रविवार, सितंबर 11, 2022

स्मृति पखवाड़ा ; मेरी स्मृतियों के खजाने में बसे लोग

 

स्मृति पखवाड़ा ; मेरी स्मृतियों के खजाने में बसे लोग


वीरेन्द्र जैन

देशी कलेन्डर के हिसाब से आज पितृपक्ष का पहला दिन है। मेरे लिए यह इसलिए भी विशेष है कि मेरे तीन जन्मदिनों में से एक यह भी है। मेरी माँ इस दिन को ही मेरे जन्मदिन के रूप में याद रखे थी। कभी बचपन में इस दिन को मेरी माँ मुहल्ले की कुछ महिलाओं को बुला कर गीत गववाती थी और उन्हें एक एक कटोरी बताशे देती थी। यह सिलसिला मेरे चार या पाँच साल के होने तक ही चला होगा। उसके बाद लगभग पचास साल तक कोई आयोजन नहीं हुआ।

पता नहीं कि कब कैसे स्कूल में मेरी जन्मतिथि बदल गयी और यह 12 जून हो गयी। कभी अंग्रेजी कलेन्डर से अपने जन्मवर्ष में पितृपक्ष के पहले दिन की तलाश करायी तो वह 8 सितम्बर निकली। इस तरह मेरे तीन जन्मदिन हुये। अगर यह खुशी का दिन होता है तो मुझे तीन गुना खुशी मिलना चाहिए थी किंतु किसी एक जन्मदिन को भी खुश होने का कोई कारण समझ में नहीं आया। स्न 2000 में जब मैं नौकरी छोड़ कर भोपाल आकर रहने लगा तो एक उत्सवधर्मी मित्र जब्बार ढाकवाला को कुछ वर्षों तक पार्टी करने के एक और बहाने के रूप में मेरा स्कूली जन्मदिन मिल गया था। वे आई ए एस अधिकारी थे इसलिए इस दिन के सारे फैसले और इंतजाम वे खुद करते थे। 2010 में एक कार दुर्घटना में उनकी और उनकी पत्नी की मृत्यु हो जाने के बाद मेरा जन्मदिन फेसबुक तक ही सीमित होकर रह गया जिसमें शुभकामना सन्देशों के साथ साथ कभी कोई गुब्बारे, गुलदस्ते, या मोमबत्ती वाले केक के फोटो भी नत्थी कर देता है।

आज के दिन मैं थोड़ा अधिक ही भावुक हो रहा हूं। कारण यह है कि पिछले दिनों मेरा इंटरनैट लम्बे समय तक खराब रहा और मैंने अपना समय पुरानी रचनाओं व पोस्टों पर दृष्टि डाल कर बिताने की कोशिश की। इस कोशिश ने मुझे तब डरा दिया जब श्रद्धांजलि फाइल में मैंने पाया कि मेरी जिन्दगी में आये कितने सारे लोग इस दुनिया से जा चुके हैं और उनकी जगह भरने वाला कोई नहीं मिला। नैट जुड़ने के बाद जब और सर्च की तो सूची और बढ गयी।

सोचा कि आज का दिन उन लोगों को याद करने की कोशिश करूं जो दुनिया से जाकर भी मेरे दिल में ऐसी स्मृति बना कर गये हैं जो जिन्दगी भर बनी रहेगी। पिछले पन्द्रह सालों में नहीं रहे लोगों के निधन पर मैंने ब्लाग या फेसबुक पर श्रद्धांजलि लेख, टिप्पणियां या संस्मरण लिखे हैं।

सबसे पहले तो मैं अपने पिता [1975]  माँ,[1994] चाचा [2006]  बड़ी बहिन, [2014] दो बहनोई [2008 एवं 2017], एक भांजे [1997] और एक भांजे दामाद [2020]  को याद करना चाहूंगा जिसमें से कुछ असमय और बहुत जल्दी चले गये। ये मिले हुए रिश्ते थे व इनका मूल्य उनके जाने के बाद ही समझ में आया। उन पर कुछ अलग सा लिख रखा है।

कुछ ऐसे वैचारिक मित्र थे जो उम्र में तो एक, पौन या आधी पीढी बड़े थे किंतु मित्रता मानते थे और उसी स्तर पर विचार विमर्श करते थे, इनमें वंशीधर सक्सेना, राम प्रसाद कटारे, दाउ साहब भूपेन्द्र सिंह याद आते हैं।

