सोमवार, जून 22, 2020

संस्मरण के. पी. सक्सेना लेखक नहीं लिक्खाड़ थे


संस्मरण
के. पी. सक्सेना लेखक नहीं लिक्खाड़ थे

वीरेन्द्र जैन
के.पी.सक्सेना पत्रिकाओं के व्यंग्य लेखक के रूप में जाने जाते रहे या कहना चाहिए कि व्यंग्य लेखक के रूप में भी जाने जाते रहे, पर उन्होंने जब भी लिखने का जो लक्ष्य बनाया उसमें सफलता पायी। पत्रिकाओं में निरंतर सक्रिय लेखन की लगन मुझे उनके लेखन से ही मिली और इस तरह वे मेरे मार्गदर्शक रहे। उनके लेखन की मात्रा, विषय वैविध्य और निरंतरता को देख कर आश्चर्य और ईर्षा होती थी।
      मैं एक छोटे ‘ए’ क्लास बैंक हिन्दुस्तान कमर्सियल बैंक में नौकरी करता था और ऐसा करते हुये देश के कोने कोने में पन्द्रह साल के दौरान मेरे दस ट्रासफर हुये, क्योंकि इस बैंक में अधिकारियों के ट्रांसफर पूरे देश में कहीं भी हो सकते थे। इसी काल में मुझे एक बार हरदोई जिले के बेनीगंज में पदस्थ होना पड़ा जो लखनऊ के निकट था, अतः मेरी शनिवार की शाम और रविवार लखनऊ में ही गुजरता था। यशपाल और नागरजी के बाद की पीढी के लखनऊ में समकालीन लेखकों में के पी का नाम सर्वाधिक चमकीला नाम था। वे अमीनाबाद के पास गुईन रोड पर किराये से रहते थे। उन दिनों मुझे लेखकों के पते तक याद रहते थे। लखौरी ईंटों से बना वह बड़े दरवाजे वाला घर था। उनसे पहली मुलाकात करने से पहले मैंने उन्हें जो पत्र लिखा था उसे न मिलना उन्होंने बताया था, पर उसके बाद भी मेरे नाम और लेखन से परिचित होने की जानकारी देकर उन्होंने थोड़ा सुख दिया था जिससे उनके साथ जल्दी सहज हो सका था। बाद में उन्होंने ही मुझे सूर्य कुमार पान्डेय और अनूप श्रीवास्तव आदि से मिलवाया था जिनसे बाद में लम्बा सम्पर्क और मित्रता रही। अभी बाद के दिनों में वे रामनगर में रहने लगे थे जहाँ उनके पड़ोस में नागरजी के पुत्र का मकान था और कभी कभी नागरजी भी वहाँ आते रहते थे। एक बार जब मैं रामनगर में उनसे मिलने गये तो वे मुझे नागरजी से मिलवाने भी ले गये थे।
      वे उन दिनों लखनऊ के चारबाग रेलवे स्टेशन पर स्टेशन मास्टर थे और देश के प्रमुख राज्य की राजधानी के प्रमुख स्टेशन पर कार्यरत रहते हुए भी विपुल लेखन करते थे। उन दिनों आरक्षण की आज जैसी सुविधा नहीं थी तथा मुझे दतिया जाते समय ट्रेन में स्थान दिलाने की व्यवस्था उन्होंने दर्ज़नों बार की। वे ऐसी बातें बताना भी नहीं भूलते थे कि उनके कार्यालय की जिस कुर्सी पर मैं बैठा हूं उसी पर परसों कमलापति त्रिपाठी बैठे थे। ऐसी बातें सुन कर गर्व होता था। उन्होंने मुझे यह भी बताया था कि इतना लेखन करने के बाद भी उन्होंने कभी लेखन के लिए नौकरी से छुट्टी नहीं ली। धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, कादम्बिनी, नवनीत, माधुरी आदि उस समय की राष्ट्रव्यापी लोकप्रिय पारिवारिक पत्रिकाएं थीं जिनके होली. दिवाली, स्वतंत्रता दिवस, गणतंत्र दिवस, आदि अवसरों