बुधवार, अप्रैल 01, 2015

आदर्श, नीति और पाखण्ड से घिरा आम आदमी पार्टी का संकट



आदर्श, नीति और पाखण्ड से घिरा आम आदमी पार्टी का संकट
वीरेन्द्र जैन
       आम आदमी पार्टी भ्रष्टाचार के खिलाफ चले एक आन्दोलन से जन्मी पार्टी है, जो अपना लक्ष्य संसदीय लोकतंत्र में तलाशने के लिए उसी गहरे कुँए में उतर गयी जिसमें इससे पहले भी उतर कर कई दूसरे आन्दोलन डूब  चुके थे। स्वतंत्रता आन्दोलन से जन्मी काँग्रेस जिसके सदस्य कभी आज़ादी की लड़ाई के लिए जेल गये थे, चुनावी पार्टी बनने के बाद उसके सदस्य तरह तरह के घोटालों में जेल जाने लगे। गुजरात में तत्कालीन मुख्यमंत्री चिमन भाई पटेल पर लगे आरोपों के विरोध से शुरू हुआ जयप्रकाश नारायण का आन्दोलन जनता पार्टी द्वारा सरकार बना लेने के बाद बिखर गया। वीपी सिंह ने भी बोफोर्स सौदों में दलाली के खिलाफ राजनीति के नये समीकरण जोड़े थे जो अपनी सरकार को भ्रष्ट समर्थकों से बचाने के लिए मंडल कमीशन की कूटनीति तक चले गये और कमंडल आन्दोलन का बीज बो गये। कांशीराम का गैर सवर्ण आन्दोलन बहुजन समाज पार्टी चलाने के चक्कर में दलित जातियों का समर्थन बेचने की दुकान में बदल गया और दलित की बेटी दौलत की बेटी के रूप में पहचानी जाने लगी। यही परिणाम अन्ना को आगे रख कर केजरीवाल द्वारा चलाये गये आन्दोलन का हुआ जो चुनावी राजनीतिक दल में बदलते ही उन आरोपों से घिर गया जिसके खिलाफ उन्होंने शुरुआत की थी। चुनाव लड़ने वाली कम्युनिष्ट पार्टियां भी अपने आन्दोलन के लिए चुनाव न लड़ने वाली कम्युनिष्ट पार्टियों से अधिक नहीं कर सकीं अपितु गलत दलों से चुनावी समझौते के प्रयोग कर अपनी धार खो बैठीं और ठहराव की शिकार हुयीं।   
       आन्दोलन की शुरुआत आदर्श से होती है इसलिए उसमें त्याग लगन और समर्पण वाले लोग जुटते हैं और  उसमें खुशी मह्सूस करते हैं, किंतु राजनीतिक दल बनते ही उसे प्रतिद्वन्दी व प्रतियोगी दलों से चुनावी चुनौती मिलती है और वे उन सत्ता लोलुप गिरोहों की चुनौती का सामना करने को ही अपना मुख्य लक्ष्य बना लेते हैं। इसके लिए वे चुनाव जीतने और सत्ता पाने के लिए समझौते करने, चुनावी फंड एकत्रित करने व विरोधियों पर अनैतिक हमले करने से भी नहीं चूकते। आन्दोलनों की लोकप्रियता से मिले समर्थन से जब चुनाव जीतने की सम्भावनाएं बलवती हो जाती हैं तो तरह तरह के निहित स्वार्थ उनके आस पास घिरने लगते हैं और संसाधनों की प्रचुरता द्वारा संचालन अपने हाथ में ले लेते हैं।
       आम आदमी पार्टी का मुख्य संकट यही है कि चुनावी पार्टी में बदल चुके इस समूह को उसी आन्दोलन के मानदण्डों से ही मापने की कोशिश की जा रही है। योगेन्द्र यादव और प्रशांत भूषण द्वारा उठाये गये सवाल गलत नहीं हैं किंतु उन्हें किस तरह से और किस उद्देश्य से सार्वजनिक रूप से उठाया गया है यह चौंकाता है, क्योंकि वे   चुनावी पार्टी की रणनीति का भांडा फोड़ के अपने नेता को बेईमान बताने की कोशिश करते प्रतीत होते हैं। बहुत सम्भव है कि चुनावी फंड एकत्रित करने के लिए आन्दोलन की पुरानी नैतिकिता से कुछ विचलन किया गया हो किंतु जब तक यह साबित न हो रहा हो कि कथित विचलन व्यक्तिगत हित के लिए किया गया है तब तक ये सारे आरोप सार्वजनिक नहीं होने चाहिए थे। योगेन्द्र यादव और प्रशांत भूषण जैसे लोग अगर आन्दोलन को चुनावी पार्टी में बदलने के प्रति सहमत रहे थे तो उन से यह उम्मीद नहीं की जा सकती थी कि वे यह नहीं समझते होंगे कि अपनी पार्टी की जीत की सम्भावनाओं को धूमिल करके परोक्ष में उन राजनीतिक शक्तियों को मदद पहुँचायी जा रही है जिनके खिलाफ आन्दोलन प्रारम्भ किया गया था, और उसी लक्ष्य को पाने के लिए अब चुनाव लड़ा जा रहा है।
