रविवार, सितंबर 24, 2017

फिल्म समीक्षा ; न्यूटन वैज्ञानिक दृष्टिकोण वाले समाज की स्थापना में चुनौतियां

फिल्म समीक्षा ; न्यूटन
वैज्ञानिक दृष्टिकोण वाले समाज की स्थापना में चुनौतियां
वीरेन्द्र जैन
फिल्म मीडिया ऐसा बहु आयामी कला माध्यम है जो कथा/ घटना, दृश्य, अभिनय, गीत, संगीत, तकनीक आदि के माध्यम से जो प्रभाव पैदा करती है वह जरूरी नहीं कि किसी सम्वाद के शब्दों में सुनायी देता हो। न्यूटन भी ऐसी ही एक नायक प्रधान फिल्म है जिसमें सामाजिक, राजनीतिक, प्रशासनिक, आदि बहुत सारे विषयों को एक घटना कथा के माध्यम से समेटा गया है, जो देखने में साधारण लगती है।
राजकुमार राव इस फिल्म के नायक हैं जो न्यूटन नाम के युवा पात्र के रूप में सामने आये हैं। देश में आज़ादी के बाद जो विकास हुआ उसमें बहुत सारे परिवार निम्न आर्थिक वर्ग से उठकर मध्यम वर्ग में सम्मलित हुए हैं। इन परिवारों में पीढियों के अंतराल के कारण या तो घुटन पैदा हुयी है या टकराव पैदा हुआ है। कथा नायक का नाम उसके परिवार द्वारा नूतन [कुमार] रखा गया था पर उसी दौर में नूतन के नाम से कुछ महिलाएं इतनी लोकप्रिय हुयीं कि पुरुषों को यह नाम रखने में शर्म आने लगी। यही कारण रहा कि कथानायक ने स्वयं ही नू को न्यू और तन को टन करके अपना नाम न्यूटन कर लिया। इस तरह उसने नामकरण के पिता के परम्परागत अधिकार के विरुद्ध पहला विद्रोह किया। बाद में माँ बाप की इच्छा के विरुद्ध, एक कम शिक्षित, अल्पवयस्क, लड़की से शादी करने से इंकार करके दूसरा विद्रोह किया।
नियमों और आदर्शों के लिए किये गये छोटे छोटे विद्रोह ही जब परम्परा की गुलामी को तोड़े जाते हैं तभी देश और समाज की जड़ता को तोड़ने वाले विद्रोहों की हिम्मत आती है।
चुनाव का प्रशिक्षण देने वाला प्रशिक्षक जब उसके बार बार सवाल पूछने से खीझ कर उसका नाम पूछता है और न्यूटन बताने पर वह उसे समझाता है कि न्यूटन ने केवल गुरुत्वाकर्षण का सिद्धांत ही नहीं खोजा अपितु यह भी खोजा कि प्रकृति के जो नियम होते हैं वे सभी के लिए समान होते हैं चाहे वह किसी भी आर्थिक वर्ग का व्यक्ति हो। वैज्ञानिकता समानता का सन्देश भी देती है।
फिल्म की कथा में कथा-नायक जो कलैक्टर कार्यालय में बाबू है, को चुनावी ड्यूटी में रिजर्व में रखा जाता है किंतु जब प्रिसाइडिंग आफीसर के रूप में नक्सल प्रभावित दण्डकारण्य़ में जाने से नियमों का ज्ञान रखने वाला एक बाबू तरह तरह के बहाने बना कर मना कर देता है तो कथानायक को वहाँ भेजा जाता है। उसके साथ में जो दूसरे सहयोगी जाते हैं वे ढुलमुल चरित्र के लोग हैं जो बयार के साथ बह कर निजी हित और निजी सुरक्षा की चिंता करने वाले लोग हैं, भले ही देश और नियमों के साथ कोई भी समझौता किया जा रहा हो। कथा-नायक इनसे भिन्न है।
