बुधवार, मार्च 07, 2012


2012 के विधानसभा चुनाव परिणामों में अन्ना हजारे फेक्टर
वीरेन्द्र जैन                                     
                पिछले दिनों जब अन्ना हजारे ने भ्रष्टाचार के खिलाफ दिल्ली के रामलीला मैदान में अनशन किया था तब पूरे मीडिया ने उन्हें राष्ट्रीय नायक बना दिया था और ऐसा लगता था कि पूरा देश भ्रष्टाचार के खिलाफ एक साथ उठ खड़ा हुआ है। उस दौर में यह भ्रम भी होने लगा था कि गरीबी, बेरोजगारी, मँहगाई, असमानता, सामाजिक भेदभाव, विस्थापन, पानी, सड़क, बिजली आदि न होकर देश के पास इकलौता मुद्दा भ्रष्टाचार का ही है और आगामी अनेक चुनाव इसी मुद्दे के इर्दगिर्द लड़े जायेंगे। भ्रम होने लगा था कि इन चुनावों में जाति, सम्प्रदाय, क्षेत्र, भाषा, लिंगभेद, के आधार पर होने वाले मतदान से मुक्ति मिलेगी और देश को समय पर  राज्य व केन्द्र के लिए भ्रष्टाचार से मुक्त स्वस्थ सरकारें मिलेंगीं। खेद की बात है कि 2012 के विधानसभा चुनाव परिणाम इस दिशा में एक कदम भी बढते नजर नहीं आये हैं। अन्ना हजारे का आंदोलन टायँ टाय़ँ फिस्स हो चुका है, और जाने माने भ्रष्टाचारी नेता व दल उन्हीं पुराने हथकण्डों से उसी  पुराने अन्दाज में वोट बटोरने का काम कर चुके हैं और वैसे ही परिणाम भी आ चुके हैं।
      पंजाब में प्रकाश सिंह बादल से लेकर उनके पुत्र सुखवीर सिंह बादल भी चुनाव जीते हैं जिन पर लम्बे समय से आरोप लगते रहे हैं। उनके ही भतीजे ने जो उनके मंत्रिमण्डल में महत्वपूर्ण मंत्री रहे थे अनेक आरोप लगाते हुए मंत्रिमण्डल से त्याग पत्र दिया था और अपनी अलग पार्टी बनायी थी। उनकी पार्टी द्वारा चुनाव लड़ने के कारण ही अकाली दल विरोधी वोट बँट गये और हर बार सत्ता बदलने की परम्परा का निर्वाह नहीं हुआ जिससे कई सीटों पर पहले से भी कम वोट पाकर भी अकाली उम्मीदवारों की जीत हो गयी है। उल्लेखनीय है कि जब स्विस बैंकों में जमा धन के बारे में आरोप प्रत्यारोप चरम पर थे उन्हीं दिनों सुखबीर सिंह बादल गोपनीय गैर सरकारी यात्रा पर विदेश गये थे, जिनके बारे में तरह तरह के कयास लगाये गये थे, पर उनके गठबन्धन की पार्टी भाजपा ने कोई सवाल नहीं उठाया था। उत्तर प्रदेश में भी ज्यादा सीटें जीतने वाले दोनों बड़े दल भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरे रहे हैं। एनआरएचएम के साढे आठ हजार करोड़ के घोटाले और उसे दबाने के लिए उसमें हुयी नौ हत्याओं सहित मायावती को अठारह मंत्रियों को चुनाव से पहले निकालना पड़ा था तथा सौ से अधिक विधायकों का टिकिट भी काटना पड़ा था, पर फिर भी उनकी पार्टी अच्छी खासी संख्या में वोट ले गयी। उत्तर प्रदेश के सहोदर उत्तराखण्ड में भी उसने सरकार बनवाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाली सीटें जीती हैं और वोट प्रतिशत भी बढाया है। उत्तराखण्ड में भाजपा ने अपने मुख्यमंत्री को भ्रष्टाचार के आरोप में हटाया था और दूसरा ईमानदार मुखौटा मुख्यमंत्री नियुक्त किया था जो हार गया। कहा जा रहा है कि पिछले मुख्यमंत्री ने उसे हरवा दिया।  इतना होने पर भी भाजपा के मतों के प्रतिशत में बह्त ज्यादा कमी नहीं आयी।समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह पर भी सीबीआई की जाँच लम्बित है और उनके पुराने सहयोगी अमर सिंह बार बार तरह तरह के आरोप लगाते रहते हैं।
      उल्लेखनीय है कि पाँच राज्यों के लिए हुए विधानसभा चुनाव परिणामों में भ्रष्टाचार का मुद्दा केन्द्र में नहीं रहा। न तो पार्टियों ने टिकिट देते समय इस को आधार बनाया और न ही जनता ने वोट देते समय ही ऐसे लोगों को ही मत दिया जो आरोपों से मुक्त हों। अपनी ईमानदारी के लिए जाने जाने वाले बामपंथी दल इन चुनावों में सफल नहीं हो सके। इससे यह सन्देश मिलता है कि देश की जनता समाज में वांछित बदलावों को चुनावों से जोड़ कर नहीं देखती है। अन्ना के बहु चर्चित, और भीड़ जुटाऊ आन्दोलन के बाद भी  चुनाव उन्हीं पुराने हथकण्डों से लड़े और जीते जा रहे हैं। लोकप्रियता, जातिवाद, साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण, सामंती प्रभाव, साधु साध्वियों के भेषभूषा में रहने वाले राजनेताओं का भावनात्मक प्रभाव, आदि अब भी चुनाव में भूमिका निभा रहे हैं।  
      इन चुनावों में की गयी व्यवस्था के लिए चुनाव आयोग की भरपूर तारीफ की जानी चाहिए जिसकी व्यवस्था ने न केवल उत्तर प्रदेश और मणिपुर जैसे संवेदनशील राज्यों में पूरी तरह शांतिपूर्वक और हिंसा मुक्त चुनाव करवाये अपितु नये मतदाता जोड़कर कुल मतदान के प्रतिशत में जबरदस्त वृद्धि  के लिए अनुकूल अवसर पैदा किया। इन चुनावों में न तो चुनावी धाँधली के आरोप लगे और न ही वोट खरीदे जाने की शिकायतें ही मिलीं। चुनाव के प्रारम्भ में ही जो करोड़ों की नकदी पकड़ी गयी उससे पैसे की दम पर चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवार सतर्क हो गये और चुनावों में बड़े पैमाने पर धन और शराब की नदी बहने की खबरें नहीं आयीं।
       अन्ना हजारे की जिस टीम ने हिसार के उपचुनाव में अपना एक पक्षीय हस्तक्षेप दिखा कर जो भूल की थी उसके परिणाम स्वरूप उनकी अपनी टीम के ही कई सदस्य बिखर गये थे इसलिए उन्होंने घोषणा करने के बाद भी इन चुनावों में हस्तक्षेप नहीं किया, यह उनका प्रायश्चित था या असमंजस इसका मूल्यांकन होना बाकी है किंतु चुनाव परिणामों के बाद उनका बयान आया है कि जनलोकपाल बिल पास न करने के कारण ही कांग्रेस को सफलता नहीं मिली है, वह हास्यास्पद अवश्य है। उल्लेखनीय है कि हिसार चुनाव की तरह ही इन चुनावों में जीतने वाले ना तो बेदाग हैं और न ही वे उनके जनलोकपाल बिल के समर्थक ही हैं।  
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा सिनेमा के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मोबाइल 9425674629    