अर्जित रिश्तों में विभिन्न कालखण्डों में बन गये मित्र, साहित्यकार, पत्रकार, वैचारिक साथी, कार्यालयीन सहयोगी, सामाजिक कार्यकर्ता आदि रहे। इनमें से प्रत्येक के जाने के साथ साथ में निर्बल होता गया।

कुछ मेरी पसन्द के विचारक, साहित्यकार, और कलाकार थे जो मेरे प्रिय थे, आदर्श थे। उनसे कभी निकटता नहीं रही, वे मुझे नहीं जानते थे किंतु मैं उन्हें उनके योगदान के कारण उस हद तक जानता था जिस हद तक उनके बारे में सार्वजनिक होता रहा। इनमें ओशो रजनीश, अमृताप्रीतम, भीष्म साहनी, हरिशंकर परसाई, दुष्यंत कुमार, रवीन्द्र नाथ त्यागी, मुश्ताक अहमद यूसिफी, अहमद फराज, निदा फाज़ली, हबीब तनवीर, बलवीर सिंह रंग, कृष्ण बिहारी नूर, राहत इन्दौरी, गोपलदास नीरज आदि रहे। [ वैसे भीष्म साहनी और परसाईजी से सामान्य पहचान और कुछ मुलाकातें रहीं, कभी नीरज जी का बड़ा प्रशंसक रहा, अनेक मुलाकातें रहीं, किंतु मेरे जैसे उनके न जाने कितने हजार  प्रशंसक रहे होंगे, इसलिए वे मुझे निजी तौर पर याद कर सकते हैं, इस बात में हमेशा सन्देह रहा ] मेरे वैचारिक आदर्शों में कामरेड सव्यसाची, मुकुट बिहारी सरोज, शीलजी, ऐसे थे जो मेरे बारे में थोड़ा सा जानते थे, उनसे अपने सुख दुख बाँट सकता था और वे घर के बड़े बुजुर्ग की तरह सलाह भी देते थे। उनसे परिचय एक आश्वस्ति देता था। धर्मवीर भारती, रामावतार चेतन, कमलेश्वर, राजेन्द्र यादव, सुरेन्द्र प्रताप सिंह, कैलाश सेंगर, दक्षिण समाचार के सम्पादक और कल्पना के सम्पादकीय विभाग के पूर्व वरिष्ठ सम्पादक मुनीन्द्रजी का आत्मीय स्नेह मिलता रहा। उम्र में बड़े वैचारिक साथी वेणु गोपाल ने भी कुछ अमिट छापें छोड़ी हैं। इसी दौर में वरिष्ठ कवि ओमप्रकाश ‘निर्मल’ और कन्नड़ भाषी व्यंग्य लेखक एम उपेन्द्र, प्रभु जोशी का प्रेम भी मिला। हैदराबाद में जिन लोगों से परिचय हुआ था उनमें एक मित्र बालकृष्ण ‘रोहिताश्व’ भी थे जो गोवा विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हो गये थे। दो बार की गोवा यात्रा में उन्होंने मेजबान की तरह व्यवहार किया था विश्व विद्यालय में मुझे अपने विचार व्यक्त करने का अवसर दिया था दो साल पहले अचानक ही उनकी म्रत्यु की खबर मिली। नईम जी तो जितने मिले, हमेशा बहुत अपने लगते रहे।   

मैं गर्व से कहता रहा हूं कि मुझे काका हाथरसी, निर्भय हाथरसी, अदम गोंडवी, माणिक वर्मा, जैसे वरिष्ठ अखिल भारतीय कवियों व शरद जोशी, शंकर पुंताम्बेकर और केपी सक्सेना जैसे लेखकों का साथ मिला और वे मुझे कवि साथी से कुछ अधिक ही जानते रहे। दतिया के साहित्यकारों में मुझे वासुदेव गोस्वामी, डा. सीता किशोर खरे, राधारमण वैद्य, राम रतन अवस्थी, का स्नेह मिलता रहा।  कामता प्रसाद सड़ैया, दिनेश चन्द्र दुबे  श्रीवास्तव व जगदीश सुहाने भी सम्मानीय मित्रों में से थे।  

