शुक्रवार, जुलाई 28, 2017

फिल्म समीक्षा – लिपिस्टिक अन्डर माई बुरका

फिल्म समीक्षा – लिपिस्टिक अन्डर माई बुरका
स्त्री यौनिकता के वर्जित प्रश्न को उठाने की कोशिश

वीरेन्द्र जैन
प्रकाश झा इस बात के लिए जाने जाते हैं कि वे सतही सम्वेदनाओं वाले किशोर मानस के किस्सों वाले आम व्यावसायिक सिनेमा से अलग सामाजिक विषय उठाते हैं और उन पर बाक्स आफिस हिट फिल्में बनाते हैं। लिपिस्टिक अन्डर माई बुरका भी उन्हीं के प्रोडक्शन की फिल्म है जिसे उनकी सहायक रही अलंकृता श्रीवास्तव ने निर्देशित किया है। उनके प्रिय नगर भोपाल में फिल्मायी गई इस फिल्म में रत्ना पाठक और कोंकणा सेन को छोड़ कर अधिकांश सहायक कलाकार भोपाल के हैं।
यह संक्रमण काल है जिसमें बदलते आर्थिक ढांचों के कारण युवाओं की सोच और सपने तो बदल रहे हैं किंतु यह बदलाव अधूरा है क्योंकि समाज का आधा धड़ सामंती मिट्टी में गड़ा हुआ है और आधा पूंजीवादी मूल्यों की हवा में लहरा रहा है। सामंती समाज के युवाओं में बदलाव का साहस न होने के कारण उनके सपने कुंठाओं में ढल रहे हैं। यही कारण है कि उनमें से बहुत सारे युवा सामाजिक दबाव में अपना जीवन चोरों की तरह जी रहे हैं और अपराध बोध से पीले पड़ते जा रहे हैं। एक बड़े नगर में भी पुरानी परम्परा का दबाव इतना है कि अपना जीवन साथी स्वयं चुनने की कोशिश करने वाली लड़की को भी चरित्रहीन समझा जाता है। निर्भया कांड जैसे चर्चित यौन अपराधों के पीछे भी यही दृष्टि रही होगी और देर रात को अपने मित्र के साथ फिल्म देख कर लौट रही लड़की को नशे में धुत बस चालकों ने चालू लड़की समझ लिया होगा। दो भिन्न लिंग के युवाओं की मित्रता हमारा सामंती समाज समझ नहीं पाता है। दूसरी ओर बाज़ारवाद का फैलाव है, जो, अपने उत्पाद बेचने के लिए विज्ञापनों के द्वारा युवा भावनाओं को भड़काता रहता है व विज्ञापन फिल्मों के द्वारा किशोरों को उकसाता रहता है। खास आय वर्ग के लिए उत्पादित सौन्दर्य प्रसाधन इस तरह विज्ञापित किये जाते हैं कि मध्यमवर्गीय युवा वर्ग इन्हें जरूरी आवश्यकताएं समझने लगता है।
इस फिल्म में, इसी प्रभाव में आकर कम आय के टेलरिंग करने वाले परिवार की एक किशोरी बड़े माल और सुपर बाज़ार से मँहगी लिपिस्टिक से लेकर सौन्दर्य प्रसाधन की अन्य चीजें चुराने लगती है। युवाओं की पार्टियों में जाने के लिए वह चोरी से बुरका पहिन कर घर से निकलती है और बाहर जाकर अपने परिधान बदल आधुनिक बनने की कोशिश करती है, वह दुस्साहस करके परिवार में वर्जित लिपिस्टिक लगाती है, जींस पहिन लेती है व वर्जनाओं का विरोध करने वाले प्रदर्शनों में भाग लेती है। संक्रमण काल के इसी समाज में नवधनाड्यों व वैध-अवैध धन संग्रह करने वाले परिवारों के युवाओं की ऐसी दुनिया भी है जो पुरानी वर्जनाओं से मुक्त हो चुके हैं और मनमाना जीवन जी रहे हैं। राजनीतिक व्यवस्था से अनभिज्ञ समाज का अर्थशास्त्र न समझने वाले हजारों युवाओं के वे ही आदर्श बन रहे हैं। यही नासमझी निम्न मध्यमवर्ग के युवाओं को कुण्ठाग्रस्त बना रही है या अपराधी। चैन स्नेचिंग से लेकर बाइकें चुराने वाले छात्र और युवा जब पकड़े जाते हैं तो उनके अपराधों के पीछे यही कुण्ठाएं सामने आती हैं।
मनोवैज्ञानिक रिपोर्टों में कहा गया है कि महिलाओं में पुरुषों की तुलना में कई गुना यौनिकता होती है और यही कारण है कि उन्हें विभिन्न समाजों ने उन्हें कम स्वतंत्रता दी है व अधिक से अधिक बन्दिशें रखी हैं। गर्भधारण वाली देह होने के कारण महिलाओं की यौनिकता उन्हें मजबूर बना सकती है व परजीवी बनने को विवश करती है। शिशु पालन की जिम्मेवारी भी महिला पर आ पड़ती है इसलिए उसकी नैतिकिता ऐसी तय की गयी है कि उसे अपनी यौनिकता पर नियंत्रण रखना पड़ता रहा है। इसका उल्लंघन करने वालों को कठोर सामाजिक व शारीरिक दण्ड दिये जाते रहे हैं। अधिकांश मारपीट से लेकर जिन्दा जला देने की घटनाओं के पीछे महिलाओं की कथित स्वतंत्रता की कोशिश ही रहती आयी है, जिसे अनुशासनहीनता माना जाता है। परिवार नियोजन के साधनों के विकास ने महिलाओं को अनचाहे गर्भ धारण की  कमजोरी से सुरक्षा दी है, जिससे मुक्त होते ही वे भी अपनी देह पर अपना हक चाहती हुयी, स्वाभाविक यौनिकता को जीने के सपने देखने लगती है। फिल्म में ऐसी ही गरीब परिवार की दूसरी लड़की अपने प्रोफेशनल फोटोग्राफर मित्र के साथ निरंतर शारीरिक सम्बन्ध बनाते हुए भी अंततः आजीवन सुरक्षा देने वाले पुरुष की तलाश में रहती है जिसे पति कहा जाता है, व जिसके लिए शादी करना होती है।