यह फिल्म बताती है कि हमारे लोकतंत्र की सच्चाई क्या है और हम सारे दुनिया के सामने सबसे बड़े लोकतंत्र का जो ढिंढोरा पीटते हैं उसके मतदाता की चेतना और समझ कितनी है। बड़े बड़े कार्पोरेट घरानों द्वारा खनिजों और वन उत्पाद के मुक्त दोहन के लिए नक्सलवाद का जो हौआ खड़ा कर दिया गया है, उससे सुरक्षा के नाम पर पूरे क्षेत्र में अर्धसैनिक बल तैनात हैं जो आदिवासियों का शोषण तो करते ही हैं उन्हें दबा कर भी रखते हैं। नक्सलियों के आतंक के नाम पर चुनाव का ढोंग किया जाता है व भयभीत चुनाव अधिकारियों को वहाँ जाने से रोक कर सुरक्षित नकली पोलिंग करा ली जाती है। कथा नायक से भी यही अपेक्षा की जाती है किंतु स्वभाव से विद्रोही और निर्भय कथा नायक हर हाल में नियमानुसार काम करने के लिए दृढ संकल्प है इसलिए उसकी सुरक्षा अधिकारियों से टकराहट होती है। इसमें उसके सारे सहयोगी निजी सुरक्षा और हित को दृष्टिगत रखते हुए व्यवस्था का साथ देते हैं जिस कारण वह अकेला पड़ जाता है। उससे केवल एक स्थानीय आदिवासी लड़की टीचर सहमत नजर आती है जो बूथ लेवल आफीसर के रूप में ड्यूटी पर है। विदेशी पत्रकार को दिखाने के लिए आदिवासियों को जबरदस्ती पकड़ कर बुलवाया जाता है, जिन्हें न तो वोट डालना आता है न ही वे चुनाव का मतलब ही समझते हैं व पूछते रहते हैं कि इससे फायदा क्या है। उस क्षेत्र में स्कूल और घर जला दिये गये हैं, युवा दिखायी नहीं देते केवल वृद्ध व महिलाएं दिखती हैं। बीएलओ लड़की बताती है कि गाँव वालों को पुलिस की बात मानने पर नक्सली परेशान करते हैं और नक्सली की बात मानने पर पुलिस परेशान करती है। नियम से काम करने वाला सनकी नजर आता है, जिससे धारा के साथ बहने वाले सभी असंतुष्ट रहते हैं, उसके हाथ केवल समय की पाबन्दी का प्रशंसा पत्र रहता है जबकि व्यवस्था का साथ देने वालों का परिवार माल में मंहगी शापिंग करता नजर आता है।
राज कुमार राव, अमरीशपुरी, ओमपुरी, नसीरुद्दीन शाह, शबाना आज़मी, नवाजुद्दीन सिद्दीकी, जैसे आम आदमी के चेहरे वाले बेहतरीन कलाकार हैं और इस फिल्म में भी उन्होंने अपनी प्रतिभा को कायम रखा है। उनके साथ पंकज त्रिपाठी, और अंजलि पाटिल भी भूमिकाओं के अनुरूप अपने अभिनय से प्रभावित करते हैं। लेखक निर्देशक अमित वी मसूरकर ने फिल्म को जिस लगन से बनाया है उसी का परिणाम है कि फिल्म को 67वें बर्लिन फिल्म फेस्टिवल और ट्रिबेका फिल्म फेस्टिवल के लिए चुना गया है। इसे 90वें अकेडमी अवार्ड के लिए श्रेष्ठ विदेशी भाषा के वर्ग में चुना गया है। फिल्म को आस्कर अवार्ड के लिए 2018 के लिए नमित किया गया है। केन्द्र सरकार ने भी पहली बार किसी फिल्म को एक करोड़ रुपये का अनुदान देने का फैसला किया है। फिल्म में छत्तीसगढ के जंगलों का सौन्दर्य प्रभावित करता है।
वीरेन्द्र जैन
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