रविवार, अप्रैल 26, 2015

रंगीन अँधेरों का समय



रंगीन अँधेरों का समय
वीरेन्द्र जैन

यह नई तकनीकों का दौर है इसलिए अब अँधेरे काले ही नहीं होते वे रंगीन भी हो सकते हैं और हमें सच न देख पाने की वैसी ही परिस्तिथियां पैदा कर सकते हैं, जैसी कि चकाचौंध करती है। काले अँधेरे को झेलने के अभ्यस्त लोगों को इस दौर में लम्बे समय तक यह पता भी नहीं चल पाता कि वे अँधेरे में हैं। पिछले दिनों एक मध्यम वर्गीय गृहणी ने बहुत गम्भीर होकर कहा था कि आज मैं कल्पना भी नहीं कर पाती कि जब टेलीविजन के चौबीस घंटे चलने वाले चैनल नहीं थे तो महिलाएं अपना समय कैसे काटती थीं। इन रंगीन चैनलों ने उनके खाली समय को अपनी तरह से भर दिया है, और उन्हें यह पता नहीं चल पा रहा कि उन्हें नई तरह से कैद कर दिया गया है। इस कैद में चैनलों के मालिक और उनके विज्ञापनदाता सतही समझ के लोगों को सतही सम्वेदनाओं के द्वारा अपना माल बेचने की कोशिश करते हैं। अब बाज़ार से स्वाद तो मंगा लिया जाता है किंतु खुद के द्वारा प्यार और मेहनत से बनाये गये पकवानों को परोसने और निरंतर प्रयोगधर्मी पाक कौशल से प्रशंसा पाने का सुख समाप्त हो गया है। एक विज्ञापन में दादी माँ छुप कर बाज़ार का तैयार मसाला प्रयोग करके अपनी झूठी प्रशंसा का सुख लेती दिखायी जाती है, किंतु चंचल पोती उसका राज खोल देती है।  
कई दशक पहले लगभग सभी शिक्षा संस्थानों में सांस्कृतिक गतिविधियों से सम्बन्धित वार्षिक कार्यक्रम होते रहे थे जिनके द्वारा छात्रों की रचनात्मक गतिविधियों को सामने लाने उन्हें परखने, सजाने संवारने और प्रोत्साहित करने का काम होता था किंतु अब उनकी जगह भारी भरकम भुगतान पर किसी फिल्म या टीवी कार्यक्रम से जुड़े रहे किसी आर्केस्ट्रा ग्रुप को बुला लिया जाता है। अब छात्रों के बीच शिक्षा के साथ समानांतर रूप से सांस्कृतिक बीज पल्लवित पुष्पित होने बन्द हो गये। अब शिक्षा जगत में अच्छे कैरियर के लिए बैल की तरह जुते युवाओं और कलात्मक रुचि वाले युवाओं के वर्ग अलग अलग हैं। कलात्मक रुचि के युवाओं के लक्ष्य भी फिल्म और टीवी के कलाकार बनना, लाखों रुपयों में बिकने वाली पेंटिंग के स्तर तक पहुँचना या मँहगा संगीतज्ञ बनना हो गया है। दूसरे शब्दों में कहें तो इस क्षेत्र में भी घर में बनने वाले स्वादिष्ट खाने की जगह होटल से लाया गया भोजन या तैयार मसालों द्वारा होटल जैसा ही भोजन घर में तैयार करने की कोशिशें होती हैं, जिससे घरेलू कलाएं विस्मृत हो रही है। अब विवाह के लिए मुलाकात के समय शायद ही किसी लड़की से गीत संगीत सम्बन्धित ज्ञान के बारे में पहले की तरह पूछा जाता हो या वह चयन का आधार बनता हो। शौकिया कलाकार निरंतर कम हो रहे हैं। कवि गोष्ठियां लगभग बन्द या फ्लाप होने लगी हैं किंतु व्यापारियों या उनके क्लबों द्वारा बड़े बज़ट वाले कवि सम्मेलन होने लगे हैं जिनमें लाखों रुपया पारिश्रमिक लेने वाले कवि अपनी वर्षों पुरानी सतही सम्वेदनाओं वाली गीत रचनाएं या तोंदों को बाहर से गुदगुदाने वाला हास्य परोस कर मनोरंजन करते हैं। इस व्यवसाय में अति प्रचार द्वारा कलाकारों को इतना बढा चढा दिया जाता है कि उनको सामने सुनने का सुख किसी ऎतिहासिक घटना में सम्मलित होने जैसा लगता है, अन्यथा आजकल टीवी, डीवीडी, और