शनिवार, अप्रैल 11, 2009

क्योंकि उनका नाम नईम था

श्रद्धांजलि
क्योंकि उनका नाम नईम था
वीरेन्द्र जैन
नईम जी नहीं रहे। उनकी मृत्यु अप्रत्यािश नहीं थी अपितु प्रतीक्षित थी।
प्रसिद्ध युवा व्यंग्यकार ज्ञान चतुर्वेदी जिन्होंने अपना व्यंग्य उपन्यास उन्हें ही समर्पित किया था व लिखा था 'पिता तुल्य नईमजी को सादर'। ज्ञान एक अच्छे साहित्यकार ही नहीं अच्छे डाक्टर भी हैं और ह्रदय रोग विशोषज्ञ हैं। मैंने जब नईमजी की बीमारी और उनके अस्पताल में भरती होने की खबर पढी तो सबसे पहला हाथ मेरा टेलीफोन पर ही गया तथा ज्ञान चतुर्वेदी को फोन लगा कर पूछा तो जैसा कि विशवास था उन्हें न केवल पूरी जानकारी ही थी अपितु उनकी पल पल की खबर वे रख रहे थे। उस समय भी ज्ञान का कहना था कि अब वे जिस दशा में हेैं उसमें उन्हें कोई चमत्कार ही बचा सकता है अगर अस्पताल से ठीक होकर वापिस भी आ गये तो भी जीवन निर्जीव सा ही रहेगा। ज्ञान अपने चिकित्सकीय पेशे में भावुक नहीं होते अपितु यथार्थ को बहुत साफ साफ कहते हेैं। वे कम ही लोगों को सम्मान दते हैं पर नईमजी को पिता के समान सम्मान देते थे जिसका मैं प्रत्यक्ष गवाह हूँ। पर उस यथार्थ का वे भी क्या करते जो सामने था और उनकी मेडिकल साइंस में साफ दिख रहा था।
एक दूसरे कवि मित्र राम मेश्राम जो मध्यप्रदेश शासन से एक वरिष्ठ अधिकारी के रूप में सेवानिवृत्त हो चुके हैं व अपने सहकर्मी- अधिकारियों के स्वभाव के विपरीत अपनी ईमानदारी, निष्पक्षता, भावुकता और दूसरों की नि:स्वार्थ सहायता के लिए लगभग बदनाम हैं, को फोन लगाया तो पता चला कि खबर उन्हें भी पहले से ही है व संस्कृति सचिव से मिल कर उनकी सहायता के लिए आवेदन भिजवा चुके हैं व उन्हें उम्मीद है कि सहायता स्वीकृत भी हो जायेगी।
एक तीसरे व वरिष्ठ अधिकारी मित्र को फोन लगाकर सूचना दी और जानना चाहा कि यदि आजकल में उनका इंदौर का दौरा होने वाला हो तो मैं उनके साथ इंदौर तक की लिफ्ट लेकर नईमजी को देख आना चाहता हूँ। उनका उत्तर था कि वे परसों ही होकर आये हैें व उनकी दशा अच्छी नहीं कही जा सकती। ये कुछ उदाहरण हिन्दी के िशिखरतम नवगीतकार नईमजी की लोकप्रियता और रिशतों के हैं। मैं स्वयं अपने को उनके निकट मानता था पर अगर सूची बनायी जाये तो यह कई हजार तक जा सकती है व इस पंक्ति में कौन कहाँ खड़ा होगा यह कहना बहुत कठिन है।
इस बीच में खबर आती है कि श्री राम मेश्राम के प्रयास सफल हुये हैं व शासन ने नईमजी की स्वास्थ सहायता के लिए एक लाख रूपये की रािश स्वीकृत कर दी है। इस खबर आने के अगले ही दिन बाद मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री द्वारा नईमजी को देखने जाने व वहीं उक्त रािश विधिवत घोषित होने की खबर आती है जिससे संतोष मिलता है कि प्रति दिन हजारों रूप्यों में होने वाले खर्च से कुछ तो राहत मिलेगी। चारण किस्म के कुछ संस्थाबाज अपने आयोजनों में मुख्यमंत्री, संस्कृतिमंत्री और संस्कृति सचिव की जयजयकार करने लगते हैं।
पर यह संतोष का भाव ज्यादा दिन नहीं ठहरता क्योंकि आठ दस दिन बाद ही खबर आती है कि सहायता नहीं पहुँची और उसे आचार संहिता लगने तक विलंबित किया गया व बाद में आचारसंहिता का बहाना बना लिया गया। मध्यप्रदेश में इन दिनों जो सरकार है उससे ऐसी हरकत की ही उम्मीद की जा सकती थी। और हो भी क्यों न क्योंकि नईमजी जिस लेखन के लिए देश भर में जाने जाते थे वह किसी फासिस्ट सरकार को हजम होने वाली चीज नहीं है। उनके गीतों की कुछ पंक्तियों से यह स्पष्ट हो जायेगा-
1
वो तो ये है कि अबोदाना है
बरना ये घर कसाई खाना है
आप झटका, हलाल के कायल
जान तो लोगो मेरी जाना है
2
काशी साधे नहीं सध रही
चलो कबीरा मगहर साधो
सौदा सुलफ कर लिया हो तो
उठ कर अपनी गठरी बांधो
इस बस्ती के बािशिंदे हम
लेकिन सब के सब अनिवासी
फिर चाहे राजे रानी हों
या फिर चाहे हों दासी
कै दिन की लकड़ी की हांड़ी
क्योंकर इसमें खिचड़ी रांधो

