बुधवार, जुलाई 09, 2014

शंकराचार्य- साँईभक्त विवाद और साम्प्रदायिक राजनीति का असमंजस



शंकराचार्य- साँईभक्त विवाद और साम्प्रदायिक राजनीति का असमंजस  
वीरेन्द्र जैन
       किसी भी धर्म का प्रादुर्भाव और प्रसार अपने समय की सामाजिक जरूरतों के अनुसार होता है और उस समय के अग्रदूत अपनी समझ के अनुसार समाज के हित में अपने सर्वश्रेष्ठ विचार देते व उनके पक्ष में एक चेतन समूह खड़ा करते रहे हैं। सच यह भी है कि बाद में उन विचारों को जड़ मान, समय के अनुसार उन विचारों को विकसित न करने वाले अनुयायी विचारों के पीछे छुपी जनहितकारी भावना को भुला देते रहे हैं जिससे वह चेतन समूह विभाजित होता रहता है। जैनों में दिगम्बर श्वेताम्बर, बौद्धों में हीनयान और महायान बना तो इस्लाम के मानने वालों में शिया सुन्नी, व ईसाइयों में कैथोलिक व प्रोटेस्टेंट, आदि तो बड़े बड़े विभाजन देखने को मिलते हैं, पर इनके अन्दर भी पंथ दर पंथ पैदा होते रहे हैं। तेरहवीं शताब्दी में माधवाचार्य ने इस क्षेत्र के जिन षड-दर्शनों की चर्चा की है उन में से तीन आस्तिक दर्शन शैव, अर्थात शिव के उपासक, शाक्त अर्थात शक्ति [देवी] के उपासक और वैष्णव अर्थात विष्णु के अवतारों को मानने वाले आते थे। उसी समय के तीन नास्तिक दर्शनों में जैन, बौद्ध, और चार्वाक के दर्शन को मानने वाले भी बड़ी संख्या में थे। बाद के काल में शैव, शाक्त, और वैष्णव हिन्दू के नाम से पहचाने गये। मुगल काल में औरंगजेब जैसे कुछ कट्टर शासकों के समय इन तीन भिन्न दर्शनों के मध्य समीपता बढी, जिसका दुरुपयोग कर अंग्रेजों ने भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान ‘डिवाइड एंड रूल’ नीति के अनुरूप हिन्दू मुस्लिम टकराव को बढा कर किया।
       लोकतंत्र आने के बाद यही समूह वोट बैंक की राजनीति के काम आने लगे और कुछ राजनीतिक दलों ने अपने स्वार्थ के कारण इस टकराव को बढाया तो दूसरे राजनीतिक दलों ने इससे पैदा हुयी स्थिति का स्वाभाविक लाभ उठाया। इसके परिणाम स्वरूप राजनीति में साम्प्रदायिकता को दूर रखने की सोच वाले दल और संगठन हाशिये पर जाते रहे। इन दिनों साम्प्रदायिक आधार पर राजनीतिक संगठन विकसित करने वाला दल इस विभाजन का चुनावी लाभ लेकर देश में सत्तारूढ है, और जहाँ जहाँ निकट भविष्य में चुनाव होने हैं वहाँ इसी कूटनीति से अधिक सक्रिय है। दूसरी ओर यह भी सच है कि देश की आम जनता अपने धार्मिक विश्वासों के अनुसार पूजा इबादत की स्वतंत्रता तो चाहती है पर साम्प्रदायिक टकराव नहीं चाहती। हमारा संविधान भी ऐसा ही भेदभाव रहित समाज चाहता है और इसी आदर्श के अनुसार उसके नियम व कानून बनाये गये हैं। साम्प्रदायिक टकराव स्वाभाविक रूप से होता नहीं है अपितु निहित स्वार्थों द्वारा पैदा किया जाता है।