       जब से अरविन्द का गाली गलौज वाली भाषा का स्टिंग सार्वजनिक हुआ है तब से चारों और उनके आन्दोलन वाले समर्थक निराश नजर आते हैं और विरोधियों के कदमसे कदम मिला कर उनकी आलोचना कर रहे हैं । किसी को भी यह उम्मीद नहीं थी कि वे उम्र में वरिष्ठ और नेतृत्वकारी साथी रहे लोगों के प्रति अपनी भाषा में उस स्तर तक पहुँच जायेंगे कि अपने पद और कद को भूल जायेंगे। कहते हैं कि भावावेश में आदमी अपनी स्वाभाविक भाषा बोलता है इसलिए उनके प्रशंसकों को यह लगना स्वाभाविक है कि शायद इससे पहले की उनकी भाषा नकली थी। दर्ज़नों पार्टियों और नेताओं से धोखा खाया हुआ देश सोचता है कि भाषा का यह नकलीपन कहीं उनकी राजनीति और नेतृत्व में भी तो नहीं! आलोचना के इस ज्वार में बातचीत में से यह सन्देश भुला दिया गया कि आखिर ऐसी क्या बात हो गयी कि आमतौर पर मृदुभाषी रहे अरविन्द के मन में इतनी कढुवाहट घुल गयी कि उन्हें ऐसी भाषा पर उतरना पड़ा। क्या आम आदमी पार्टी के नेताओं का आपसी रिश्ता यही था कि उसके कार्यकर्ता आपस में की गयी बातचीत को भी रिकार्ड कर लेते थे! यह तो अमर सिंह जैसी हरकत हुयी जिन्होंने अपने वकील प्रशांत भूषण की प्रोफेशनल बात को भी रिकार्ड कर के रखा था और उसका स्तेमाल राजनीति में कर दिया था। अगर दूसरा गुट इतना ही नैतिकितावादी था तो प्रोफेसर आनन्द कुमार का ब्लेकमेलिंग जैसी भाषा में यह कहना कि बात निकलेगी तो बेडरूम तक जायेगी किस बात का संकेत है? अगर उन्हें कुछ और भी जानकारी है तो उसे भी उसी समय बताना चाहिए था या अब बता देते।  
       आम तौर पर संघ परिवार से जुड़े लोग धर्मनिरपेक्षता पर बातचीत के दौरान मूल विषय से भटकाने के लिए धर्म निरपेक्षता और पंथ निरपेक्षता शब्द की व्याख्या करने लगते हैं और उन्हें बताना पड़ता है कि इस समय व्याकरण पर बात नहीं हो रही है और हम लोग अच्छी तरह जानते हैं कि हम इन शब्दों के किस प्रचलित अर्थ के अनुसार बात कर रहे हैं। प्रशांत भूषण और योगेन्द्र यादव की सही बातें भी विषय से हट कर हैं, वे अभी बड़े समर्थन वाले जन नेता नहीं हैं व केजरीवाल गुट को नुकसान तो पहुँचा सकते हैं, या कहें कि पहुँचा ही चुके हैं किंतु आन्दोलन के आदर्शों को लाभ पहुँचाने की स्थिति में नहीं हैं। वे चाहते तो राजनीतिक दल बनाते समय अलग हो सकते थे या अभी अपने को अलग कर के बाद में ऐसे अवसर पर अपनी बात कह सकते थे जिससे आन्दोलन को लाभ मिलता। अब उन लोगों को लाभ मिलेगा जिनके आचरण उनसे भी बुरे हैं जिनके खिलाफ उन्होंने यह सब उठापटक की है। स्टिंग के बाद इस बात की सम्भावनाएं शेष नहीं रह गयी हैं कि दोनों गुट एक हो जायें और दो दल बन के एक पै एक ग्यारह हो सकें। अगर आम आदमी के किसी नेता पर इस सब से व्यक्तिगत लाभ लेने का कोई आरोप नहीं लग रहा है तो सवाल उठता है कि इससे हासिल क्या हुआ? और नई तरह की राजनीति के आन्दोलन के पक्ष में कौन है? जब आम चुनावों में तरह तरह के भ्रष्टाचार में जेल जा चुके और अपराधी नेता भी अच्छे बहुमत से चुनाव जीत जाते हैं तो बिना किसी रणनीति के किसी पर आरोप लगा देना क्षणिक लोकप्रियता प्राप्त कर लेने से अधिक क्या है?
       काश उन्होंने व्यापक जन समुदाय की उम्मीदों की रक्षा में बेहतर विकल्प देने तक धैर्य रखा होता। काश अरविन्द ने भावावेश में अपनी भाषा पर नियंत्रण रखा होता।
वीरेन्द्र जैन                                                                          
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