रविवार, जुलाई 10, 2011

धार्मिक संस्थाओं के खजाने का उपयोग


धार्मिक संस्थाओं के खजानों का उपयोग

वीरेन्द्र जैन

धन, जिसकी मुद्राओं, मूल्यवान धातुओं, और प्रकृति से प्राप्त हीरे मोती रत्नों आदि के रूप में रखे जाने की विश्वव्यापी परम्परा है, आखिर क्या होता है। अर्थशास्त्रियों के अनुसार यह श्रम के मूल्य का हस्तांतरणीय [ट्रांसफरेबिल] प्रमाण पत्र है जो अपनी जरूरत और सुविधानुसार उपयोग करने के लिए मुद्राओं आदि के रूप में जारी किया जाता है। जब यह उसके उचित पात्र तक नहीं पहुँचता है तो वह संचय हो जाता है और पूंजी का निर्माण करता है। इस का कुछ भाग धर्मस्थलों को अर्पित करके संचयी द्वारा अपने अपराधबोध से मुक्ति पाने का प्रयास किया जाता है। जब यह धन उन धर्मस्थलों के व्यय या उसके व्यय की भावी योजनाओं से भी अधिक हो जाता है तो वह वहाँ भी संचय किया जाने लगता है। पुराने समय में आम तौर पर इन स्थलों के प्रति एक अदृष्य भय होने के कारण उस धर्म से जुड़े लोग उसे चुराने या लूटने की कोशिश नहीं करते थे किंतु दूसरे धर्म वाले ऐसे भय से मुक्त होते थे इसलिए धर्मस्थलों में चोरी डकैती और लूट करते रहते थे। अब इतिहास ने सिद्ध कर दिया है कि धर्मस्थलों पर जो हमले होते रहे हैं उन हमलों के कारणों में धार्मिक असहमतियां न होकर धन को लूटने का लालच ही प्रमुख रहा है। जिन राजाओं पर धर्मस्थल तोड़ने के आरोप हैं उन्हीं के द्वारा उसी धर्म के पूजा स्थलों को स्थायी सहायता देने के भी प्रमाण हैं। कई धर्मस्थलों की मूर्तियों और कंगूरों आदि में हीरे मोती छुपा कर रखे जाने के भ्रम में लुटेरों द्वारा उन मूर्तियों और कंगूरों को भी तोड़ कर देखे जाने के उदाहरण मिलते हैं। एक पुराने महल की छज्जों में लगे खम्भों की एक हजार से अधिक मुठियाएं टूटी हुयी देखी गयी हैं जबकि उनका धर्म से कोई सम्बन्ध नहीं था। बताया गया है कि ये टूटफूट इसी भ्रम का परिणाम था।

धर्मस्थलों को दिया गया दान उसके उपयोग के लिए ही चढाया जाता रहा है और राजतंत्र में उस पर उसी धर्मस्थल व उसके पदाधिकारियों का हक होता रहा है, किंतु जब उस धर्मस्थल की आवश्यकता से अधिक धन संचय हो जाये तो उसका क्या उपयोग हो इस बारे में कोई नियम नहीं मिलते। ऐसा इसलिए है कि प्रत्येक धर्म ने अपनी आवश्यकता से अधिक पूंजी संचय को पाप माना है और उसका विरोध किया है। धन का यह संग्रह धर्म विरोधी कर्म माना जाता रहा है तथा धार्मिक कथाओं के नायकों ने हमेशा ही धन और राज्य के प्रति निर्लिप्तता दिखायी है। भारतीय संस्कृति में महावीर, बुद्ध, राम, कृष्ण, शिव आदि जितने भी पौराणिक या ऎतिहासिक नायक हुए हैं सब के जीवन के वे ही भाग स्तुत्य माने गये हैं जिनमें त्याग छुपा है। इसी त्याग से जो विमुख हुआ है उसे पद प्रहार से लेकर अनेक आक्षेप झेलने पड़े हैं, जिसे उन्होंने सिर झुका कर स्वीकार किये हैं। धर्मस्थलों को जो दान दिये जाते रहे हैं वे उन्हें आर्थिक रूप से सम्पन्न बना कर धन जोड़ने के लिए नहीं दिये जाते रहे हैं अपितु त्याग के सन्देश का प्रसार करने हेतु अधिक सक्षम बनाने के लिए दिये जाते रहे हैं। ये बाद की विकृत्तियां हैं जिनमें धर्मस्थलों को दिये गये दान का संचय किया जाने लगा। इसी संचय ने बाद में धर्मस्थलों में अधार्मिक बुराइयों को पैदा किया जिसका नमूना आज के वे सैकड़ों संस्थानों में देखने को मिल रहे हैं जिनमें अनापशनाप ढंग से धन का संचय हो गया है। हमारे भक्त कवियों ने कहा है-

