शनिवार, सितंबर 03, 2016

राजनीतिक दलों में उम्मीदवार बनाने के नियम क्यों नहीं?

राजनीतिक दलों में उम्मीदवार बनाने के नियम क्यों नहीं?

वीरेन्द्र जैन

संविधान के अनुसार हिन्दुस्तान के नागरिकों को आम चुनाव में खड़े होने और सर्वाधिक वोट पाकर सम्बन्धित सदन में प्रतिनिधि बनने का अधिकार है। किंतु यह अधिकार पूरी तरह से स्वच्छन्द अधिकार नहीं है अपितु इसमें भी कुछ किंतु परंतु लगे हैं। प्रत्याशी की उम्र 25 साल से अधिक होना चाहिए, उसका मानसिक स्वास्थ ठीक हो अर्थात पागल न हो, उसका आर्थिक स्वास्थ ठीक हो अर्थात दिवालिया न हो, इत्यादि। ये नियम समाज के, और लोकतंत्र के हित में बनाये गये हैं, तथा समय समय पर इनमें सुधार किया जाता रहा है। पिछले ही दिनों दलों की अधिमान्यता के लिए पात्रता परीक्षण का समय पाँच साल से बढा कर दस साल कर दिया गया है। इससे पूर्व भी दल बद्ल कानून के अस्तित्व में आने के बाद सदस्यों को सदन में भी दलों के साथ जोड़ा गया था और इन दलों में उनके पदाधिकारियों के सावाधिक चुनाव अनिवार्य किये गये थे, शायद यह दलों की कार्यप्रणाली में निर्वाचन आयोग का पहला हस्तक्षेप था। सुधारों की आवश्यकता हमेशा बनी रहती है इसलिए सर्वदलीय बैठक बुला कर सहमति से कुछ विकृतियों को दूर करने के लिए और भी नियम जोड़े जा सकते हैं।
भले ही हमारे विकसित होते लोकतंत्र में बड़े दलों सहित बहुत सारे दल व्यक्ति केन्द्रित हो कर रह गये हैं किंतु सार्वजनिक रूप से इस सत्य को ऐसा कोई भी दल स्वीकार नहीं करता। प्रत्येक के पास अपना दलीय संविधान और घोषणापत्र होता है भले ही उसके अमल में कितने ही विचलन होते रहते हों। विडम्बनापूर्ण है कि चुनाव लड़ने वाले किसी भी पंजीकृत दल ने उम्मीदवार बनाने के नियम नहीं बनाये हैं और टिकिट देने की जिम्मेवारी कुछ विश्वासपात्र चुनिन्दा लोगों की समिति को सौंप दी जाती है। उनके बारे में भी समय समय पर टिकिट बेचने के आरोप लगते रहते हैं। एक जातिवादी राष्ट्रीय दल तो खुले आम टिकिट बेचने के लिए कुख्यात हो गया है। टिकिट देने की इसी मनमानी के कारण दल के उद्देश्य और घोषणापत्र निरर्थक हो जाते हैं व उस क्षेत्र का चुनाव, दल की जगह व्यक्ति के चुनाव में बदल जाता है। यही कारण है कि क्षेत्रों के अपने अपने सूबेदार पैदा हो गये हैं। विभिन्न सरकारों में पदस्थ मंत्री अपने चुनाव क्षेत्र में अपने विभाग की विकास योजनाओं का काम अनुपात से अधिक कराने की कोशिश कर दूसरे क्षेत्रों के साथ पक्षपात करता है और परोक्ष रूप से सरकारी धन से अपने समर्थन को सुनिश्चित करते हुए अपने प्रिय लोगों की आर्थिक मदद करता है। उसे ही अगर अपने दल से टिकिट नहीं मिलता तो वह उसी क्षेत्र के लिए किसी दूसरे दल से टिकिट प्राप्त कर लेता है। अगर प्रत्याशी बनने के लिए पार्टी में सदस्यता की न्यूनतम अवधि तय हो तो कोई टिकिटाकांक्षी दलबदल न करेगा।  
