गुरुवार, सितंबर 14, 2017

हिन्दी दिवस पर - मरती बन्दरिया से खेल दिखाते मदारी

हिन्दी दिवस पर
मरती बन्दरिया से खेल दिखाते मदारी

                                    वीरेन्द्र जैन
              एक होता है हिन्दी दिवस जो भारत वर्ष के हिन्दीभाषी प्रांतों में 14 सितम्बर को मनाया जाता है। इस दिन विद्वान के भेष में दिखने वाले लोग सरकारी गैरसरकारी कार्यालयों में हिन्दी की अवनति पर आँसू बहा कर इस आयोजन के लिए तय बज़ट का व्यय कराने में सहयोगी होते हैं।
                 इस हिन्दी दिवस के साथ हम अगले पचासों हिन्दी दिवसों तक हिन्दी और दूसरी भारतीय भाषाओं के सामाजिक व प्रशासनिक उपयोग में कमी होते जाने का रोना रोयेंगे जो धीरे धीरे एक अवसरगत परम्परा का स्वरूप लेता जायेगा। ऐसा करने वालों में धन्धेवाज़ पत्रकार और हिन्दी भाषा के नाम पर कमाई करने वाले लेखक प्रमुख होंगे जो राजस्थान के रुदालों की तरह अपने अपने रूमाल आँखों से लगाने से पहले फोटोग्राफरों और मीडिया कर्मियों को अपने प्रायोजित कार्यक्रम की सूचना दे देंगे।
       जैसा कि अपने अपने की भावुकता को भुनाने के लिए भाजपा [पूर्व जनसंघ] के जनक राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान का नारा उछाल कर देश विभाजन का सूत्रपात किया था, वैसे ही भावुकता के आधार पर हिन्दी के लिए नकली आंसू बहाने वाले भी करने जा रहे हैं। ये दोनों तरह के रोने वाले भाषा के जन्म, प्रचलन, और भविष्य के बारे में वैज्ञानिक दृष्टि से नहीं सोचते। भाषा को संवाद की ज़रूरत पैदा करती है तथा जब तक वह सहज संवाद को बनाने व बनाये रखने में सक्षम रहती है तब तक वह जीवित रहती है और जब हमारे संवाद के पात्र और विषय बदलने लगते हैं तो उसका स्थान कोई नई भाषा लेने लगती है जो सम्बन्धितों के साथ होने वाले संवाद को अधिक सुविधाजनक बना सके। संस्कृत का स्थान हिन्दी और बोलियों का स्थान खड़ी बोली लेती गयी। हम सब जब अपने मूल निवास की ओर जाते हैं तो अपने पुराने मिलने जुलने वालों से वहीं की बोली में बतिया कर खुश होते हैं पर नगर में वापिस आने पर फिर से खड़ी बोली बोलने लगते हैं।
       जब से नई आर्थिक नीतियों के अंतर्गत हम वैश्वीकरण की ओर बढने लगे  हैं तभी से हिन्दी का स्थान अंग्रेज़ी लेने लगी है, जो स्वाभाविक है। हमें जब जिससे संवाद की निरंतरता बनाये रखनी होगी तो उसको सहज रूप से समझ में आ जाने वाली भाषा का प्रयोग करना होगा। विश्व बैंक व अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष से ऋण प्राप्त करने के लिए अंग्रेज़ी की ही ज़रूरत पड़ेगी जबकि देश के राष्ट्रीयकृत बंकों से ऋण लेने वालों को हिन्दी में फार्म उपलब्ध कराये जाते हैं।
       स्मरणीय है कि 1970 से बाद के दो दशकों में सरकारी कार्यालयों में हिन्दी का तेज़ी के साथ विकास हुआ। यह वह दौर था जब श्रीमती इन्दिरा गान्धी को कांग्रेस के अंदर अमेरिका परस्त गुट से मुक़ाबला करना पड़ा व आत्मरक्षार्थ उन्हें कांग्रेस से बाहर निकालना पड़ा। इस विभाजन से आये अभाव को पूरा करने के लिए उन्हें बामपंथियों से समर्थन माँगना पड़ा, जिन्होंने बैंकों, बीमा कम्पनियों, समेत अनेक जनोपयोगी संस्थानों का राष्ट्रीयकरण चाहा और सार्वजनिक क्षेत्र के विकास को प्राथमिकता पर रखने की सलाह दी। बैंक आदि जब आम आदमी के हितार्थ गाँव गाँव पहुँचे व अनेक तरह की गरीबी उन्मूलन वाली योजनाओं के सहयोगी बने तो उन्हें आम आदमी की भाषा में काम करने के लिए विवश होना पड़ा। यही वह समय था जब बहुत बड़ी संख्या में हिन्दी अधिकारी और अनुवादक नियुक्त हुये। प्रत्येक कार्यालय में हिन्दी के टाइपराइटर आये और परिपत्र हिन्दी में ज़ारी होने लगे। आम आदमी की योजना से जुड़े विज्ञापन हिन्दी में ज़ारी करने पड़े। सरकारी कार्यालयों में नौकरी पाने के इच्छुक लोगों ने हिन्दी सीखना चाही। कुल मिला कर कहने का अर्थ यह कि जब सरकार ने जनता से संवाद करना चाहा तब उसे उसकी भाषा को अपनाना पड़ा। आगे भी जब सरकार जनोन्मुखी होना चाहेगी तो वह हिन्दी और दूसरी लोक भाषाओं का प्रयोग करेगी।
       नई आर्थिक नीतियां आने के बाद सरकार सारी दुनिया से बातें करने लगी है जिसके लिए अंग्रेज़ी ज़रूरी है। इन्हीं नीतियों का ज्वलंत प्रमाण यह है कि आर्थिक विकास की दर प्रगति पर है और किसान हज़ारों की संख्या में आत्महत्याएं कर रहे हैं व भूख से मौतें हो रही हैं। समाज से कुछ लोगों को माडल बना कर उन्हें देश और विदेश में नौकरियां दी जा रही हैं व इन नमूनों को जोर शोर से प्रचार दिया जा रहा है। इसका परिणाम यह निकल रहा है कि लाखों मध्यम वर्गीय परिवार अपने बच्चों को मँहगे मँहगे अंग्रेज़ी स्कूलों में भेज रहे हैं और ऐसे स्कूल कुकरमुत्तों की तरह गली गली में खुल रहे हैं। अब फिर से सब कुछ वैसे ही अंग्रेज़ी में होने लगा है जैसे बीच में लोग हिन्दी के प्रति उन्मुख हुये थे। राजनीति अर्थव्यवस्था को प्रभावित करती है और अर्थव्यवस्था समाज की भाषा और संस्कृति को।
                        यह नया भाषायी रुझान देश में एक और विभाजन पैदा कर रहा है जो निम्नवर्ग और मध्यमवर्ग के बीच है। कुछ दिनों बाद एक की भाषा अंग्रेज़ी होगी और दूसरे की हिन्दी। दूसरे देशों में हिन्दी भाषी होने का अर्थ निम्नवर्गीय होना होगा। हिन्दी दिवस के दिन प्रलाप करने वालों ने कभी समस्या के मूल में जाने की ज़रूरत नहीं समझी। उन्हें तो प्रलाप के पैसे लेने हैं ताकि अंग्रेज़ी स्कूल जाने वाले अपने बच्चे की भारी फीस चुका सकें
वीरेन्द्र जैन        
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