शुक्रवार, अगस्त 23, 2019

संस्मरण – बाबूलाल गौर वे लोकतांत्रिक प्रतिनिधित्व के सच्चे चेहरे थे

संस्मरण – बाबूलाल गौर
वे लोकतांत्रिक प्रतिनिधित्व के सच्चे चेहरे थे
वीरेन्द्र जैन






 बाबूलाल गौर नहीं रहे।
हमारे संविधान निर्माताओं ने जिस लोकतंत्र की कल्पना की थी, उसके अनुरूप कम प्रतिनिधि ही सामने आये हैं, किंतु बाबूलाल गौर उनसे भिन्न थे। वे हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था के सच्चे प्रतिनिधि थे। वे इतने अधिक पदों पर रहे कि उनके साथ अनेक विशेषण जुड़ते हैं। वे पार्षद से शुरू करते हैं और फिर विधायक, विधानसभा में विपक्ष के नेता, मंत्री, मुख्यमंत्री और फिर मंत्री व केवल विधायक तक पहुँचते हैं किंतु कभी भी पद का अभिमान नहीं रखा। कपड़ा मिल में काम करते हुए जिस ट्रेड यूनियन के नेता का स्वरूप ग्रहण किया था उसे ही हमेशा बनाये रखा। उनसे कभी भी कोई मिल सकता था या वे किसी के भी घर जा सकते थे। यही कारण था कि उन्होंने लगातार विधायक चुने जाने का विश्व रिकार्ड बनाया। जिसे उनकी पार्टी की सदस्यता का पता न हो वह उनके आचरण से पता नहीं लगा सकता था कि वे भाजपा में हैं, काँग्रेस में हैं या किसी समाजवादी दल में हैं। भोपाल में रहने वाले सक्रिय लोगों से उनकी मुलाकात हो जाना सहज सम्भव थी। वे मुझे निजी तौर पर नहीं जानते थे किंतु जब जब भी मुलाकात हुयी तो बातचीत या व्यवहार से ऐसा नहीं लगा कि वे किसी अपरिचित से बात कर रहे हैं। वे हमेशा देशी आदमी की तरह सरल सहज रहे।
यह संस्मरण एक घटना विशेष से जुड़ा है। भूमिका भी बता दूं। मैं बैंक की नौकरी से वीआरएस लेकर 2001 में यह सोच कर भोपाल आया था कि लेखन और पत्रकारिता करने का पुराना सपना पूरा कर सकूं। यहाँ आकर निदा फाजली के शे’र का मतलब समझ में आया – यहाँ किसी को कोई रास्ता नहीं देता / मुझे गिराकर अगर तुम सम्हल सको तो चलो। पहले कभी लोकल अखबारों में सम्पादकीय पृष्ठ पर छपने वाले विचार परक लेख लिखता था, कभी कभी सम्पादकीय भी लिख देता था, सो सोचा था कि जब पूर्णकालिक पत्रकार ही बनना है तो बड़े अखबार में प्रवेश का रास्ता बनाया जाये। दैनिक भास्कर सबसे ज्यादा सरकुलेशन वाला अखबार था। उसमें सम्पादकीय पृष्ठ पर व्यंग्य का कालम आता था सो उससे ही शुरुआत हुयी। उनकी सीमा थी कि वे लगातार किसी एक व्यक्ति को नहीं छाप सकते थे सो मैं महीने में दो तीन बार ही छप पाता था जबकि मैं रोज लिखा करता था। सम्पादक से बात हुयी तो वे एक दो महीने में उस पृष्ठ पर छपने वाले दो मुख्य लेखों में से दूसरा लेख छापने लगे। इससे भी मेरा मन नहीं भरा। उन दिनों पाठकों के पत्र समुचित संख्या में छपते थे और उनमें से एक शिखर पर खास चिट्ठी के रूप में बाक्स में छपता था। इसमें कोई बन्दिश नहीं थी, इसलिए मैं सम्पादकीय की तरह इसमें लगभग नित्य लिखने लगा। यह व्यंग्य और सम्पादकीय का मिला जुला संक्षिप्त रूप होता था। इसे काफी पढा जाने लगा। उन दिनों मेरे पास इंटरनैट सुविधा नहीं थी और मैं अपना पत्र लेकर भरी दुपहरी में भास्कर कार्यालय जाया करता था किंतु अच्छा रिस्पोंस होने के कारण अखरता नहीं था।
इसी बीच दो घटनाएं घटीं। एक बयान में तत्कालीन मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने भाजपा से सवाल पूछा कि सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की परिभाषा क्या है, और दूसरी घटना में भाजपा के पार्षदों के बीच आपस में मारपीट हो गयी जिसमें एक का सिर फट गया। इनको मिला कर मैंने एक व्यंग्यात्मक टिप्पणी लिखी जिसे भास्कर ने खास चिट्ठी की तरह प्रकाशित की। उस समय भाजपा ने गौरी शंकर शेजवार को हटा कर गौर साहब को विपक्ष के नेता की जिम्मेवारी दे दी थी। उनके पास कैबिनेट मंत्री को मिलने वाली सारी सुविधाएं थीं। मेरे पत्र के प्रतिवाद में गौर साहब ने एक लम्बा पत्र लिखा। सम्पादकीय पृष्ठ देख रहे श्री राजेश पांडेय ने मुझे बुला कर वह लेखनुमा पत्र पढवाया। मैंने कहा कि जब पत्र के उत्तर में यह आया है तो इसे पत्र के कालम में ही छपना चाहिए।
पत्रनुमा लेख बड़ा था, इसलिए उसे संक्षिप्त किया गया और पत्र की तरह ही छापा गया। इस पत्र में गौर साहब की प्रतिभा और ज्ञान का परिचय मिलता है।
2005 में मैंने राज्य स्तरीय स्वतंत्र पत्रकार के रूप में अधिमान्यता के लिए आवेदन दिया था। इसमें विलम्ब होने पर मैंने मुख्यमंत्री कार्यालय को शिकायत लिख दी। खुशी है कि मेरी शिकायत पर तुरंत कार्यवाही हुयी और विशेष मीटिंग बुला कर मुझे अधिमान्यता दी गयी।
[ संलग्न तीन कटिंग्स ]

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