रविवार, जुलाई 30, 2017

पिछली सदी के छठे सातवें दशक की राजनीति का दुहराव

पिछली सदी के छठे सातवें दशक की राजनीति का दुहराव
वीरेन्द्र जैन
भारतीय जनता पार्टी अतीतजीवी पार्टी मानी जाती रही है जो इतिहास के मुगलकाल को बिल्कुल ही निकाल या बदल देना चाहती है और यही कारण रहा कि उसे स्वतंत्र मीडिया और जनता में रामलीला पार्टी से अधिक महत्व नहीं मिला था। दलित विमर्श के दौरान एक बार राजेन्द्र यादव ने कहा था कि जो लोग अतीत में सुविधा में [कम्फर्टेबिल] थे जैसे कि ब्राम्हण, तो वे अतीत की ओर ही जायेंगे, उसी काल को सर्वश्रेष्ठ मानेंगे व उसी के कथित गौरव को लाने की बात करेंगे, किंतु जो लोग असुविधा में थे जैसे कि दलित, तो वे लोग नये युग की बात करेंगे और अतीत की कढुवाहट से बाहर निकलने की कोशिश करेंगे। इससे ही भाजपा को पहचाना जा सकता है कि वह क्या चाहती है।
एक सेमिनार में भाजपा समर्थक एक प्रतिष्ठित पत्रकार ने दलबदल कानून को गलत बताया और उसे समाप्त करने की वकालत की। जिस दल के पास दौलत और दौलत वाले लोग होंगे वह दलबदल कानून का ही विरोधी नहीं होगा अपितु विचार के प्रति समर्पित राजनीति को भी पसन्द नहीं करेगा। उल्लेखनीय है कि जवाहरलाल नेहरू, और लाल बहादुर शास्त्री के निधन के बाद काँग्रेस का जो आकर्षण घटने लगा और काँग्रेस का एकाधिकार टूटने लगा तब ही दलबदल युग का प्रारम्भ हुआ। पैसे वालों, और पूर्व राज परिवार के लोगों ने अपने खजाने खोल दिये व काँग्रेस के टिकिट पर जीत कर आये पद वंचित नेताओं को खरीदा जाने लगा। काँग्रेस ने भी स्वतंत्रता संग्राम के अपने इतिहास, भयभीत अल्पसंख्यक, और अहसानमन्द दलितों के भरोसे चुनाव जीतने के दम्भ में कभी राजनीतिक लोकतांत्रिक चेतना जगाने की जरूरत नहीं समझी थी। जनप्रतिनिधियों ने मूल्यहीन सत्ता का भरपूर दुरुपयोग करना शुरू कर दिया था और ऐसे ही लालच में पद वंचित काँग्रेसी एन केन प्रकारेण पद पाने की जुगाड़ में जुट गया था। इसी दौरान दल बदल कर पद और धन पाने का अवसर आया तो उन्होंने उसे निःसंकोच स्वीकार किया। काँग्रेस से भाजपा में आवागमन ऐसे हुआ जैसे लड़कियां मायके से ससुराल जाती हैं।
दलबदल के सहारे गैरकाँग्रेसी सरकारें बनवाने और ऐसी सब सरकारों में प्रमुख पद हथियाने में तब की जनसंघ और अब की भाजपा इसलिए सफल हो सकी क्योंकि उसके पास आरएसएस के रूप में एक संगठित, समर्पित और अनुशासित अन्ध समर्थकों का समूह था। वे प्रत्येक सिद्धांतहीन संविद सरकार में सम्मलित होते रहे। सब कुछ जानते हुए भी दलबदल के लिए होने वाले अनैतिक कामों के प्रति कभी संघ ने आपत्ति नहीं की। केन्द्र की सत्ता में भागीदारी के लिए उन्होंने अपने दल को जनता पार्टी में विलीन करना भी स्वीकार कर लिया व इस मामले में जयप्रकाश नारायण की भावना को भी पलीता लगाया। समाज को भ्रमित करते हुए वे अन्दर से संघ हितैषी ही बने रहे। यही कारण था कि दुहरी सदस्यता के आरोप पर ही देश की पहली गैरकाँग्रेसी केन्द्र सरकार का पतन हुआ था। दलबदल के कारण अनेक राज्य सरकारें खोने के बाद काँग्रेस को भी बात समझ में आयी और फिर उसने भी इसी तरीके को अपना कर वापिस सत्ता हथियाना शुरू कर दिया। दलबदल के डर से सरकारें सदैव खतरा महसूस करती रहती थीं।