राजे बेईमान
बजीरा बे पेंदी के लोटे
छाये हुये चलन में सिक्के
बड़े ठाठ से खोटे
ठगी पिंडारी के मारे सब
सौदागर हो गये हताहत
चलो कबीरा
ठगुये तस्कर साधो
काशाी साधे नहीं सध रही
चलो कबीरा मगहर साधो
3
प्यासे को पानी
भूखे को दो रोटी
मौला दे! दाता दे
आसमान की बात न जानूँ
जनगण भाग्य विधाता दे

धरती और आकाश न मांगूं
या ईशवरीय प्रकाश न मांगूं
मांगे हूँ दो गज जमीन बस
मैं शााही आवास न मांगूं
पावों को पनहीं
परधनियां मोंटी सोंटी
सिर को साफा छाता दे
4
चिटठी पत्री खातोकिताब
रब्बा जाने!
सही इबादत के मौसम
कब फिर आयेंगे
रब्बा जाने!
चेहरे झुलस गये कौमों के लू लपटों में
गंध चिरायंध की आती छपती रपटों में
युद्धक्षेत्र से क्या कम है ये मुल्क हमारा
इससे बदतर
किसी कयामत के मौसम
कब फिर आयेंगे
रब्बा जाने!

अब आप ही बताइये कि ऐसे गीत लिखने वाले नईम साहब को इलाज कराने के लिए वह सरकार क्यों आगे आयेगी जो अपना सारा ध्यान समाज को बांटने में लगाना चाहती है जिसने अरबों रूप्यों की जमीन उन स्कूलों और संस्थाओं को दी है जो नफरत फैलाने के उद्योग चला रही हैं व जिसकी सारी राजनीति ही समाज को बांटने पर टिकी हुयी है। ढीलाढाला पापलीन का पाजामा कुर्ता पहिनने वाले नईम साहब किसी दुकान के बनिये से नजर आते थे भले ही वे कालेज के प्राचार्य रह चुके हों, उनके सारे ही गीत विशूुद्ध हिंदी के गीत हों और जो अपने छूट गये बुन्देलखण्ड की याद को मालवा की धरती पर भी भुला न पाये हों। जिनको अपने सगे रिशतों से भी बढ कर सम्मान देने वालों में देश के वे बड़े से बड़े साहित्यकार हों जो जिनका जन्म गैर मुस्लिम परिवार में हुआ हो। सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार शारदजोशीी जिनके सगे साढू भाई हों और साम्प्रदायिक मुसलमान इसलिए तक नाराज हो जाते हों कि उनकी लड़की बिन्दी क्यों लगाती है। जो काष्ठशािल्प की मूर्तियां गढता हो तथा दुनिया भर के प्रगतिशीील जनवादी उसे अपना बुजुर्ग मानते हों। और फिर उसका नाम भी नईम हो तो वो स्वाभाविक रूप से इस सरकार के लिए खतरनाक हो सकता है। भले ही प्रचारक अधिकारी ने सस्ती लोकप्रियता के लिए मुख्यमंत्री से घोषणा करवा दी हो पर इस सरकार की असली चाबी तो कहीं और रहती है जब तक वहाँ से अनुमति नहीं मिल जाती तब तक क्या हो सकता है!
वैसे भी सरकारों की कही कितनी बातें सच होती हैं।
वीरेन्द्र जैन
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अप्सरा टाकीज के पास भोपाल मप्र
फोन 9425674629

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