बुधवार, फ़रवरी 02, 2011

अलोकतांत्रिक कन्धों पर ढोया जा रहा गणतंत्र


गणतंत्र दिवस पर विशेष
अलोकतांत्रिक कंधों पर ढोया जा रहा गणतंत्र
वीरेन्द्र जैन

हम समारोह जीवी लोग प्रतिवर्ष धूमधाम से स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस मनाते रहे और कभी उसकी रंजत जंयती और कभी स्वर्ण जंयती के नाम पर भाषण भोजन करते रहे किन्तु सच तो यह है कि देश में गणतंत्र की स्थापना होना अभी बाकी है। हमारे देश की आजादी से पूर्व दुनिया में जहॉ कही भी सत्ता में व्यवस्था परिवर्तन हुआ है तब नये शासक ने या तो पूर्व शासक को मार दिया है या जेल में डाल दिया है किन्तु हमारे देश में महात्मा गांधी के नेतृत्व में सत्ता परिवर्तन हेतु चलाये गये अहिंसक आंदोलन के परिणामस्वरूप सत्ता का शांतिपूर्वक हस्तांतरण हुआ। इस हस्तातंरण में सब कुछ लोक लुभावन था। जनता का चेतन भाग इस भ्रम में था कि उसके हाथ में सत्ता आ गयी अंग्रेज सोचते थे कि उन्होने बहुत दिन राज कर लिया और बिना किसी बड़े नुकसान के विदा हो रहे हैं। राजाओं, जागीरदारों के किले और महल उन्हीं के पास रहे, बड़ी बड़ी जमीनों के वे मालिक बने रहे, अटूट धन सम्पत्ति उनकी तिजोरियों में बंद रही इतना ही नही उनके विशेष अधिकार सुरक्षित रहे तथा उन्हें प्रतिमाह प्रिवीवर्स के रूप में एक बड़ी रकम भी बांध दी गयी। न उनके हथियारों पर नियंत्रण किया गया ओर न ही उनकी गाड़ियों के नम्बर बदले गये। जनता के बीच वे यथावत राजा, महाराजा, राजमाता, बहुरानी, कुंअर साब आदि नामों से सम्मान पाते रहे तथा यथावत रूतबा गांठते रहे। लोकतंत्र आकर उनकी जेब में सुस्ताता रहा और हमारे दिखावटी नेता झंडे फहराते रहे। चन्दबरदाइ नुमा तुक्कड़ कवि साहित्यकार लोकतंत्र की आरती गाते रहे तथा किराये के टट्टू उन पर लट्टू होकर झूमते रहे।

