शनिवार, मार्च 04, 2017

नारियल और पाइनएप्पल के बहाने इतिहास के झरोखे से

नारियल और पाइनएप्पल के बहाने इतिहास के झरोखे से  
वीरेन्द्र जैन

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने पूर्व घोषित कम सभाएं करने के अपने इरादे को बदलते हुए उत्तर प्रदेश में भी बिहार विधानसभा चुनावों की तरह जरूरत से ज्यादा आम सभाएं कीं। ये चुनाव भी भाजपा ने मुख्यमंत्री उम्मीदवार घोषित किये बिना ही लड़े हैं जिसका मतलब होता है कि या तो उन्हें जीत की कोई उम्मीद नहीं थी या पद के लिए आपस में बड़ी तकरार थी। इससे पूर्व किसी प्रधानमंत्री ने विधान सभा चुनावों के लिए इतना समय नहीं दिया क्योंकि एक आमसभा में ही दिया गया उनका भाषण पूरे देश में प्रचारित हो जाता है। जैसा कि देश और दुनिया के सूचना माध्यमों ने महसूस किया व व्यक्त भी किया है कि अपने भाषणों में मोदी ने दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के सबसे महत्वपूर्ण पद की गरिमा के अनुरूप भाषण नहीं दिये व भाषा में बहुत नीचे उतर गये। उनके चुनावी विरोधियों ने भी उसी अन्दाज में उनके उत्तर भी दिये।
भाजपा अब भी बहुत कमजोर हो चुकी काँग्रेस के साथ ऐसे व्यवहार करती है जैसे वह सत्तारूढ दल हो और भाजपा विपक्ष में हो। इसका कारण यह है कि उन्हें सत्ता दिलाने में उनकी अपनी भूमिका से ज्यादा काँग्रेस की कमजोरियों ने काम किया है। काँग्रेस का भूत अब भी उन्हें सताता है और लगता है कि उनके मन में यह आशंका बनी हुयी है कि जाने कब काँग्रेस अपने अर्जे पुर्जे जोड़ कर फिर से खड़ी हो जाये। काँग्रेस की एकता का इकलौता सूत्र काँग्रेसियों को सत्ता सुख की आदत हो जाना है, जिसे पाने के लिए वे आपस में लड़ते झगड़ते हुए भी थक हार कर एक हो जाते हैं या तत्कालीन सत्तारूढ दल में सम्मलित हो जाते हैं। इस एकता में गाँधी नेहरू परिवार इकलौता सूत्र है जिसके सहारे उनकी माला बिखरने से बार बार बच जाती है।
स्मरणीय है कि इमरजैंसी के बाद जब जनता पार्टी ने श्रीमती गाँधी को घेरना शुरू किया था और शाह आयोग की जाँच के दौरान उन्हें गिरफ्तार भी किया था तब समाचार आया था कि श्रीमती सोनिया गाँधी ने अपने पायलट पति राजीव गाँधी को देश छोड़ने की सलाह दी थी ताकि उनका परिवार झंझटों से बचा रह सके। श्रीमती इन्दिरा गाँधी की विरासत सम्हालने के लिए संजय गाँधी जरूरत से ज्यादा सक्रिय थे और उनके पुनः सत्तारूढ होने में इस सक्रियता की भी प्रमुख भूमिका रही थी। 1980 में संजय गाँधी की असमय मृत्यु के बाद ही राजनीति से उदासीन राजीव गाँधी को श्रीमती गाँधी के विश्वासपात्र की जगह भरने के लिए राजनीति में अनचाहे आना पड़ा था। उन दिनों सुप्रसिद्ध व्यंग्य कवि प्रदीप चौबे ने एक कविता में कहा था-
संजय गाँधी जबरदस्त नेता थे
और
राजीव गाँधी जबरदस्ती नेता हैं