उल्लेखनीय है कि पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा ने मनमोहन सिंह कैबिनेट के दो मंत्रियों व काँग्रेस समेत बहुत सारे दूसरे दलों के अनेक नेताओं को एक दिन की सदस्यता पर भी टिकिट दे दिया  था। कुछ को तो काँग्रेस का टिकिट मिल जाने के बाद भी भाजपा का टिकिट मिल गया था, और  दूरदृष्टि वाले लोग बीच सफर में ही गाड़ी बदल कर दूसरी दिशा की गाड़ी में बैठ गये थे। ऐसे भी लोग थे जिन्होंने चुनाव का फार्म पहले भरा था और पार्टी की सदस्यता का फार्म बाद में भरा था। बहुत सारे सेलीब्रिटीज को तो अचानक बुला कर आनन फानन में चुनाव लड़वा दिया गया था जिनमें परेश रावल और बाबुल सुप्रियो जैसे फिल्मों से जुड़े लोग भी सम्मलित थे।
देश में सोलह सौ से अधिक दल पंजीकृत हैं और पंजीकरण का काम आम चुनाव घोषित हो जाने के बाद भी जारी रहता है। होना यह चाहिए कि पंजीकरण के न्यूनतम पाँच वर्ष समाज सेवा करने के बाद ही दल की ओर से चुनाव में उतरने की पात्रता हो। पार्टी की ओर से टिकिट पाने के लिए भी न्यूनतम वरिष्ठता अनिवार्य हो जो कम से कम दो वर्ष हो। किसी भी राष्ट्रीय दल के लिए यह जरूरी हो कि वह देश की प्रमुख चुनौतियों के सम्बन्ध में अपना दृष्टि पत्र जारी करे और यह भी स्पष्ट करे कि समान दृष्टिपत्र वाले किसी दूसरे दल के होते हुए भी वह क्यों अलग दल पंजीकृत कराना चाहता है। किसी स्वतंत्र एजेंसी से दलों की सदस्य संख्या का आडिट भी कराया जा सकता है और दोहरी सदस्यता पर रोक लगायी जा सकती है। सहमति बनने पर उम्र की अधिकतम सीमा भी तय की जा सकती है।
अब राजनीति से जुड़े लगभग सबके पास मोबाइल फोन, आधार कार्ड और अपना यूनिक आइडेंटिफिकेशन नम्बर है तो किसी भी क्षेत्र की पार्टी इकाई से अपना उम्मीदवार तय करने के लिए आन लाइन विचार जाने जा सकते हैं। यह अधिक लोकतांत्रिक होगा और राजनीतिक दलों में आंतरिक लोकतंत्र को मजबूत करेगा। इस तरह से धनिकों व दबंगों का दबाव रोका जा सकता है। देखा गया है कि कई दलों में टिकिट बाँटने वाली समिति को छुप कर काम करना होता है और उसके सदस्य अपने ही कार्यकर्ताओं से भागे भागे फिरते हैं। आय के अनुपात में लेवी लेने का नियम भी अगर सभी दलों में लागू कर दिया जाये तो राजनीतिक दलों को कार्पोरेट घरानों के चन्दे के दबाव में काम न करना पड़ेगा और किसी स्वार्थ के कारण राजनीति में घुसपैठ कर वर्चस्व जमाने वालों की विशेष स्थिति को समाप्त किया जा सकता है। आखिर राजनीतिक दलों को उसके अपने सदस्यों के सहयोग से ही चलना चाहिए। निर्वाचन के समय दिये जाने वाले शपथपत्र बताते हैं कि जनप्रतिनिधियों की आय में किस गति से वृद्धि हो रही है। ऐसी वृद्धि वाले राजनीतिक दलों के सदस्यों से आर्थिक सहयोग लेने की जगह बाहर वालों से सहयोग लेना ही राजनीति को भ्रष्ट कर रहा है।     
वीरेन्द्र जैन
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