शुक्रवार, अक्टूबर 31, 2025

जय संतोषी माता का नया संस्करण

 जय संतोषी माता का नया संस्करण

वीरेन्द्र जैन
सन 1975 में हिन्दी की अब तक की सबसे लोकप्रिय फिल्म शोले रिलीज हुयी थी। इसके समानांतर एक और फिल्म रिलीज हुयी थी जिसने उस समय की सूचनाओं के अनुसार शोले से भी अधिक बिजनेस किया था। उसका नाम था ‘जय संतोषी माता” । पुराने पंडितों धर्म धुरन्धरों से पूछने पर किसी ने भी मान्य शास्त्रों में इस देवी की कथा के बारे में नहीं बताया किंतु सत्तर के दशक में पूरे उत्तर भारत में शुक्रवार के दिन महिलाएं संतोषी माता का व्रत रखने लगी थीं और खटाई खाने व बनाने से परहेज करने लगी थीं। कई स्थानों पर उनके स्वतंत्र मन्दिर बन गये थे और कई पुराने मन्दिरों में एक वेदी भी संतोषी माता के लिए सुरक्षित कर दी गयी थी। जब मैं हाथरस में था तो मेरा एक कैशियर स्टाफ कुशल पाल सिंह शुक्रवार को संतोषी माता का व्रत रखता था जिसका उसके दूसरे साथी मजाक बनाते थे।
पिछले पन्द्रह बीस सालों में मुझे कहीं भी संतोषी माता का मन्दिर नजर नहीं आया और ना ही व्रत उपवास किये महिलाओं से मुलाकात हुयी। पुरानी भक्तिन भाभियों से पूछने पर वे हँस कर रह जाती हैं। हिन्दी के सुपरिचित आलोचक श्री राम प्रकाश त्रिपाठी जो मुरैना जिले के मूल निवासी हैं किसी पंडित जी की चर्चा करते हैं जिन्होंने कथा वार्ता का धन्धा मन्दा होने के कारण नवोन्मेष में उक्त कथा रची थी और कथा की पुस्तिकाएं छपवायी थीं और सफल रहे थे। एक दूसरी अफवाह इस कथा की रचना का श्रेय प्रसिद्ध कवि निर्भय हाथरसी को देते हैं जो अच्छी हास्य व्यंग्य कविताओं के साथ साथ इस तरह के नये नये अनूठे कामों के लिए भी जाने जाते थे।
बहरहाल बिहार के विधानसभा चुनावों के कारण देश भर में छा गयी छठ मैया के राष्ट्रीय पटल पर उभर आने व देश के प्रधानमंत्री के शामिल होने के कारण कुछ लोगों ने फेसबुक पर उत्सुकता वश बिहारी मित्रों से छठ मैया की कथा और कथा की शास्त्रीयता के बारे में जानना चाहा, और उन्हें कोई उत्तर नहीं मिला तो मुझे संतोषी माता की याद आ गयी।
असल में यह एक राजनीति भी है, और बिहार विधान सभा के समय ही इसका उभार संकेतक है। भाजपा को इसके सहारे अपनी राजनीति चमकाने का चस्का लग चुका है और उदासीन गैर भाजपा दल इस राजनीति का उत्तर नहीं दे पा रहे या उनकी सोच में ही नहीं है। भाजपा के विकास में 1995 में गणेश मूर्तियों को दूध पिलाने की खबर को देश भर में फैलाने में मिली सफलता के बाद उसने ऐसे कई प्रयोग किये। जन्मभूमि मन्दिर को भगवान राम का मुख्य मन्दिर बना देने और आस्थाओं से राजनीति में सफलता पाकर उसने समस्त आस्था स्थलों और पर्वों को राजनीति के घेरे में समेटना शुरू कर दिया। नगरों के नाम बदलने से लेकर कुम्भ स्नानियों की संख्या को साठ करोड़ तक फैला देने से लेकर काशी और मथुरा आदि के पुराने प्रकरणों को उखाड़ देने का प्रयास भी किया गया। डूबी हुयी द्वारिका से लेकर पर्ची वाले बाबा को छोटा भाई बना लेने व उस स्थान पर राष्ट्रपति को तक ले आने के सफल प्रयास किये गये।
हर लोकप्रिय स्थल को चुनावी मंच बना देने के खिलाफ अगर गैर भाजपा दलों ने कोई प्रयास नहीं किये तो राजनीतिक आर्थिक प्रशासनिक रूप से असफल भाजपा को अभी तक की तरह चुनावी सफलता से सत्ता मिलती रहेगी। हो सकता है कि मेरी कम जानकारी हो किंतु सक्रिय राजनीति में मुझे राजकुमार भाटी या कन्हैया कुमार के अलावा दूसरे लोग मुखर प्रतिरोध करते नजर नहीं आ रहे हैं। वामपंथियों में बहुत नेता है किंतु वे मंचों का स्तेमाल कर पाने की जुगत में सफल नहीं हुये या अनैतिक लोगों के सामने नैतिक होकर लड़ रहे हैं।

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