सच तो यह है कि सांमतवादी सोच को निर्मूल किये बिना लोकतंत्र संभव ही नहीं है। देश में सत्ता परिवर्तन के समय हमने अपनी नई व्यवस्था का नाम लोकतंत्र रख लिया और अपने कर्तब्य की इतिश्री मान ली। पर लोगों के सोचने और समझने और अपनी समस्याओं को हल करने के तरीके लोकतांत्रिक नहीं हुये, वे पुराने ही बने रहे। वैध-अवैध साधनों से मतदान के पराक्रम में विजयी प्रतिनिधि को क्षेत्र के स्थायी सामंत का दर्जा प्राप्त हो गया। राज्य की नीतियां बनाने में अपने क्षेत्र की जनता के स्वर को सदन में मुखरित करने की जगह ये नये सामंत पुलिस प्रशासन नगरीय निकायो के कार्यो समेत लोगों के पारिवारिक झगड़े सुलझाने वाले मुखिया की भूमिका तक निभाने लगे। इन प्रतिनिधियों को इस नयी सामंती प्रथा का ऐसा स्वाद लगा कि लोकसभा व विधान सभाओं में उनकी भूमिका केवल हस्ताक्षर करने या मतदान के समय हाथ खड़ा कर देने तक सीमित हो गयी। वे वहाँ से गायब रहने लगे। परिणामस्वरूप सत्तारूढ़ दल निष्कंटक होकर सत्तासुख भोगने लगा और कभी गान्धीजी की सादगी से जुड़ा रहने वाला संगठन राजसी आचरण करने लगा।
कुछ समय तक हतप्रभ होकर देखने के बाद पुराने सामंतों की समझ में सारी कहानी आ गयी और वे अपनी अपनी पुरानी प्रजा का ‘नेतृत्व’ करने के लिए कूद पड़े। आज हमारी संसद के सदनों में भूतपूर्व राजपरिवारों के लगभग एक सौ चौबिस सदस्य मौजूद हैं तथा अनेक विधानसभाओं और स्थानीय निकायों पर कब्जा किये हुये हैं। आज शायद ही कोई पुरानी रियासत हो जिसके वंशज किसी पार्टी के प्रतिनिधि के रूप में राजनीति में सक्रिय न हों।
हरिजन आदिवासी को सवर्ण समाज के साथ समानता के स्तर पर लाने की दृष्टि से संविधान द्वारा लोकसभा विधानसभा आदि में आरक्षण की व्यवस्था की गयी जिसका परिणाम यह हुआ कि इन वर्गो के प्रतिनिधित्व के नाम पर लोकप्रिय सत्तारूढ़ दल की ओर से कुछ ऐसे प्रतिनिधि पहुंचने लगे जो स्वतंत्र निर्णय ले सकने में सक्षम नही थे। इसका लाभ सत्तारूढ वर्ग ने उठाया। उनकी ओर से दूसरों द्वारा निर्णय लिए जाने के कारण भी सत्ता का केन्द्रीकरण हुआ जो सत्ता को सामंती बनाता है। इस काल में मतदान प्रणाली भी ऐसी रही जो सत्तारूढ़ दल के अनुकूल पड़ती थी परोक्ष रूप से लम्बे समय तक आरक्षित प्रतिनिधियों के मतों का इस्तेमाल कुछ पूंजीपति, सामंती वर्ग के लोग ही करते रहे।