       विडम्बना तब पैदा होती है जब अलगाववादी राजनीति के अन्दर ही उसी तर्ज़ पर अलगाव पैदा होने लगता है। हाल ही में शंकराचार्य स्वरूपानन्द सरस्वती ने हिन्दुओं द्वारा शिरडी के साँई बाबा की पूजा के सम्बन्ध में जो विचार व्यक्त किये हैं, उन्हें धार्मिक विमर्श तक सीमित नहीं रहने दिया गया है। केन्द्र सरकार की साध्वी भेष में रहने वाली मुखर केन्द्रीय मंत्री सुश्री उमाभारती ने उसमें हस्तक्षेप करके उसे राजनीतिक रंग में देखने को विवश कर दिया है। जहाँ एक ओर शंकराचार्य स्वरूपानन्द सरस्वती का इतिहास यह रहा है कि उन्होंने साम्प्रदायिक राजनीति करने वालों को धर्म का थोक ठेकेदार नहीं बनने दिया है, और उनकी कूटनीति के शिकार नहीं हुये हैं इसलिए वे लोग उन्हें कांग्रेसी शंकराचार्य कहते रहे हैं। दूसरी ओर शिरडी के साँई बाबा के भक्तों में हिन्दू और मुस्लिम दोनों ही समुदाय के लोग रहे हैं, और उनकी पूजा का विरोध करके शंकराचार्य ने भाजपा का मुद्दा पकड़ लिया है।
 हमारे देश की पुरानी परम्परा में यह रहा है कि समाज के हित में अपना अतिरिक्त धन धार्मिक स्थलों को दिया जाता रहा है। स्कूल अस्पताल और अनाथालय आदि की स्थापनाएं मुख्य रूप से ईसाई धर्म प्रचारकों के बाद ही देखने को मिलती हैं। यही कारण है कि मन्दिरों के पास अकूत धन एकत्रित होता रहा है और मन्दिर हमलावर राजाओं की लूट के प्रमुख लक्ष्य बनते रहे हैं जिसे बाद के साम्प्रदायिक सोच के इतिहासकार एक धर्म के राजा द्वारा दूसरे धर्म के मन्दिरों को ध्वस्त करने के लिए किया गया हमला बताने लगे हैं, जो पूरी तरह सच नहीं है।
       देश में सत्तारूढ भाजपा की विडम्बना यह है कि एक ओर तो हिन्दुओं की आस्था के सर्वोच्च प्रतीक बताये जाने वाले शंकराचार्य हैं तो दूसरी ओर नवधनाड्य हिन्दू मध्यमवर्ग की आस्था के प्रतीक साँईबाबा हैं जिनके लाखों मन्दिर ही नहीं अपितु व्यावसायिक संस्थानों के नाम भी उनके नाम पर हैं और इन मन्दिरों में लगभग हिन्दू विधि से ही मूर्तिपूजा होती है। प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से अपने को हिन्दुओं की पार्टी प्रचारित करने वाली भाजपा का असमंजस यह है कि वह शंकराचार्य द्वारा साँई पूजा के विरोध से उठे विवाद में किसका पक्ष ले! उमा भारती को पिछली आसाराम की प्राथमिक पक्षधरता के बयानों की भूल की तरह एक बार फिर से चुप करा दिया गया है और उनके गुरु ने शंकराचार्य की पक्षधरता करके नई विडम्बना पैदा कर दी है। चौबीस घंटे चलने वाले न्यूज चैनल जिनका व्यवसाय ही विचारोत्तेजक विवादों से चलता है, इस बहस को ज़िन्दा रखे हुये हैं और लोग इनमें रुचि ले रहे हैं, पर भाजपा में मुखर प्रवक्ताओं की जो फौज़ चैनलों पर छायी हुयी है वह इस से बचती नजर आ रही है। दूसरी ओर शंकराचार्य ने साँई मन्दिर की चड़ोत्री में आई सम्पत्ति के बारे में नया विवाद खड़ा कर दिया है।
       हथकण्डों की राजनीति कभी कभी उल्टी भी पड़ जाती है।
वीरेन्द्र जैन
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