खालिस्तान आन्दोलन के उग्र होने और उसके धर्मस्थलों के दुरुपयोग के विरोध में जब श्रीमती गाँधी ने स्वर्ण मन्दिर में छुपे उग्रवादियों के खिलाफ कार्यवाही की तो उन्हें जान से मारने की धमकियां मिलने लगीं थीं। इन धमकियों की गम्भीरता को समझते हुए और काँग्रेस संगठन की दशा देखते हुए उन्होंने राजीव गाँधी पर जिम्मेवारियां बढा दी थीं। अंततः सुरक्षा बलों के भितरघात से श्रीमती गाँधी की हत्या हुयी और पद की जिम्मेवारियां उठाने में कमजोर व उदासीन राजीव गाँधी को आगे आना पड़ा और पद सम्हालना पड़ा। उनकी कमजोरियों के कारण ही त्यागमूर्ति की तरह प्रकट हुये विश्वनाथ प्रताप सिंह ने विद्रोह कर दिया और विपक्षी दलों के सहयोग से चुनाव में उतर गये। संयोग से चुनाव में उनके जनता दल को पूर्ण बहुमत नहीं मिला। वे सीपीएम व भाजपा के सहयोग से ही सत्तारूढ हो सकते थे। सीपीएम की नीति है कि वह किसी ऐसी सरकार में सम्मलित नहीं होती जिसकी नीतियां उसकी नीतियों से भिन्न हों, भले ही वह न्यूनतम साझा कार्यक्रम के आधार पर बाहर से समर्थन दे दे। यही कारण रहा कि उन्होंने कहा कि हम तो सरकार में शामिल नहीं होंगे और समर्थन भी तब ही देंगे जब भाजपा को सरकार में सम्मलित न किया जाये। वी पी सिंह को ऐसा ही करना पड़ा व सत्ता में आने की योजनाएं बना चुके भाजपा नेतृत्व को बड़ी ठेस लगी, क्योंकि वीपी सिंह की विजय के लिए उन्होंने बहुत मेहनत की थी। यही कारण रहा कि ग्यारह महीने के अन्दर भाजपा ने काँग्रेस के साथ मिल कर मण्डल कमीशन के खिलाफ छात्र आन्दोलन खड़ा कर दिया व छात्रों के आत्मदाह की अनेक बनावटी कहानियां प्रचारित करके पिछड़ों में लोकप्रिय हो चुके वीपी सिंह की छवि को कलंकित करा दिया।
वीपी सिंह के हटने के बाद चन्द्रशेखर प्रधानमंत्री बने व उनसे समर्थन वापिस लेकर काँग्रेस ने मध्याविधि चुनाव करा दिये व इन्हीं चुनावों के दौरान राजीव गाँधी की हत्या हो गई। काँग्रेस की एकता को बनाये रखने के लिए काँग्रेसियों ने सोनिया गाँधी को आगे लाना चाहा किंतु उन्होंने साफ इंकार कर दिया। उस समय राहुल और प्रियंका बहुत छोटे थे। मजबूरन अस्वस्थ नरसिंह राव को काँग्रेस का नेता चुना गया जबकि सही उत्तराधिकारी राजीव गाँधी के प्रमुख सलाहकार रहे प्रतिभाशाली अर्जुन सिंह थे पर उनके पास काँग्रेसजनों का पूर्ण समर्थन नहीं था। कमलापति त्रिपाठी और नारायन दत्त त्रिपाठी के समर्थक उस समय उनके विरोधी थे। प्रधानमंत्री बनते समय नरसिंह राव किसी सदन के सदस्य नहीं थे और सदन के नेता अर्जुन सिंह ही थे। गाँधी नेहरू परिवार की चुम्बक के बिना काँग्रेस बिखरने लगी और कई साल खिचड़ी सरकारों का नेतृत्व देवगौड़ा, इन्द्र कुमार गुजराल, अटल बिहारी आदि ने किया। थक हार कर काँग्रेस को नेहरू गाँधी परिवार के नाम का सहारा लेकर काँग्रेस को बचाने के लिए सोनिया गाँधी के पास जाना पड़ा। उल्लेखनीय है उस समय तक भी वे राजनीति से यथावत उदासीन थीं और देश के प्रधानमंत्री जैसे अति जिम्मेवारी और महत्व के पद को सम्हालने के लिए न तो योग्य थीं और न तैयार थीं। अटलबिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली एनडीए की सरकार में सत्ता सुख भोग चुके भाजपायी इस शून्य को भरने के लिए उतावले थे। इसी बीच सोनिया गाँधी को बदनाम