फिल्म समीक्षा – सितारे जमीं पर
फिल्मी सितारों के बिना फिल्म बनाने वाला सितारा – आमिर खान
वीरेन्द्र जैन
पीके, दंगल, लगान, तारे जमीं पर जैसी फिल्में और
सत्यमेव जयते जैसा टीवी शो बनाने वाले आमिर खान ने सामाजिक चेतना को झकझोर देने
वाली एक और फिल्म बनायी है ‘सितारे जमीं पर’। आमिर की फिल्में हिन्दी सिनेमा की
रूढियों को तोड़ते हुए बनती हैं। सितारों की लोकप्रियता के आधार पर फिल्म खींचने की
परम्परा से बाहर निकल कर कथ्य के आधार पर फिल्में बनाते हैं जिनमें समाज की सच्चाई
सामने आती है। इन फिल्मों से दर्पण देखने के बाद समाज अपने चेहरे की कमियों को
पहचान कर उसे ठीक करने के लिए प्रेरित हो सकता है। वे उस दर्शक वर्ग की पसन्द के
फिल्मकार हैं जो समाज में अच्छी सोच के साथ बदलाव चाहता है और अपेक्षाकृत ईमानदार
है।
फिल्म निर्माण एक ऐसा व्यवसाय है जिसमें लागत
बहुत लगती है और मुनाफा अनिश्चित रहता है। यही कारण है कि आम निर्माता ऐसी मनोरंजक
फिल्में बनाता है जो उत्तेजना या सतही संवेदनाओं को उभार कर बाक्स आफिस पर कमाई कर
सके और अपनी लागत निकाल सके। आमिर खान इन से अलग हैं। ‘तारे जमीं पर’ की सफलता के
बाद वे चाहते तो फिल्म का नाम ‘तारे जमीं पर -2’ रख सकते थे किंतु ‘ लीक छांड़
तीनों चलें, शायर सिंह सपूत ‘ की तर्ज पर उन्होंने फिल्म का नाम सितारे जमीं पर
रखा जबकि कथ्य उससे मिलता जुलता है। आमिर खान राज कपूर परम्परा के एक बड़े अभिनेता
हैं, सफल हैं, लोकप्रिय हैं, और मनोरंजन को फिल्म की कथा से ही निकालते हैं उसे
अलग से नहीं चिपकाते।
लगभग अस्सी प्रतिशत हिन्दी फिल्मों में नायक
नायिका की शादी को जीवन की अंतिम उपलब्धि मानते हुए फिल्म को पूरा करते हैं किंतु
राज कपूर ने कभी इस तरह से फिल्म को समाप्त नहीं किया। इस फिल्म में आमिर खान ने
शादी को हैप्पी एंडिंग की तरह तो लिया है, किंतु नायक नायिका की शादी को नहीं
अपितु नायक की परित्यक्ता माँ की घर के बाबर्ची के साथ शादी को दिखाया है। एक परित्य्कता माँ जिसने अपने बेटे को आठ वर्ष
के उम्र से माँ और बाप दोनों की भूमिका निभाते हुए बड़ा किया है, का भी अपना जीवन
है। जैसे नायक की माँ अपने कम लम्बाई के बेटे को पाल कर उसे बास्केट बाल का खिलाड़ी
और फिर कोच बनाती है, तो उसका भी दायित्व बनता है कि वह अपनी माँ की भावनाओं का
खयाल रखे।
परिवार में बच्चा होने या न होने के बारे में
नायक और उसकी पत्नी में मतभेद है। नायक बच्चा नहीं चाहता जबकि उसकी पत्नी चाहती
है। इस मतभेद पर नायक घर छोड़ देता है, किंतु परित्यक्ता का दर्द समझने वाली माँ
अपना बुटिक का व्यवसाय बहू को सौंप देती है। फिल्म का सबसे बड़ा सन्देश यह है कि
जिसे हम नार्मल समझते हैं, वह सबके लिए नार्मल होना जरूरी नहीं। सबका अपना अपना
नार्मल होता है और जब हम अपने नार्मल को दूसरे के ऊपर लादने की कोशिश करते हैं,
वहीं से समस्या पैदा हो जाती है। कई हादसों से गुजर कर नायक को समझ में आता है कि
वह अहंकारी [ इगोइस्ट ] है और अपने नार्मल को दूसरे के नार्मल पर लादना चाहता है।
इसी कारण से उसका संस्थान के अपने सीनियर से झगड़ा होता है, मारपीट होती है, जिस पर
दण्ड मिलने की उत्तेजना में वह शराब पीकर गाड़ी चलाते हुए कई लोगों की गाड़ी को ठोक
देता है, जिसमें पुलिस की गाड़ी भी होती है। उसका चालान कटता है और कोर्ट से उसे