इंटरनेट पर उन्हीं के मुख से गायी गयी वे ही रचनाएं सहज रूप में मौजूद हैं। जल्दी ही रिकार्ड होकर रचनाओं के बासी हो जाने से बचने के लिए व्यवसायी कवि बहुत सीमित मात्रा में ताजा ‘माल’ बाहर निकालता है पर समाचार पत्रों में साक्षात्कार देने की जुगाड़ जरूर जमाता है ताकि सेलीब्रिटी की तरह स्थापित होने की दिशा में अग्रसर हो सके। समाज को सम्वेदनहीन बनाया जा रहा है और शोक के समय पर नये तरह के रुदाले बुलवाये जाने लगे हैं, कामेडी सीरियलों में हँसी पीछे से जोड़ना पड़ रही है। जीवन को नकली सम्वेदनाओं से सजाया जाने लगा है।
सूचना की दुनिया में तो सबसे ज्यादा रंगीन अँधेरा फैलाया जा रहा है। यह रोचक है कि अखबारों के सरकुलेशन के आँकड़े बढ रहे हैं, उनके पेजों की संख्या बढ रही है, समाचार चैनल बढ रहे हैं, पत्रकारों की संख्या बढ रही है, पहले की तुलना में उनके वेतन और सरकारी पुरस्कार बढ रहे हैं, मुखर हो सकने की सम्भावना वाले पत्रकारों को सरकारी सुविधाएं बढ रही हैं पर खबरें कम से कम हो रही हैं। उक्त सारे पुरस्कार और सुविधाएं खबरों को दबाने, छुपाने या भटकाने के लिए दी जा रही हैं। खोजी पत्रकारिता लगभग समाप्त हो चुकी है, स्टिंग बन्द हो चुके हैं, विचारों का नयापन चर्चा में नहीं आ पाता क्योंकि इतना कचरा फैलाया जाता है कि उसमें से मोती ढूंढना मुश्किल होता है। कोई नहीं पूछ रहा कि इतना भारी भरकम अखबार छरहरे अखबार की तुलना में सस्ता और बेकार क्यों है! मोटे अखबारों में अक्षर कम पर चित्र अधिक छापे जा रहे हैं। समाज को उन सूचना माध्यमों से भर दिया गया है जिनमें ज्यादा रद्दी निकलती है। इस रद्दी में दो तीन पेज तो मुम्बइया फिल्मी गासिप और उनके रंगीन चित्रों से भरे रहते हैं। क्रिकेट में टूर्नामेंटवार, देशवार ही नहीं टीमवार, खिलाड़ीवार, खेल के मैदानवार रिकार्डों का अम्बार ही नहीं उसके खिलाड़ियों के प्रेम प्रसंग और विवाहों की खबरें खेलों के समाचारों से ज्यादा भरी होती हैं। सट्टेबाजी ने इनको और भी बढावा दिया है। इसी लोकप्रियता के आधार पर वे खिलाड़ी दुनिया भर के विज्ञापन भी कर लेते हैं।   
राजनीति में मोदीयुग के उदय में इसी मीडिया की भूमिका रही है। उनके चुनावी रणनीतिकारों ने न केवल प्रिंट और विजुअल मीडिया को ही भटकाया अपितु अदृश्य श्रोतों वाले सोशल मीडिया के नकली समर्थकों द्वारा झूठ और भ्रम पैदा करवाया गया। किराये के नाचने गाने वालों के साथ तो एक अवसर के लिए ही सौदा होता है। दूसरे अवसर पर अपनी प्रस्तुति देने के लिए उन्हें फिर से मेहनताना चाहिए होता है। केन्द्रीय मंत्री जनरल वी के सिंह ने  प्रैस को अनजाने में प्रैस्टीट्यूट नहीं कहा था। बाद में उसे केवल दस प्रतिशत तक सीमित रखने वाली सफाई भी बयान को नकारने वाली नहीं थी अपितु उसे गोलमोल बनाने की कोशिश थी क्योंकि उन्होंने दस प्रतिशत को चिन्हित नहीं किया गया था। उनकी सफाई से प्रैस का कोई भी हिस्सा नब्बे प्रतिशत में आ सकता है और कोई भी दस प्रतिशत में आ सकता है। अपने अपराधबोध के कारण ही प्रैस अपने विरोध को दूर तक नहीं ले जा सकी तथा नरेन्द्र मोदी ने भी परोक्ष में जनरल की बात से खुद को और पार्टी को अलग नहीं किया। भाजपा के प्रशंसक पत्रकार श्री वेद प्रताप वैदिक ने भी