1984 में श्रीमती इन्दिरा गाँधी की हत्या से निर्मित वातावरण में जब चुनाव हुये तो राजीव गाँधी के नेतृत्व वाली काँग्रेस को दो तिहाई बहुमत प्राप्त हुआ। 1980 में संजय गाँधी की दुर्घटना में हुयी मृत्यु तक राजीव गाँधी राजनीति के प्रति उदासीन थे और बाद में उन्हें उनके अनचाहे राजनीति में लाया गया था। जब उन्हें प्रधानमंत्री बना दिया गया तब यह आशंका पैदा हुयी कि सत्ताओं को संचालित करने वाले कुछ लोग दलबदल करा के उनकी सरकार को गिरा न दें, इसलिए उनके सलाहकारों ने तुरंत दलबदल विरोधी कानून लागू करवाया। इससे उनकी सरकार काफी दिन चल गयी भले ही वह अपना कार्यकाल पूरा न कर सकी हो। यह सच है कि वांछित स्तर तक विचार और सिद्धांत की राजनीति का विस्तार न हो सका पर इस कानून से दलबदल की घातक बीमारी पर अंकुश तो लगा था।
लगभग दो दशक बाद यह बीमारी फिर से एक नये रूप में उभर कर सामने आयी है। उल्लेखनीय है कि राजीव गाँधी के निधन के बाद सोनिया गाँधी भी राजनीति में आने के प्रति अनिच्छुक थीं और उन्होंने एक दशक तक खुद को दूर भी रखा पर जब स्वार्थी गुटों में विभाजित काँग्रेस किसी एक के नेतृत्व पर सहमत नहीं हो सकी तो खुद को अनाथ महसूस करते काँग्रेसी और परदे के पीछे देश चलाने वाला कार्पोरेट जगत उन्हें मना कर ले आये। उनका योगदान केवल इतना रहा कि काँग्रेस तुरंत दो फाड़ होने से बच गयी। बाद में राजनीति के गलत आकलन के कारण शरद पवार और ममता बनर्जी अपना अपना गुट लेकर काँग्रेस से अलग हो गये थे। जल्दी ही काँग्रेस ने यूपीए बना कर अटल बिहारी वाजपेयी की बाइस दलों की खिचड़ी सरकार से सत्ता वापिस ले ली। आहत भाजपा ने विदेशी मूल का मुद्दा उठा कर उन्हें प्रधान मंत्री नहीं बनने दिया, जिस कारण नौकरशाही की मानसिकता वाले मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनना पड़ा।
सत्ता वंचित भाजपाई किसी तरह सत्ता में वापिसी चाहते थे जिसके लिए उन्होंने प्रारम्भिक नानुकुर करने के बाद नरेन्द्र मोदी को अपना नेता स्वीकार कर लिया जो दुनिया भर में अपनी पहचान बना चुके थे भले ही वह पहचान नकारात्मक ही क्यों न हो। सत्ता के लिए उत्सुक भाजपाइयों को उनमें उम्मीद दिखी क्योंकि वे आर्थिक ईमानदारी, औद्योगिक विकास के साथ साथ दृड़ प्रशासक के रूप में भी जाने जाते थे। हिन्दू साम्प्रदायिकता से प्रभावित एक वर्ग उन्हें पसन्द करता था उनकी प्रबन्धन टीम ने काँग्रेसी राज्य के भ्रष्टाचार और अक्षमता को ऐसा धुँआधार प्रचार किया कि मोदी सकारात्मक दिखने लगे। प्रीपोल आदि से आतंकित काँग्रेसी व दूसरे दलों के सांसद भी घबराहट में आ गये और अपनी पार्टी छोड़ कर भाजपा से टिकिट पाने का जुगाड़ बैठाने लगे। कुछ विख्यात कलाकारों को जोड़ा गया और चुनाव प्रमुख की तरह लाये गये अमितशाह ने ऐसे लोगों का हर कीमत पर स्वागत किया। यह दलबदल का नया रूप था। इसी फार्मूले को उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में भी दुहराया गया। अमित शाह की सफलता से चमत्कृत भाजपा में उनकी अध्यक्ष पद पर नियुक्ति का विरोध नहीं कर सका।
अब राष्ट्रपति के चुनाव से लेकर राज्यसभा चुनावों तक यही खेल दुहराया जा रहा है और हाल यह है कि काँग्रेस को अपने विधायकों को बचा कर दूसरे राज्यों के होटलों में रुकाना पड़ रहा है। सत्तर साल के लोकतंत्र में  स्थिति ऐसी दयनीय है और इस व्यापार में क्रेता विक्रेता दोनों ही बराबर के जिम्मेवार हैं। अगर लोकतंत्र से लोगों का विश्वास कम होता गया तो देश को इराक अफगानिस्तान बनते देर नहीं लगेगी। अपने निजी स्वार्थों के लिए लोकतंत्र को कमजोर करने की लगातार कोशिशें खतरनाक हैं।
 वीरेन्द्र जैन
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