया। किसी राष्ट्रीय विषय पर बड़े अखबार के सम्पादकीय पेज पर छप सकने के मेरे सपने का यह अवसर था और मेरे अन्दर हलचल चल रही थी। उसी दिन मुझे दतिया के लिए निकलना था और मैं चला आया। दो दिन तक लगातार अखबार देखता रहा किंतु वह लेख नहीं छपा था। सब्र कर के रह गया।

दस दिन बाद जब लौट कर भोपाल आया और डाक देखी तब उसमें एक लिफाफा दैनिक भास्कर का भी दिखा। उत्सुकतावश सबसे पहले उसे ही खोला तो उसमें वह लेख मिला और उस पर लेख के उपयोग न कर पाने की पर्ची लगी हुयी थी। दुख हुआ पर जब पेज पलटे तो लेख के अंत में सम्पादक एन के सिंह का लाल स्याही से उप सम्पादक वीरेन मुंशी के नाम नोट था, ‘कृप्या इसे छापें’। अगले दिन जब मैं लिफाफा लेकर भास्कर कार्यालय पहुंचा तो एन के सिंह नहीं थे तो सीधे उप सम्पादक की केबिन में चला गया। जो सज्जन बैठे थे उनसे मैंने पूछा कि क्या आप ही मुंशीजी हैं तो उन्होंने इंकार किया और वताया कि मुंशी जी अब अखबार में नहीं हैं। उन्होंने मेरा परिचय और नाम जानना चाहा तो बताने पर ऐसा लगा कि वे मेरे बारे में पहले से जानते है और कहा कि आपके कुछ व्यंग्य लेख पड़े हुये थे जिनमें एक कल और बाकी भी अगले सप्ताहों में छप रहे हैं।

इस घटना के कई सालों तक मेरे लेखों को भास्कर के सम्पादकीय पेज पर स्थान मिलता रहा।

बाद में प्रभात झा ने राजनीति में कई छलांगें लगायीं। वे भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष, राष्ट्रीय महामंत्री, दो बार राज्यसभा के सदस्य रहने के साथ प्रदेश के सर्वोच्च नेता के प्रतिद्वन्दी के रूप में भी पहचाने गये। कई वर्षों से वे मौन साधना कर रहे थे शायद स्वास्थ ही उसका कारण रहा हो। अपनी प्रतिभा और समर्पण से फर्श से अर्श तक पहुंचने वाले लोगों के इतिहास में उनका नाम लिखा जायेगा। वे मेरी यादों में दर्ज हैं, उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि।  

वीरेन्द्र जैन

2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड

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सोमवार, जुलाई 22, 2024

फिल्म समीक्षा ; लापता लेडीज शिक्षा देती मनोरंजक फिल्म

 

फिल्म समीक्षा ; लापता लेडीज

शिक्षा देती मनोरंजक फिल्म

वीरेन्द्र जैन


लापता लेडीज यथार्थवादी फिल्म नहीं है। निर्माता को कुछ सन्देश देना थे इसलिए उसने बेतरतीब ढंग से जोड़ी हुयी एक कहानी पर मनोरंजक घटनाओं से भरे सन्देशों के वस्त्र पहना दिये। कहानी पुराने तरह की एवीएम प्रोडक्शन की फिल्मों जैसी है। कुछ लोग मानते हैं कि यह रवीन्द्रनाथ टैगोर के उपन्यास ” नौका डूबी “ पर बनी दिलीप कुमार की ‘मिलन [1948]’ या “घूंघट [1960]” की तरह है, पर यह सही नहीं है। उपरोक्त दोनों ही  फिल्मों से केवल इतनी समानता है कि तीनों में घूंघट के कारण दुल्हिनें बदल जाती हैं और इस भूल का पता बाद में चलता है। किंतु इस फिल्म में मुख्य समस्या घूंघट नहीं है, यह केवल संयोग भर है।

कहानी में ढेरों झोल हैं और अगर तार्किक दृष्टि से देखें तो मोबाइल फोन स्तेमाल करने वाली दुल्हिनें और फैक्स वाले थानों के दौर में दुल्हिनें बदल जाने वाले घूंघट नहीं डाले जाते। इस जमाने की बालिग दुल्हिनें अपने ससुराल के गाँव के नाम से अनभिज्ञ नहीं हो सकतीं और किसी भी परिस्तिथि में अपने पति का नाम ना बताने के प्रति प्रतिबद्ध नहीं हो सकतीं। गाँव में रहने वाली कम शिक्षित नायिका की ननद  बेहद अच्छी चित्रकार हो सकती है। महत्वपूर्ण यह है कि कहानी के माध्यम से निर्माता निर्देशक ने समाज व्यवस्था की जिन दुष्प्रवृत्तियों को रेखांकित करने की कोशिश की है उन्हें वह कर पाया है।

दृष्य माध्यम की विशेषता यह होती है कि वह कम से कम समय में पुस्तक के दर्जनों पेजों में वर्णित दृश्य को बता देता है। रंग बिरंगे फूल पत्ते, बहती हवा, आकाश, नदी, पहाड़, पात्रों के मनोभाव आदि सैकिंडों में सम्प्रेषित हो जाते हैं। इसके माध्यम से कथाकार निर्देशक बता देता है कि हमारे गाँवों और कस्बों की पुलिस व्यवस्था कैसे काम करती है व वहाँ से न्याय मिल पाना कितना मुश्किल होता है। एक आम आदमी के लिए रेल परिवहन की दशा कैसी है, रेलवे स्टेशनों पर चल रही खानपान की दशा कैसी है। इत्यादि।

विवाह, हिन्दी फिल्मों का ऐसा समस्या मूलक विषय है जिस पर हजारों फिल्में बन चुकी हैं। प्रसिद्ध लेखक पत्रकार और फिल्मों से जुड़े प्रितीश नन्दी एक लेख में लिखते हैं कि वे एक विदेशी मित्र को एक हिन्दी फिल्म दिखाने ले गये तो उसने फिल्म देखने के बाद पूछा कि क्या हिन्दुस्तान में विवाह अब भी इतनी बड़ी समस्या है। कनाडा में रहने वाले मेरे एक सिख मित्र ने अपनी भांजी से पूछा कि वह कनाडा निवासी सिख से व्याह करना पसन्द करेगी या भारत में रहने वाले किसी सिख से, तो उसका उत्तर था कि भारत में तो व्याह किसी व्यक्ति से नहीं, पूरे परिवार के साथ होता है इसलिए वह कनाडा निवासी से ही व्याह करना पसन्द करेगी। इस फिल्म की पटकथा में घूंघट के कारण जो दुल्हिनें बदल जाती हैं, उनमें से एक अपने थोपे हुए दूल्हे से शादी करने की इच्छुक नहीं है और वह जैविक खेती की पढाई करके उसमें अपना कैरियर बनाना चाहती है और देहरादून में प्रवेश के लिए भाग जाना चाहती है। जैविक खेती जन महत्व का विषय है किंतु यहाँ यह प्रसंग थेगड़े की तरह कहानी में अलग से चिपकाया हुआ दिखता है।

फिल्म के निर्माता निर्देशकों में आमिर खान और किरन राव के नाम से समानांतर सिनेमा के दर्शकों को भ्रम हो जाता है कि यह कला फिल्म होगी किंतु यह साधारण मनोरंजक फिल्म निकल कर उन्हें निराश करती है। कुल मिला कर यह एक मनोरंजक फिल्म ही है जिसमें रविकिशन की भूमिका और अभिनय जानदार है, शेष कलाकार नये हैं किंतु निराश नहीं करते।

वीरेन्द्र जैन

2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड

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