सोमवार, नवंबर 06, 2017

युवाओं से - अपनी आज्ञा मानो

युवाओं से -
अपनी आज्ञा मानो

वीरेन्द्र जैन
दुनिया के सारे विकास कथित विकास पुरुष के अपने जन्मदाताओं की समझ, सोच, विचार, और आचार से आगे निकलने पर ही सम्भव हुये हैं।
मनुष्य जैसे सभ्य और सामाजिक प्राणी को अपना स्वतंत्र व्यक्तित्व बनाने में लगभग अठारह बीस वर्ष की परिपक्वता जरूरी मानी जाती है। इस दौर में वह प्राथमिक ज्ञान के साथ अपने पूर्वजों द्वारा अर्जित जरूरी ज्ञान को प्राप्त कर चुका होता है। यही वह समय होता है जब उसे अपने खोल से वैसे ही बाहर निकल आना चाहिए जैसे कि चूजा छिलका तोड़ते हुए अंडे से बाहर निकल आता है। द्विज का एक अर्थ यह भी हो सकता है। यह मनुष्य ही है जो भोजन और संतति वृद्धि के अलावा भी जीवन में चिंताएं पालता है और इन्हीं चिंताओं से दुनिया को लगातार पिछली दुनिया से बेहतर बनाता जा रहा है। दुविधा हर उम्र के उन बच्चों की है जो परिपक्वता की उम्र पार कर जाने के बाद भी अपने पूर्वजों की बन्द गुफा से बाहर नहीं निकल पाने को अभिशप्त होते हैं क्योंकि बचपन से ही सिखाया जाता है कि अपने माँबाप की आज्ञा मानो। ये उपदेश एक उम्र तक ही ठीक हैं किंतु उसके बाद ऐसे उपदेश ही हमें कुन्द करते हैं, गुलाम बनाते हैं और इस गुलामी में युवा अपनी उम्र जी ही नहीं पाते। बुजुर्ग उन्हें अपनी तरह ढालना चाहते हैं, अपनी प्रतिलिपि बनाना चाहते हैं। गुलाम या कुण्ठित युवाओं के समाज में यही कारण है कि पिछले एक हजार वर्षों में हम लोगों ने न तो कोई नया अविष्कार किया और न ही कोई ऐसी नई वस्तु का निर्माण किया जिसे देख कर दुनिया हमारी प्रतिभा का लोहा मान जाये। इसके विपरीत हमने प्रतिभा की सम्भावनाओं को यह कह कर धूमिल करने की कोशिश की हमारे पास तो सारा ज्ञान तो पहले से ही था किंतु विदेशी आक्रमणों में वह नष्ट हो गया। अतीत पर झूठा गर्व करते रहने से प्रगति नहीं हो सकती। अगर वह था भी तो अब खो चुका है उसे नये ढंग से अविष्कृत होने दीजिए।
आज जरूरत इस बात की है कि युवाओं से कहा जाये कि माँबाप की नहीं अपनी खुद की आज्ञा मानो। मनुष्य नामक प्राणी को छोड़ कर ज्यादातर प्राणी जन्म के कुछ ही दिनों बाद अपना भोजन स्वयं जुटाने लगते हैं, और स्वतंत्र हो जाते हैं। पालकों की जिम्मेवारी बच्चों को बड़ा करने और शिक्षित करने तक ही होना चाहिए।
अगर समाज को आचरण की प्रेरणा देने वाली पौराणिक कथाओं का उल्लेख करें तो पार्वती, प्रह्लाद, भरत, सुभद्रा, सहित अनेक उदाहरण मिल जायेंगे जिन्होंने अपने पालकों की आज्ञा न मान कर वह काम किया है जो याद किया जाता है। इतिहास पुरुषों में भी बुद्ध, महावीर से लेकर गाँधी नेहरू तक अपने स्वतंत्र विचारों के आधार पर ही इतिहास में जगह बना सके। कला जगत में अधिकांश सफल कलाकारों ने अपने पालकों की सोच से अलग अपना व्यावसायिक और वैवाहिक जीवन स्वयं चुना होता है। लेखकों, संगीतकारों, और फिल्म अभिनेताओं में से अधिकांश की जीवन कथाएं सार्वजनिक हो चुकी हैं। बहुतांश सफल राजनीतिक लोगों ने भी अपना रास्ता स्वयं चुना है। कलाकारों के बारे में तो कहा ही गया है –
लीक लीक गाड़ी चले, लीकहि चले कपूत
लीक छांड़ तीनों चलें, शायर, सिंह सपूत
बुद्ध ने कहा ही है- अप्प दीपो भव। अर्थात अपने दीपक स्वयं बनो।
रजनीश ने एक बार अपने भाषण में कहा था कि किसी महापुरुष के पद चिन्हों पर चलने की कोशिश मत करो। महापुरुष ज़मीन पर नहीं चलते वे तो वायु मार्ग से गति करते हैं इसलिए उनके पद चिन्ह कहीं नहीं बनते। उनके लक्ष्य पर जाने के लिए स्वयं में पंख पैदा करने होते हैं।  
कृषि प्रधान समाज में पिता की आज्ञा मानने के पीछे उत्पादन के साधनों की विरासत पाने का लालच या उससे वंचना का डर भी रहता रहा है। अवज्ञा पर उन साधनों से वंचित होना पड़ सकता है। पुत्र से नाराज पिता अपनी कृषि भूमि और अन्य सम्पत्ति से पुत्र को वंचित भी कर सकता है। जब व्यक्ति श्रमिक बनता है तो वह परिवार से तो स्वतंत्रता अर्जित कर लेता है किंतु उसे मालिकों का गुलाम बनना पड़ता है, और उनके आदर्शों का अनुसरण करना होता है। दूसरी ओर जब समाज में वृद्धावस्था पेंशन न हो व स्वयं काम करने में असमर्थ होने पर उसे अपनी जिन्दगी खतरे में दिखाई देती हो तब उसे संतति के सहारे की जरूरत होती है। वह अर्जित सम्पत्ति के सहारे अपने बच्चों को आजीवन गुलाम बना कर रखना चाहता है व अपने जीवन आदर्श ही पालन करवाना चाहता है। यदि सबको वृद्धावस्था पैंशन हो और स्वास्थ का बीमा हो तो वह अपने बच्चों को आज़ादी दे सकता है। जब बच्चे शिक्षित हो कर अपने पैरों पर खड़े हो जाते हैं तब वे अपना निवास स्थल या अपना जीवन साथी स्वयं चुनते हैं। वे माँबाप के अहसानों को आजीवन गुलाम बन कर नहीं चुकाना चाहते अपितु अपनी तरह उनकी जरूरी वस्तुएं उपलब्ध कराने के बाद भी सैद्धांतिक समझौता नहीं करते और न ही इमोशनली ब्लेकमेल होना चाहते हैं।
जो युवा अपना स्वतंत्र विकास चाहते हैं उन्हें परिपक्व होने के बाद माँबाप की आज्ञा मानने के आदर्श वाक्य से मुक्त होना पड़ेगा। हजारी प्रसाद द्विवेदी ने वानभट्ट की आत्मकथा में कहा है-  किसी से भी नहीं डरना, गुरु से भी नहीं, मंत्र से भी नहीं, लोक से भी नहीं, वेद से भी नहीं।
वीरेन्द्र जैन
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