वी के सिंह की बात का समर्थन यह कह कर किया कि सभी ऐसे नहीं हैं और कुछ पत्रकार तो देश के राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री से भी ज्यादा समझदार हैं, जिसका अर्थ यह हुआ कि प्रैस के एक हिस्से को वे भी दोषी मानते हैं, पर किस हिस्से को, यह स्पष्ट नहीं करते। पत्रकार कलम का मज़दूर होता है पर जब अचानक ही कुछ पत्रकारों की धन दौलत और हैसियत में अकूत वृद्धि देखने को मिले तो यह स्वीकार कर लेना चहिए कि यह वृद्धि जनता के सामने सच्चाई छुपाने, जानबूझ कर गलत छवि गढने के बदले में देश की जनता के धन को लूटने वाले भ्रष्ट नेताओं, व्यापारियों, ठेकेदारों, और अधिकारियों के माध्यम से पहुँची होगी। एक पत्रकार द्वारा किया गया भ्रष्ट आचरण पूरे समाज और लोकतांत्रिक व्यवस्था को नुकसान पहुँचाता है। आखिर क्या कारण है कि भ्रष्टाचार के अम्बारों में से किसी के प्रकटीकरण का काम प्रैस के द्वारा नहीं हुआ अपितु पत्रकार सरकारी गोपनीय सूचनाओं को पूंजीपतियों तक पहुँचाने का काम करते हुए पहचाने गये। जो खुद को लोकतंत्र का चौथा खम्भा कहता है वह शेष तीन खम्भों को तो कलंकित करने की शक्ति चाहता है पर अपने वर्ग में पल रहे अँधेरे की ओर इंगित नहीं करता। यह साहस केवल जनसत्ता के पूर्व सम्पादक प्रभाष जोशी ने किया था तब चुनावों के थोड़े समय तक पेड न्यूज की चर्चा चली थी जो अब बन्द हो चुकी है जबकि चुनावों के अलावा भी जो प्रतिदिन पेड न्यूज चलती है वह ज्यादा खतरनाक होती है। प्रैस की पवित्रता तब ही स्वीकार हो सकेगी जब वह निर्मम होकर अपने वर्ग में पल रहें दोषियों को भी उजागर करे। सम्वेदनहीन कला जब मनोरंजन मात्र बन रही हो और वह मनोरंजन सही सूचनाओं को ढकने के लिए प्रयोग में लाया जा रहा हो तो ऐसे मनोरंजन की अति का विरोध कला का विरोध नहीं कहा जा सकता। कौन सा लेखक, कलाकार, पत्रकार किन समकालीनों के बीच में से कब धनधान्य से पुरस्कृत और सम्मानित हो जाये इसका कोई कारण सरकारें बताने को तैयार नहीं। पुरस्कार किसी का सम्मान ही नहीं बढाता अपितु पुरस्कृत के समकालीनों में हताशा या उत्तेजना भी जगाता है, विशेष रूप से जब वे पुरस्कार पक्षपातपूर्ण लग रहे हों, व सच को दबाने छुपाने के लिए दिये जा रहे हों। चौथे खम्भे को अपराध बोध से भर देने के बाद उसे न केवल ब्लैकमेल ही किया जाने लगा है अपितु देश की  सबसे भ्रष्ट राजनीति करने वाले उसे प्रैस्टीट्यूट कह रहे हैं और वह दाँत निपोर रहा है। हीरो हीरोइनों के सहारे चुनाव की नैया पार लगाने वाले अपने प्रिय कार्पोरेट घरानों को मीडिया हाउस पर अधिकार कर लेने के लिए प्रोत्साहित कर रहे हैं। अब समाचार चैनलों पर भी मनोरंजक कार्यक्रमों या फूहड़ हास्य के कार्यक्रम अधिक आने लगे हैं और दूर दराज की फील्ड रिपोर्टिंग बिल्कुल गायब हो गयी है। एक अखबार तो ‘नो निगेतिव न्यूज’ का नारा उछाल कर समाचार दबाने का खुला खेल खेलने लगा है जिसके बदले में विदेश की धरती पर देश के प्रधानमंत्री से प्रशंसा पा चुका है।
 चौथे खम्भे में आयी विकृतियों से लोकतंत्र पर बड़ा खतरा मंडराने लगा है।
वीरेन्द्र जैन                                                                           
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