तीसरी युवती एक मुस्लिम परिवार की विवाहित महिला है जिसका पति रोजी रोटी के लिए दुबई में काम करता है और चार छह महीने में जब भी आता है तो उसे गर्भवती कर जाता है जिसके कारण वह तीन बच्चों की माँ है व तीन बार गर्भपात करवा करके शारीरिक रूप से कमजोर भी हो चुकी है। बाज़ारवाद द्वारा सिखाये लाइफ स्टाइल को जीने के लिए वह पार्ट टाइम काम करती है और अपनी उपलब्धियों से पति को प्रभावित करने की कोशिश करती है किंतु उसका पति बिना सावधानी के केवल मशीनी सेक्स करने तक उसमें रुचि रखता है। अपनी संतुष्टि के लिए वह दूसरी महिलाओं से मित्रता रखता है। फिल्म के इस हिस्से में क्रोध में बदला लेने के लिए सेक्स करने का चित्रण यह स्पष्ट करता है कि साम्प्रदायिक दंगों के दौरान दूसरे धर्म की महिलाओं के साथ बलात्कार क्यों होते हैं। सुप्रसिद्ध लेखक राजेन्द्र यादव ने एक बार अपने सम्पादकीय में सवाल किया था कि सारी धर्म ध्वजाएं अंततः महिलाओं की योनि में ही क्यों गाड़ी जाती हैं।
चौथी महिला एक प्रौढ महिला है जिसका पति भोपाल गैस कांड का शिकार हो गया था, एक पुरानी हवेली छोड़ गया था। वह इसी हवेली में कई किरायेदार रख कर जरूरत भर गुजर कर रही है, ऊपर वर्णित किरदार भी उसी के किरायेदार हैं। उससे सहानिभूति रखने वाले और जरूरत पर मदद करने वाले लोग उससे परम्परागत नैतिक आचरण की उम्मीद करते हैं, जिसका वह घुट घुट कर निर्वहन भी करती है किंतु अपनी दैहिक भावनाओं को सहलाने के लिए अश्लील कहानियों की किताबें पढ कर मानस सुख लेती रहती है। इन्हीं कहानियों के प्रभाव में वह एक आकर्षक युवा से टेलीफोनिक संवाद का सुख लेने लगती है। उसकी उम्र और सौन्दर्य से अनभिज्ञ वह युवक पहले गलतफहमी में पड़ जाता है, किंतु जब भ्रम टूटता है तो वह उसका अपमान भी करता है। यही अपमान उसे अपने निकट के लोगों से भी मिलता है, जो गाहे बगाहे उसके मदद्गार भी होते हैं।
फिल्म कथात्मक नहीं है किंतु समाज के दोहरे चरित्र के एक हिस्से के अन्दर की सच्चाई को खोलने का  काम करती है। व्यंग्य के शिखर पुरुष हरिशंकर परसाई का पूरा रचना संसार इसी हिप्पोक्रेसी को उजागर करने का काम करता है जिसमें राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक सभी क्षेत्रों को छुआ गया है। यौनिकता के मामले में भी हमारा समाज बहुत पाखंडी है जिससे बहुत से विसंगतियां जन्म लेती हैं। बदलते समाज के अनुसार हमें नैतिकताएं बदलनी चाहिए किंतु उनमें अपना हित बना चुके समाज के लोग उन्हें जड़ बना कर रखे हुये हैं। फिल्म में जीवन के वे क्षण जिन्हें आम तौर पर गोपनीय माना जाता है उन्हें परदे पर सेंसर बोर्ड की अनुमति तक दिखाया गया है जो हमारी परम्परागत सोच को झटका देता है। कुछ लोग इसे अनावश्यक भी मान सकते हैं, और यह भी कह सकते हैं कि इन दृश्यों के बिना भी बात कही जा सकती थी, किंतु यह बात भी हमारी जड़ता की ही याद दिलाती है। टिकिट खिड़की पर समुचित भीड़ जुटाने में भी ऐसे टोटके काम आते हैं, क्योंकि न्यूनतम कमाई करना तो हर फिल्मकार का लक्ष्य होता ही है। चूंकि फिल्म में भावप्रवणता की कोई गुंजाइश नहीं थी इसलिए अनजाने से कलाकारों ने भी अपनी भूमिका का सही निर्वहन किया है जिसमें खामी खूबी ढूंढने की जगह नहीं है। भोपाल फिल्म निर्माण की नई जगह बनती जा रही है जिसमें बहुत सारे स्थल शूटिंग के उपयुक्त हैं। प्रकाश झा उनका कुशलता से उपयोग कर रहे हैं। अछूते विषय लेकर दर्शकों की रुचि को उनकी बुद्धि व भावनाओं के साथ जोड़ कर फिल्में बनना शुभ है, इसे प्रोत्साहन मिलना ही चाहिए।   
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग, रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
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