2 टिप्‍पणियां:

  1. कृपया अपने वक्तव्य पर पुनर्विचार करें . बाबजूद कई कमियों के अन्ना के आन्दोलन से देश में जन चेतना बढ़ी है जो अन्य कोई दल या मंच नहीं कर पाया. इस बात को कैसे भुलाया जा सकता है.

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  2. ये सही है की अन्ना के आन्दोलन से अभी तक वह जन चेतना नहीं उठी है जितनी की उम्मीद थी पर ये भी सही है की आम आदमी में नेताओं के भ्रष्टाचार के प्रति जागरूकता बढ़ी है. सच ये है की आज भाजपा कांग्रेस और सभी अन्य दल अन्दर से एक ही हैं. सभी में एक से नेता हैं एक ही उद्देश्य है - वो है ज्यादा से ज्यादा पैसा बनाना और जनता को लूटना. ' नेता ' शब्द का अर्थ आम जनता के लिए आज केवल गुंडा बदमाश मीठा बोलने वाला और अपनी जेबे भरने वाला व्यक्ति ही है. भले ही वो किसी भी दल का हो. कोई फर्क नहीं है. अन्ना का आन्दोलन बस एक शुरुआत है. सब एक ही थाली के चट्टे बट्टे हैं जो की चुनावो की नूरा कुश्ती में जनता को मिल बाँट के मूर्ख बनाने में लगे हुए हैं. सभ्य और सुशिक्षित व्यक्ति राजनीति से दूर ही रहता है क्युकी वो इस कीचड में नहीं जाना चाहता और अगर कोई ऐसी कोशिश करता भी है तो उसे ये "नेता" ऐसा करने नहीं देते. पर एक एसा भी दिन आएगा जब अच्छे लोग आगे आएंगे और तब क्रांति अवश्य होगी, और इन सभी नेताओ को सड़क पर खड़ा करके गोली मार दी जाएगी. ये करने का सही दिन तो आज भी है पर इन नेताओ के पास धन और बाहु बल है. फिर भी क्रांति अवश्य होगी क्युकी अन्ना के आन्दोलन से ये जरुर साबित हुआ है की जनता के सब्र का प्याला अब धीरे धीरे भरने लगा है और जनता ये समझने लगी है की अभी आजादी की लड़ाई समाप्त नहीं हुई है. आजादी की लड़ाई अभी और बाकी है.

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