करने के लिए संघ परिवार ने ईसाइयों पर धर्म परिवर्तन का आरोप लगाते हुए चर्चों पर हमले शुरू कर दिये। ईसाई मिशनरियां वही काम कर रही थीं जो वे गत तीन सौ सालों से भारत में करती आ रही थीं। इस अभियान में ईसाई परिवार से आयी सोनिया के काँग्रेस अध्यक्ष बनने को छोड़ कर नया कुछ भी नहीं था। उचित अवसर महसूस करके अटल बिहारी सरकार ने समय से कुछ महीने पहले ही चुनाव करा लिये। दुर्भाग्यवश उनका पांसा गलत पड़ा और एनडीए चुनाव हार गया। उधर काँग्रेस समेत उनके विरोधी दल चुनाव जीत गये व उन्होंने यूपीए का गठन कर लिया। पहले विरोध करने वाले वामपंथियों ने अंततः काँग्रेस के नेतृत्व को उनका आंतरिक मामला मानते हुए सोनिया गाँधी के नाम पर एतराज को वापिस ले लिया। काँग्रेस के पुनुरोद्धार से आशंकित भाजपा ने सोनिया गाँधी के विदेशी मूल का मुद्दा उछाल कर सुषमा स्वराज को सिर घुटाने, चने खाकर रहने, जमीन पर सोने जैसे भावुक तमाशे के लिए तैयार कर लिया तो उनकी तर्ज पर ऐसा करने के लिए उमा भारती भी आगे आ गयीं। देशी विदेशी भावना के नाम पर वे राम जन्मभूमि मन्दिर जैसा कुछ षड़यंत्र रच पाते उससे पहले ही सोनिया गाँधी ने स्थिति की नजाकत को समझते हुए अपनी पगड़ी मनमोहन सिंह को पहना दी। उसके बाद दस साल मनमोहन सिंह कुर्सी सम्हाले रहे जब तक कि राहुल गाँधी एक उम्र तक नहीं पहुंच गये।
राहुल की सम्भावनाओं को देखते हुए उसके खिलाफ भी चरित्र हत्या का सिलसिला बहुत पहले से चलने लगा। कहा जाता है कि मुख्यधारा की प्रैस से लेकर सोशल मीडिया पर भाजपा के कई हजार ट्रोलर वेतनभोगी निरंतर काम करते हैं, जो विरोधियों का मजाक बनाने और गलत अफवाहें फैलाने में सक्रिय रहते हैं। इन्होंने ही पिछले कई वर्षों से राहुल गाँधी को अपरिपक्व, मासूम, खानदानी, आदि आदि के रूप में अयोग्य सिद्ध करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। 2014 के आम चुनाव में राहुल गाँधी काँग्रेस की ओर से प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नहीं थे पर भाजपा से जुड़ा मीडिया उन्हें ऐसा प्रस्तुत कर रहा था व उनकी हास्यास्पद छवि की तुलना मोदी से करके मोदी का कद उभार रहा था। पिछले दिनों नरेन्द्र मोदी ने कहा था कि गूगल सर्च करने पर सबसे ज्यादा चुटकले राहुल गाँधी पर मिलते हैं जबकि सच तो यह है कि उससे आगे सर्च करें तो पता चलेगा कि उन चुटकलों का उद्गम भाजपा के आईटी सैल से ही हुआ है।
‘नारियल का जूस’ भी उसी अभियान का हिस्सा था जिसमें गलत सूचना के कारण मोदी गच्चा खा गये। एक राजनीयिक के रूप में मोदी राहुल से अधिक चतुर अनुभवी और वाक्पटु हैं किंतु उनकी दलीय विचारधारा, संगठन के घोषित अघोषित षड़यंत्रकारी साम्प्रदायिक विभाजनकारी कार्यक्रम और कार्यप्रणाली देश की मेधा को अच्छी नहीं लगती। अगर गूगल पर ईमानदार बुद्धिजीवियों के विचारों को सर्च किया जायेगा तो बहुमत उनके विरुद्ध ही मिलेगा।
चुनाव परिणाम केवल वोटों की संख्या का पता देते हैं।
वीरेन्द्र जैन
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