पर निकलने वाले विशेषांक के पी की रचनाओं के बिना पूरे नहीं होते थे। वे लखनऊ के दो प्रमुख दैनिक अखबारों में साप्ताहिक स्तम्भ लिखा करते थे, और देश भर की हिन्दी की प्रमुख पत्रिकाओं की माँग को पूरा करते थे। जब दूरदर्शन और इतने सारे प्राईवेट चैनल नहीं थे तब आकाशवाणी के हास्य व्यंग्य के रेडियो नाटक बहुत चाव से सुने जाते थे और के पी उनके प्रमुख लेखकों में से एक थे। बाद में उन्होंने टीवी के लिए भी लिखा। हास्य व्यंग्य के नाटकों के अलावा उन्होंने कुछ गम्भीर नाटक भी लिखे हैं जिनमें से एक पर कभी मेरे अनुजसम मित्र इंजीनियर राजेश श्रीवास्तव ने लघु फिल्म बनानी चाही थी। उनसे अनुमति लेने के लिए हम लोग उनके ग्वालियर प्रवास के दौरान प्रदीप चौबे के निवास पर गये थे पर उन्होंने यह कहते हुए अनुमति देने में असमर्थता व्यक्त की थी क्योंकि उस नाटक पर फिल्मांकन की अनुमति वे पहले ही ओमपुरी को दे चुके थे। उस नाटक के कई भाषाओं में हुए अनुवाद और उसके प्रभाव में घटित घटनाएं भी उन्होंने विस्तार से बतायी थीं जिससे उनके व्यक्तित्व के कुछ अनछुये पहलू ज्ञात हुये थे। शरद जोशी के साथ उन्होंने भी कवि सम्मेलनों में गद्य व्यंग्य पाठ प्रारम्भ किया था और अपने क्षेत्र में वर्षों सक्रिय रहे।
      बाद में वे फिल्म लेखन से जुड़े और लगान जैसी बहुचर्चित और बहुप्रशंसित फिल्म भी लिखी जो अनेक राष्ट्रीय पुरस्कार लेने के साथ आस्कर पुरस्कार तक के लिए नामित हुयी थी। पिछले दिनों में कादम्बिनी के पुराने अंक पलट रहा था तो एक अंक में मुझे केपी सक्सेना का नींबू के गुणों पर लिखा एक लेख मिला। उससे मुझे याद आया कि उन्होंने धर्मयुग में रेलवे गार्डों की चुनौतीपूर्ण कार्यपद्धति से लेकर ‘शरबत का मुहर बन्द गिलास- दशहरी आम’ तक पर मुख्य लेख लिखा था। वे वनस्पति शास्त्र में स्नातकोत्तर थे। उन्होंने बच्चों के लिए भी लिखा।
      लखनऊ के दौरान हुयी मुलाकातों के दौर में एक बार उन्होंने कहा था कि वे ऐसे किसी पत्र पत्रिका के लिए नहीं लिखते जो लेखक को पारिश्रमिक नहीं देती। उनका कहना था कि पत्रिका प्रकाशन के क्षेत्र में प्रकाशक को कागज़ वाला मुफ्त में कागज़ नहीं देता, कम्पोज़िंग सैटिंग वाला मुफ्त में काम नहीं करता, मुद्रक अपनी दर से भुगतान लेता है, डाकवाले अपना पूरा शुल्क वसूलते हैं और हाकर अपना कमीशन लेते हैं, तो फिर लेखक ही ऐसा क्यों रहे जो मुफ्त में अपनी रचना दे, और अपना अवमूल्यन कराये। उनके इन विचारों के प्रभाव में मैंने भी कई वर्षों तक ऐसी किसी पत्रिका के लिए नहीं लिख कर अपना नुकसान किया क्योंकि मैं साहित्यिक [लघु] पत्रिकाओं से कटा रहा।