सजा मिलती है जो जुर्माने के साथ साथ तीन महीने की कम्युनिटी सर्विस की होती है व
उसकी विशेषज्ञता देखते हुए मानसिक विकलांग बच्चों को बास्केट बाल की कोचिंग देने
की होती है। इन बच्चों में से एक सजा देने वाली मजिस्ट्रेट का भतीजा भी होता है।
भिन्न भिन्न तरह की पृष्ठभूमि से आये हुए बच्चों
के अपने अपने काम्प्लेक्सेस होते हैं। कोई रंग के कारखाने में काम करता है, तो कोई
होटल में बर्तन मांजता है, किसी की माँ प्रास्टीट्यूट है, एक पशु प्रेमी लड़का
नहाने से डरता है क्योंकि वह डूबते डूबते बचा है, एक नाटी और मोटी लड़की स्वभाव से
हिंसक है और बार बार चेतावनी देती रहती है कि मुझे लाइन मत मारना, एक लड़का जो बहुत
अच्छा खिलाड़ी है किंतु नेशनल चयन में पक्षपात हो जाने के कारण उदासीनता का शिकार
हो जाता है। इन सब की अपनी अपनी प्रतिक्रियाएं हैं, और उन्हें एक टीम में समेटना
तराजू में मेंढक तौलने की तरह है। उन्हें खिलाने के लिए सार्वजनिक बस में चंडीगढ
ले जाते समय उनकी हरकतों से यात्री डर जाते हैं और ‘पागलों’ को साथ ले जाने से मना
कर के बीच रास्ते में ही उतार देते हैं। बच्चों को पागल कहने पर कोच [आमिर खान] का
झगड़ा हो जाता है। रास्ते से ही वह अपनी पत्नी को फोन कर किसी गाड़ी की व्यवस्था
करने को कहता है, जिससे उनका रुका हुआ संवाद शुरू होता है। इसी संवाद से उसे समझ
में आता है कि वह इगोइस्ट है और सबका अपना अपना नार्मल होता है क्योंकि सबकी
परिस्तिथियां भिन्न भिन्न हैं। जब बास्केट बाल की टीम फाइनल में पहुँच जाती है तो सेवा
संघ का मैनेजर बताता कि उनके पास इतने पैसे नहीं हैं कि टीम को मुम्बई भेज सकें।
मजबूरन कोच को कभी अभिनेत्री बनने की इच्छा रखने वाली पत्नी को पुलिस इंस्पेक्टर
की भूमिका में लाकर मजदूरों का शोषण करने वाले होटल मैनेजर पर दबाव बनाना पड़ता है
जिससे वह बच्चों को मुम्बई भिजवा दे।
इसी क्रम में आम हिन्दी फिल्मों की तरह का संयोग
भी जोड़ा गया है जिसमें आश्रम जाने का कह कर बाबर्ची के साथ गयी उसकी माँ उसी होटल
में टकरा जाती है और उसका राज खुल जाता है। आमिर क्रोधित होता है किंतु उसकी पत्नी
मामले को शांत करती है। वह इसे उनका नार्मल मानने को मजबूर हो जाता है।
फाइनल मैच में बच्चे बहुत अच्छा खेलते हैं किंतु
अंत में हार जाते हैं। वे हार पर भी खुश हैं और उनमें से एक कहता है कि मेरी माँ
कहती है कि दो एक से बड़ा होता है। हमेशा जीतने और एक नम्बर पर होने की वासना से
भरा कोच बच्चों की खुशी में अपना दुख भूल जाता है और सब खुशी मनाते हैं। इसी खुशी
के माहौल में उसकी माँ और बाबर्ची की शादी हो जाती है।
फिल्म में तेज कार चलाने वाले, जल्दी गुस्सा हो
जाने वाले कोच का लिफ्ट में जाने से डरना चरित्र मे अस्वाभाविकता पैदा करता है,
फिर भी परोक्ष में फिल्म देश की विविधता को स्वीकार कर एकता का सन्देश देती है। एक
नई नैतिकता अपनाने और पितृसत्ता के दोषों से मुक्त होने का सन्देश भी देती है। कुल
मिला कर एक वर्ग विशेष के लिए आमिर खान की फिल्मों की श्रंखला में एक और अच्छी
फिल्म है। आमिर खान तो अभिनय में हमेशा की तरह लाजबाब हैं ही, जेनेलिया में बहुत
सम्भावनाएं नजर आती हैं, उनकी गिनती इस फिल्म से बड़ी अभिनेत्रियों में होने लगना
तय है।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023