गुरुवार, अक्तूबर 01, 2015

यह एक ‘अखलाक’ की नहीं अखलाक की हत्या है

यह एक ‘अखलाक’ की नहीं अखलाक की हत्या है
वीरेन्द्र जैन

            आम आदमी तो कभी भी कहीं भी मर सकता है, वह सड़क पर दुर्घटना में मर सकता है, भूकम्प में मर सकता है, वह मस्ज़िद में क्रेन गिरने से मर सकता है, मन्दिर में जल्दी दर्शन की भगदड़ में मर सकता है, केदारनाथ के तूफान में मर सकता है, किसी रथयात्रा या कुम्भ के शाही स्नान में कुचला जा सकता है। वह कांवड़ियों के रूप में ट्रक के नीचे आ सकता है, असली नकली आतंकियों के विस्फोटों का शिकार हो सकता है, वह ट्रेन दुर्घटना में मर सकता है या किसी फैक्ट्री में लगी आग या निर्माणाधीन इमारत के गिर जाने से मर सकता है| अगर आप आम आदमी हैं, तो आपकी मौत देश और समाज की अपूरणीय क्षति नहीं होती। वह चर्चा और सूचना माध्यमों की खबर भी नहीं बनती। उस आदमी की मौत तब ही चर्चा का विषय बनती है जब वह असमय और अस्वाभाविक हो। ऐसा इसलिए होता है कि मृत्यु को थोड़ी दूर मानने वाले समाज के दूसरे लोगों की कल्पना में उनकी अपनी मौत नाचने लगती है।
      नोएडा जिले के बसोहड़ा गाँव में अखलाख की हत्या देश की अपूर्णीय क्षति के रूप में नहीं देखी जायेगी, क्योंकि वह एक मामूली लोहार था। पर उसकी हत्या जिस समय, जिस तरह से,  जिन कारणों से, की गयी वह देश देश को ऐसी क्षति पहुँचा सकती है जिसकी पूर्ति होने पर भी निशान सदा बना रहता है। 
      पुराने लोग कहते थे कि झगड़े के मुख्य रूप से तीन कारण होते हैं, ज़र [धन], ज़ोरू और ज़मीन। ग्राम बसोहड़ा में घटी उपरोक्त तरह की घटनाओं में प्राथमिक रूप से तीनों कारण ही नज़र नहीं आते। यही कारण है कि ये अधिक चिंता का विषय हो जाता है। दुश्मन या बीमारी का पता हो तो उसे रोकने का प्रयास किया जा सकता है, सावधानी रखी जा सकती है, किंतु जब बीमारी और दुश्मन अमूर्त हो तो खतरा कभी भी हो सकता है। खेद का विषय है कि हम खतरों के प्रति लगातार लापरवाह बने हुए हैं। असमय मौतों की कथाएं मुआवजे के साथ ही समाप्त मान ली जाती हैं। न तो उनके कारणों की गहराई में जाया जाता है, और न ही ऐसे उपाय तलाशे जाते हैं ताकि ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति न हो। 
      अखलाक की हत्या की सच्ची या झूठी जिम्मेवारी किसी ने नहीं ली। पुलिस द्वारा गिरफ्तार प्रत्येक व्यक्ति हमेशा की तरह खुद को निर्दोष व घटनास्थल से अनुपस्थित बतला रहा है जो इस बात का संकेत है कि या तो यह हत्या किसी विचार से जुड़ी नहीं है या हत्यारे खुद भी उस विचार को सामने रखने का साहस नहीं रखते और किसी टुच्चे अपराधी की तरह अपना सीमित स्वार्थ हल करना चाहते थे। अपराधियों से मृतक का न तो कोई सम्पत्ति का विवाद था, न लेन देन का। उन्होंने न तो चोरी की और न ही बलात्कार के इरादे से आये थे। जब ये कुछ नहीं था तो इस घटना के पीछे जिन कारणों के संकेत मिलते हैं वो वही सबसे बड़ा खतरा हैं। सूचना माध्यमों के विस्तार, उनके डिजिटिलीकरण ने सन्देशों को क्षणों में विश्वव्यापी कर देने की क्षमता प्राप्त कर ली है। सूचना की इस शक्ति को अच्छे और बुरे दोनों तरह के लोग निशि-दिन हाथ में लिए घूमते हैं। यही कारण है कि साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण से लाभान्वित होने वाले लोग चुनावों के दौरान एक दूर की जगह साम्प्रदायिकता फैला कर दूसरी जगह लाभ उठाने का प्रयास करने लगे हैं। 
      खतरा यह है कि वे अपराधी देश की राजनीति की मुख्यधारा में आ गये हैं जो जर जोरू जमीन के लिए सत्त्ता पर अधिकार करना चाहते हैं, व किये हुए अधिकार को बढाना और बनाये रखना चाहते हैं। किंतु यही लोग देश के मिजाज को समझते हुए अपने मूल स्वरूप में सामने नहीं आना चाहते इसलिए मुखौटा ओढ कर अपने दोहरे चरित्र से वे अपने ही लोगों को धोखा दे रहे हैं और उन्हें साम्प्रदायिकता की आग में झौंक कर उस रास्ते पर धकेलने के लिए षड़यंत्र रचते रहते हैं जिस रास्ते पर देश के लोग चलना नहीं चाहते।