समकालीनों में लोकप्रिय लोगों को निजी मित्र बताना, कम लोकप्रिय लोगों को अच्छा लगता है, उस पर भी अगर उनसे उदार व्यवहार मिले तो वे जितने होते हैं उससे भी अधिक अपने लगने लगते हैं। साहित्य के क्षेत्र के ऐसे प्रतिष्ठित लोगों में जो दुनिया में नहीं रहे मुझे अक्षय कुमार जैन, कमला प्रसाद, भगवत रावत, स्वयं प्रकाश, श्याम मुंशी, राजेन्द्र अनुरागी, जब्बार ढाकवाला, अंजनी चौहान, विनय दुबे, विनोद तिवारी, रमेश यादव, शिव कुमार अर्चन, प्रदीप चौबे, हरिओम बेचैन, जहीर कुरेशी, राम अधीर, महेन्द्र गगन, बनाफर चन्द्र, चित्रकार किशोर उमरेकर, पत्रकार राजेन्द्र जोशी का स्नेह मिला।    

मेरे निजी दोस्त जो परिवार के लोगों से भी अधिक होते हैं, को भी मैंने खोया। इनमें से एक थे ओम प्रकाश गोस्वामी जो मुझे दिल से समझते थे, का बहुत महत्व था। मैंने पैसा नहीं कमाया, जबकि ओम प्रकाश ने कमाया था और मुझे भरोसा था कि किसी आपत्ति काल में वह मेरे लिए हाथ नहीं सिकोड़ेगा। वह असमय चला गया।  दूसरा बड़ा नुकसान हरीश दुबे की मृत्यु से हुआ, वह ऐसा दोस्त था जिसके सामने दिल और दिमाग खोल कर कैसी भी बात की जा सकती थी। वह उम्र से छोटा था किंतु दिल से बहुत बड़ा था, यही भावुकता उसे ले बैठी। एक बहुत ईमानदार मित्र प्रतिपाल सिंह पाली था। कनाडा चला गया था, किंतु,  अपनी माँ और बहिन के लिए लौट कर आ गया था और अपनी कमाई हुयी धन राशि अपनी भलमनसाह्त के कारण लुटाता रहा। अचानक ह्रदयाघात का शिकार हो गया। छतरपुर के एक प्रमोद पांडे थे जो प्रगतिशील लेखक संघ के राष्ट्रीय महासचिव रहे कमला प्रसाद जी के भाई थे किसी भावुकता में आत्महत्या कर बैठे और खबर सुन कर उनकी पत्नी ने भी जान दे दी। जब मैं हरपालपुर में था तो वही एक थे जिनसे वैचारिक साम्य था। जब भी सरकारी काम से छतरपुर जाना होता तो उन्हीं के घर में ठिकाना होता और देर रात तक बातें होती रहतीं। उनकी पत्नी भी विदुषी थीं। दतिया में शम्भू तिवारी की कार्यशैली से लगता था कि उनके साथ मिल कर स्थानीय स्तर पर एक वामपंथी आन्दोलन खड़ा किया जा सकता है किंतु उनकी दबी हुयी महात्वाकांक्षाएं उन्हें पहले काँग्रेस और फिर भाजपा तक ले गयीं, बाद में उन्होंने अनेक तनावों में घिर कर खुद को गोली मार ली थी। बैंक की नौकरी करते हुए मैं अपने विचारों को छद्म नाम से एक स्थानीय अखबार में व्यक्त करता था। उसके प्रकाशक सम्पादक रमेश मोर भी पिछले वर्षों में नहीं रहे। दतिया के प्रतिष्ठित वस्त्र व्यापारी और मेरे सहपाठी रहे मोहन गन्धी को उनकी पत्नी और रिश्तेदार सहित कोरोना ने लील लिया। कोरोना में ही मेरे एक चचेरे भाई भी नहीं रहे।  

मैं जो सपने लेकर भोपाल आया था उनको 2001 में कामरेड शैलेन्द्र शैली की मृत्यु से बहुत धक्का लगा और वे चकनाकूर हो गये। शैली जैसे युवा प्रतिभावान, ऊर्जावान, व्यवहारिक, खुशमिजाज नेता की आत्महत्य से भोपाल आने की योजना बिखर गयी थी, विश्वास डिग गया था। किसी तरह पत्रकारिता की एक दूसरी लाइन पकड़ी थी कि जब्बार ढाकवाला और उनकी पत्नी की दुर्घटना में मृत्यु ने फिर मुझे तोड़ दिया। मैंने तब कहा था कि उसके साथ आधा तो मैं मर गया हूं, और यह सच भी था।

वीरेन्द्र जैन

2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड

अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023

 

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