पानी बाढो नाव में, घर में बाढे दाम

दोनों हाथ उलीचिए, यही सयानों काम

जब वे आम गृहस्थ को यह सन्देश दे रहे हैं कि ये धन बढ कर तुम्हारी जीवन रूपी नाव को डुबो देगा, इसलिए इसे घर से बाहर निकालते रहना चाहिए, तो वे धर्मस्थलों में धन के संचय के पक्ष में कैसे हो सकते हैं! यह कितना बड़ा सच है कि जिन धर्मस्थलों में धन बढ रहा है वह उन धर्मस्थलों को डुबोने का ही काम कर रहा है।

महात्मा गान्धी के नेतृत्व में अपने देश को अंग्रेजों से स्वतंत्रता मिलने के पूर्व दुनिया में जहाँ जहाँ सत्ता परिवर्तन हुआ है वह हिंसक ही हुआ है। या तो नये शासकों ने पिछले शासकों के सिर कलम कर दिये हैं या उन्हें जेल में डाल दिया है। उसके बाद राज्य और राज्य की कुल सम्पत्ति और साधनों पर नये शासकों का अधिकार हो गया। किंतु हमारे यहाँ न केवल हाथ मिला कर सत्ता परिवर्तन हुआ अपितु जिन राजे रजवाड़ों के द्वारा अंग्रेज अपना शासन चला रहे थे उन रजवाड़ों के पास उनके महल, वाहन और सम्पत्तियां यथावत बनी रहीं। इतना ही नहीं आजादी के एक लम्बे समय बाद तक उनको प्रिवी पर्स के रूप में मोटी रकम दी जाती रही व उन्हें आम नागरिकों की तुलना में विशेष अधिकार प्राप्त रहे। सम्पूर्ण आजादी के बाद स्थापित लोकतंत्र की सफलता के लिए यह जरूरी था कि सारे नागरिक समान हों और सामंती काल के रजवाड़ों के पास संचयित राज्य की सम्पत्ति पर देश के नये गणतांत्रिक शासन का अधिकार हो। इस सम्पत्ति में रजवाड़ों से जुड़े धर्मस्थल और उनकी सम्पत्ति भी सम्मिलित होगी। यदि यह सम्पत्ति गणतांत्रिक राज्य के पास नहीं जायेगी तो निश्चित रूप से निहित स्वार्थ इसका दुरुपयोग करेंगे। धर्मस्थलों के पास उतनी ही सम्पत्ति होनी चाहिए जितने से उनकी जरूरतें पूरी होती रहें। उन्हें जब भी अतिरिक्त जरूरत होगी तो उनके आस्थावान भक्त उसे पूरी करने में कभी भी देर नहीं करेंगे, इसलिए इसके कारण से उन पर कोई भी संकट नहीं आयेगा। धर्मस्थल और धार्मिक संस्थानों के धन से छोटे छोटे बाँध बनाये जा सकते हैं नये नये जलाशय बनाये जा सकते हैं, वृक्षारोपण करके स्मृति वन विकसित किये जा सकते हैं, पवित्र सदानीरा नदियों को स्वच्छ रखने की योजनाओं को पूरा किया जा सकता है, प्रकृति का विनाश रोका जा सकता है।

धर्म केवल पूजा पाठ ही नहीं होता अपितु अधिक से अधिक प्रकृति के निकट जाना भी होता है। ब्रेख्त ने कहा है कि सुन्दरता संसार को बचायेगी। जरूरी है कि संसार को असुन्दर बनाये जाने के प्रयासों पर रोक लगा कर न केवल उसकी सुन्दरता को बचाया जाये अपितु उसे और अधिक सुन्दर और प्राकृतिक बनाये रखने के प्रयास किये जायें। जब धर्म प्रक्रति से जुड़ता है तो साम्प्रदायिक होने से बचता है। शायर सीताराम कटारिया साबिर लिखते हैं-

पहले धूप हवा को बांटो

उसके बाद खुदा को बांटो

जब हम क्षिति, जल, पावक, गगन, और समीर से जुड़ेंगे तब ही हम एक जीवंत संसार को बचा पाने में सफल होंगे। इसलिए जरूरी है कि या तो सारे धर्मस्थल स्वयं ही अपने संचयित धन से प्रकृति को समृद्ध करने के पुनीत काम में जुट जायें या सुप्रीम कोर्ट इस धन को इन कामों में उपयोग करने के लिए सेवानिवृत्त समाजसेवी न्यायधीशों और प्रशासनिक सेवा से सेवानिवृत्त वरिष्ठ सचरित्र अधिकारियों की समिति गठित करके उक्त प्रकृति व पर्यावरण हितैषी काम के लिए नियुक्त करे। धर्मस्थलों के पास संचयित धन का यही सर्वोत्तम उपयोग हो सकता है।

वीरेन्द्र जैन

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मो. 9425674629

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