 जिस मुहल्ले में अखलाक रह्ता था वह हिन्दू बहुल मुहल्ला है और उस मुहल्ले में सबके बीच में बसे मुसलमानों के केवल दो घर थे। उनके वर्षों से वहाँ रहने पर न तो किसी को कोई परेशानी थी और न ही जमीन का कोई विवाद था। ईदुज्जहा के दिन मुसलमानों के यहाँ कुर्बानी की जो परम्परा है उसमें किसी भी पशु की कुर्बानी दी जा सकती है, इसलिए यह समझ में आने वाली बात नहीं है कि घने बसे हिन्दू बहुल मुहल्ले में रहने वाले मृतक के परिवार ने अपने घर में गाय की कुर्बानी दी होगी। यदि ऐसा होता तो कई दिन पहले से घर में गाय आ गयी होती या बाद में उसकी खाल, सींग, आदि बरामद हुआ होता। यदि यह काम घर से बाहर किया गया होता तो भी एक बड़े पशु का मांस उस छोटे से परिवार के उपयोग से बहुत अधिक होता, इसलिए इस तरह के काम में अन्य परिवार भी सम्मलित होने चाहिए थे। अगर ऐसा था तो हमला अखलाक पर ही क्यों हुआ। बसोहड़ा एक छोटे सा कस्बेनुमा गाँव है इस में भी इस कहानी को फैलाने के लिए व्हाट’स एप्प या लाउडस्पीकर जैसे पहचान छुपाने वाले माध्यमों का स्तेमाल यह बताता है कि अपराधी दूसरों को उत्तेजित कर अपनी पहचान छुपाये भी रखना चाहते थे।
      बिहार में चुनाव चल रहे हैं व उत्तर प्रदेश में अगले साल होने वाले हैं। गत लोकसभा चुनाव में इसी तरह मुज़फ्फरनगर में फैलायी गयी हिंसा का लाभ लेकर उत्तर प्रदेश में चुनावी राजनीति की स्थिति बदली जा चुकी है। बिहार चुनाव में बहुत सारे राजनेताओं का भविष्य दाँव पर लगा है। यही कारण है कि पड़ोसी राज्य झारखण्ड में मस्ज़िद के आगे कटा हुआ सुअर फेंका जा चुका है क्योंकि वहाँ पक्ष का शासन है। दिल्ली के चारों ओर राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र का जो विस्तार हुआ है तथा स्मार्ट सिटी के जो तरह तरह के शगूफे हवा में हैं उससे नगरों के चारों ओर ज़मीनों की लूट शुरू हो गयी है। बहुत सम्भव है कि किसी दूरगामी योजना के अंतर्गत अखलाक को उस मुहल्ले से उजाड़ कर उस गाँव के सारे मुसलमानों को एक तरफ करने के लिए यह योजना बनायी गयी हो। गौ हत्या के झूठे आरोप या लव ज़ेहाद व बहू-बेटी बचाओ जैसे नारे सामान्य लोगों को भी जल्दी से उत्तेजित करने के लिए काफी होते हैं। स्मरणीय है कि अप्रैल 2013 में भाजपा की राष्ट्रीय नेता उमा भारती ने मुज़फ्फरनगर में एक समारोह के दौरान कहा था कि अगर पूर्ण बहुमत की भाजपा सरकार बन गयी तो कागज पर बनी गाय के काटने पर भी प्रतिबन्ध लगा देंगे। गम्भीर बात यह भी है कि मंडल के समय में उभरे दलों को मुलायम ने अकेला छोड़ दिया है और मोहन भागवत के आरक्षण विरोधी बयान पर भी कोई प्रतिक्रिया नहीं दी है। अमर सिंह मुलायम और भाजपा दोनों के नेताओं से मिलते रहते हैं व आज़म खान भी चुप्पी साधे हुए हैं। ऐसे समय में ओवैसी की अति सक्रियता क्या गुल खिलायेगी? काँग्रेस सिपाहियों के बिना जरनलों की फौज़ है और मायवती के समर्थक दलितों के केवल वोटर बना कर छोड़ दिया गया है। वामपंथी अपने कोने जरूर सम्हाले हैं, पर मध्य में वे बयानों से अधिक कुछ नहीं कर पा रहे।  
काश इस कठिन समय में भाजपा में सम्मलित हो गये पूर्व सैनिकों और पुलिस अधिकारियों में से कुछ लोग आर के सिंह की तरह सामने आकर शत्रुघ्न सिन्हा की तरह मुखर हो सकें। देश तभी बचेगा।
वीरेन्द्र जैन                                                                          
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