सामंतवाद के यथावत बने रहने व राजशक्ति से जुड़े रहने के कारण एक बड़े क्षेत्र की जनता में राजनीतिक चेतना का विकास नही हो सका क्योकि राजनीतिक दलों के संगठनों पर सामंती तत्व हावी रहे। सामंतवाद के समतुल्य ही लोकप्रियतावाद भी विकसित हुआ। कोई भी, किसी भी कारण से लोकप्रिय होने पर अपनी लोकप्रियता को जनप्रतिनिधि के रूप में चुने जाने के लिए भुनाने लगा जबकि भावी व्यवस्था का कोई ब्लू प्रिन्ट उनके पास नहीं होता था। इसी के साथ प्रसिद्व वकील, डाक्टर, सामजिक संस्थाओं के प्रतिनिधि, साहित्यकार, कवि, फिल्म और रंगमच या टीवी क़े कलाकर, क्रिकेट खिलाड़ी, पूंजीपति, ऊंचे परिवारों की महिलाओं, संत मंहत, वैज्ञानिक आदि विभिन्न कारणों से लोकप्रिय लोग मतदान के महत्व से अनभिज्ञ मतदाताओं से जुड़कर वोट बटोरने और प्रतिनिधियों के लोकतांत्रिक चुनाव को प्रभावित करने में जुट गये। साम्प्रदायिकता, जातिवाद, क्षेत्रवाद भाषायी संकीर्णता आदि ने लोकतंत्र की मूल भावना को गहरे प्रभावित किया महिलाओं में राजनीतिक चेतना विकसित करने से पूर्व आरक्षण मिल जाने के बाद इसमें एक आयाम और जुड़ जायेगा। बिहार में लालू प्रसाद के स्थान पर राबड़ी देवी जैसी घरेलू महिला लम्बे समय तक राज करती रही हैं तथा बाल ठाकरे की शिवसेना और गुजरात में नरेन्द्र मोदी विभाजन की राजनीति से चुनाव जीतकर लोकतंत्र को मुंह चिढ़ाते रहते हैं। दूसरी ओर बड़े बड़े प्रखर संसदविद् चुनाव हार कर हमारी लोकतंत्र प्रणाली के सामने प्रश्नवाचक चिन्ह खड़ा करते रहते है। कश्मीर में एक लम्बे समय तक चुनाव के नाम पर तमाशा होता रहा है तो हरियाणा में जनता के निर्णय को पूरा मंत्रिमंडल दलबदल करके धता बताने का इतिहास रच चुका है। सवर्णों हरिजनों के बीच में दरार चौड़ी करके अस्तित्व में आने वाली बसपा धनघोर सवर्ण और मनुवादी पार्टी के साथ गठजोड़ करके सरकार बनाती है तथा अपनी घोषित नीतियों के विरूद्व निरंतर निर्णय लेती रहती है। चुनावों में खर्च की निर्धारित सीमा से कई गुना राशि खर्च की जाती है जो प्रमुख राजनीतिक पार्टियों को काले धन वालों तथा आर्थिक सामाजिक अपराधियों से प्राप्त होती है। प्रशासनिक अधिकारियों को भ्रष्टाचार की खुली छूट देने के लिए उनको ऊपरी कमाई के कुछ चुने हुए स्थानों पर पदस्थ करके चुनाव के लिए धन अर्जित किया जाता है। इस तरह अनूठे लोकतंत्र का कुठाराघात लोक पर ही किया जाता है। प्रमुख राजनीतिक दलों का कार्यालय के नाम पर प्रमुख स्थानों पर बडे बड़े प्लाट उपलब्ध कराये जाते है जिनमें कार्यालय की जगह मार्केट बनते हैं जिनसे करोड़ों रूपयों की आमदनी होती है। आमदनी के इस स्थाई स्त्रोत के सामने दूसरी छोटी मोटी विचार आधारित लोकतांत्रिक पार्टियां टिक ही नही पाती है। देश में लोकतंत्र की जिम्मेवारी उठानेवाले और उठाने को उतावले बैठे दल लोकतंत्र के लिए कितने चिंतित हैं इसका प्रमाण उनके अपने अंदर के लोकतंत्र को देखकर लगाया जा सकता है। श्रीमती इंदिरा गांधी ने पार्टी संगठन से एक बार झटका खाने के बाद आंतरिक लोकतंत्र को सदा के लिए तिलांजलि दे दी थी और स्वंय भू-अध्यक्ष बनकर अस्थाई समितियों के माध्यम से आजीवन संगठन और सरकार चलाती रहीं। यह प्रथा अभी भी जारी है, सही सांगठनिक चुनाव किसी दल में नहीं होते।
बहुजन समाजपार्टी के स्वंयभू- नेता कांशीराम कहते थे कि उनके पास ना कोई फाईल होती है और न पार्टी का हिसाब किताब। उनके यहॉ उनके अलावा कोई दूसरा पदाधिकारी नहीं होता था और ना ही चुनाव होते थे। उनके कमरे में केवल एक कुर्सी होती थी व बैठकों के दौरान सांसद विधायकों समेत सभी लोग र्फश पर बैठते तथा कांशीराम कुर्सी पर होते थे। उनके किसी भी प्रस्ताव के विरोध या पक्ष में अन्य लोगों से कोई सलाह लेने की जरूरत उन्हें महसूस नहीं होती थी।