      एक बार वे अमीनाबाद में एक पत्रिका की दुकान पर अचानक मिल गये और तपाक से बोले कि बहुत दिनों से तुम्हरी कोई रचना नहीं पढी, आजकल कहाँ व्यस्त हो! विडम्बना यह थी कि उस सप्ताह और माह की अनेक प्रमुख पत्रिकाओं में मेरी रचनाएं प्रकाशित थीं जिन्हें मैंने वहीं दिखा भी दीं। फिर हँसते हुए बोले कि बुरा मत मानना मैं लिखने और नौकरी में इतना व्यस्त रहता हूं कि दूसरों की रचनाएं कम ही पढ पाता हूं, अब ये सारी रचनाएं पढूंगा। मैं एक बार 1995 के अट्टहास के कार्यक्रम में गया और उन्हें फोन करके पूछा कि क्या वे आ रहे हैं, तो बोले कि मैं तो अट्टहास के कार्यक्रम में तब आऊंगा जब मुझे पुरस्कार मिलेगा। उस वर्ष का पुरस्कार नरेन्द्र कोहली जी को दिया गया था। [याद आ गया तो बताता चलूं कि कोहली जी से मुलाकात में मैंने पहली बार कम्प्यूटर की महिमा जानी थी जब उन्होंने बताया था कि नौकरी से मुक्त होकर वे अपने कमरे में कम्प्यूटर पर ही लिखते हैं और वहीं से फैक्स पर भेज देते हैं। ऐसा करते हुए वे हफ्तों तक घर से बाहर नहीं निकलते। ऐसा ही कर सकने का एक सपना मेरे अन्दर घर कर गया था। ]
      उनकी हस्तलिपि बहुत सुन्दर थी। बिल्कुल टंकित से छोटे सुन्दर और साफ स्पष्ट अक्षरों से उनका लिखा अलग से पहचाना जा सकता था। अपनी व्यस्तताओं के बाद भी वे कभी कभी पत्रों के संक्षिप्त उत्तर देने का समय निकाल लेते थे। उनके व्यंग्यों में लखनऊ की तहज़ीब उफनती थी जिनमें मिर्ज़ा नामक एक पात्र तो लखनऊ की मिलीजुली संस्कृति और मुहब्बत से सराबोर नौक झोंक का प्रतीक बन गया था। कभी चकल्लस के कार्यक्रम में हेमा मालिनी की उपस्थिति को गौरव के साथ बताने वाले के पी को बाद में अनेक पुरस्कार मिले। पुरस्कारों सम्मानों ने उनके दायित्व को बढाया और पद्मश्री मिलने के बाद उन्होंने ‘लगान’ जैसी फिल्म लिखी, जिसने अंतर्राष्ट्रीय ख्याति अर्जित की। अटल जी की सरकार में जिस वर्ष उन्हें पद्मश्री मिली थी उसके कुछ ही पहले उन्होंने भाजपा की सदस्यता ली थी। मैंने आदतन उन्हें बधाई देते हुए भी पत्र में अपना असंतोष व्यक्त किया था।   
      उनकी रचनाओं के संकलनों के पुस्तकाकार प्रकाशन तो बहुत हुये किंतु उन्होंने जो भी लिखा वह फुटकर ही लिखा। किताब के लिए लिखी गयी उनकी किताबें कम ही होंगीं। वे सरल, सहज, बोधगम्य और रोचक लिखते थे। उनकी रचनाएं एक बार में ही पढी जाने वाली संतुलित आकार की होती थीं। हरिशंकर परसाई, श्रीलाल शुक्ल, शरद जोशी और रवीन्द्र नाथ त्यागी, के बाद व्यंग्य लेखन में जो नाम अपना स्थान बना रहे थे केपी का नाम भी प्रमुख नामों में एक है।
      श्री से. रा. यात्री की तरह ही वे अपने नाम के संक्षिप्तीकरण से ही इतने विख्यात थे कि बहुत ही कम लोगों को पता होगा कि के.पी का पूरा नाम कालिका प्रसाद सक्सेना था जो किसी किताब या पत्र पत्रिका में कभी नहीं लिखा गया। जब भी उनका समग्र लेखन रचनावली के रूप में प्रकाशित होगा तो वह आकार में अनेक रचनावलियों को पीछे छोड़ देगा।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.]
मो. 09425674629               


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