कांशीराम की तरह ही शिवसेना के बाल ठाकरे के काम का तरीका है, शिवसेना के सुप्रीमों के आदेश से ही उनकी पार्टी के सारे कामकाज चलते हैं। उनके पास ही धन का पूरा हिसाब किताब होता है तथा उनका वाक्य ही अंतिम निर्णय होता है। उनके आदेश पर किन्तु परन्तु करने पर सदस्यों को केन्द्रिय मंत्रिमंडल तक से हट जाना पड़ता है तथा सांसदों को प्रधानमंत्री कार्यालय के अधिकारियों पर लगाये आरोपों के लिए माफी मांगना पड़ती है। दुनिया के सबसे बडे लोकतंत्र की लोकसभा का अध्यक्ष पद ऐसी पार्टी के सदस्य के पास रहा है जिसका वहॉ सुशोभित होना शिवसेना सुप्रीमों की इच्छा पर ही निर्भर करता था भविष्य में यह सुप्रीमों पद उनके वंशजों को ही मिलने की व्यवस्था की जा चुकी है। देश की गत केन्द्रीय सरकार को उनके पिता के नाम पर डाक टिकट जारी करने के लिए मजबूर होना पड़ा था क्योकि ऐसा न करने पर वे तत्कालीन सरकार से समर्थन वापिस ले सकते थे। उत्तरप्रदेश और महाराष्ट्र में प्रभावशाली दखल रखने वाली समाजवादी पार्टी उसके इकलौते नेता मुलायम सिंह के नाम पर चल रही है। उनके दो एक पारिवारिक सहयोगी भले ही हों पर पार्टी का संचालन सूत्र केवल एक व्यक्ति के पास है। संसद में जगह खाली होने पर उनके पुत्र को ही उम्मीद्वार बनाया गया भले ही अनेक वरिष्ठ नेता हाथ पर हाथ धरे बैठे थे। बिहार में लालू प्रसाद राष्ट्रीय जनतादल के स्वंयभू अध्यक्ष और मुख्यमंत्री रहे है। उनके खिलाफ भष्ट्राचार के आरोप लगने पर उन्होने मुख्यमंत्री पद, राजनीति में निरक्षर अपनी पत्नी को सौप दिया पार्टी तो पार्टी विद्यायक दल में भी मुख्यमंत्री बनाने लायक कोई अन्य सदस्य उन्हें नही मिला था। उनकी पार्टी का एक मात्र अर्थ लालू प्रसाद है तथा उनके बिना यह निरर्थक हो जाती है। तमिलनाडू में कभी फिल्म अभिनेत्री रही जयललिता की पार्टी का नाम एआईड़ीएमक़े है जिसमें कभी कभी विधि सलाहकारों के तरह अन्य सदस्यों से सलाह तो कर ली जाती है पर अंतिम निर्णय जयललिता का ही होता है। केन्द्र की सत्ता में आने से पहले भाजपा अपने आपको लोकतांत्रिक होने का ढोंग करती रही थी किन्तु अपने अध्यक्ष को जिस तरह से वे हटाते रहे हैं उससे स्पष्ट होता रहा था कि कठपुलियों की डोरियां किसी अदृशय हाथ की उंगलियों से बंधी रहती हैं। मजे की बात तो यह है कि जनाकृष्णमूर्ति को हटाये जाने के सवाल पर एक दिन पहले ही तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी ने पत्रकारों से कहा था कि मै कौन होता हूं उन्हें हटाने वाला, हॉ वे चाहें तो मुझे हटा सकते हैं। बाद में जिन्ना के नाम पर बयान देने के मामले में अडवाणी जी को संघ के एक आदेश पर बाहर का रास्ता दिखा दिया गया और कहीं चूं भी नहीं हुयी। राष्ट्रीय स्तर पर बिल्कुल अनजाने नितिन गडकरी को अदृष्य आदेश से अध्यक्ष बना दिया गया जिसे सबको चुपचाप स्वीकारना पड़ा।
गणतंत्र जिन कंधों पर सवार होकर चल रहा है जब वे कंधे ही लोकतांत्रिक नही हैं तो देश में लोकतंत्र कैसे चल सकता है पर हम मूर्तिपूजक लोग लोकतंत्र की मूर्ति बनाकर प्रत्येक छब्बीस जनवरी, पन्द्रह अगस्त को उसका पूजन आराधना करते रहते हैं। राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, कार्यालय से औपचारिक शुभकामनाओं की घोषणाएं होती रहती हैं। एक रस्मी परेड तथा सरकारी कार्यालयों एंव शिक्षा संस्थानों में छुट्टी के अलावा ये दिन हमें भीतर तक छू पाने में असमर्थ होते जा रहे हैं। सामाजिक त्यौहारों की तो बात ही छोड़िए ये दिन तो न्यू इयर डे जैसा रोमांच जगाने तक में असमर्थ हैं।
आइये आज हम गणतंत्र को स्थापित करने के लिए प्रयास प्रारंभ करने का संकल्प लें।


---- वीरेन्द्र जैन
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अप्सरा टाकीज के पास भोपाल मप्र
फोन 9425674629

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