रविवार, मार्च 26, 2023

फिल्म समीक्षा भीड़- कोरोना त्रासदी के बहाने व्यवस्था की पर्तें उघाड़ती फिल्म

 

फिल्म समीक्षा

भीड़- कोरोना त्रासदी के बहाने व्यवस्था की पर्तें उघाड़ती फिल्म 



वीरेन्द्र जैन

‘भीड़’ सोद्देश्य सामाजिक फिल्में बनाने वाले प्रसिद्ध फिल्म निर्देशक अनुभव सिन्हा की फिल्म है। यह ’ कोरोना जैसी आपदा के आतंक में सरकार द्वारा बिना ज्यादा सोचे समझे लाक डाउन करने के दुष्परिणामों की कहानी है। ये वही अनुभव सिन्हा हैं जिन्होंने ‘मुल्क’ ‘थप्पड़’ और ‘आर्टिकल 15’ जैसी बहु चर्चित फिल्में बनायी हैं। 

इस फिल्म को देख कर मुझे हिन्दी के सुप्रसिद्ध कवि मुकुट बिहारी सरोज की कविता ‘असफल नाटकों का गीत’ याद आया। सरोज जी के अनेक गीतों में सांगरूपक अलंकार का प्रयोग देखने को मिलता है। उक्त गीत में उन्होंने असफल नाटक का रूपक लेकर पूरी व्यवस्था और उसकी कमियों को चित्रित किया है। इसमें ही एक पद है-

नामकरण कुछ और खेल का खेल रहे दूजा

प्रतिभा करती गयी दिखायी लक्ष्मी की पूजा

अकुशल, असम्बद्ध निर्देशन दृश्य सभी फीके

स्वयं कथानक कहता है, अब क्या होगा जी के

पात्रों की सज्जा क्या कहिए, जैसे भिखमंगे

एक ओर पर्दों के नाटक, एक ओर नंगे

राम करे दर्शक दीर्घा तक आ न जायें दंगे

       अनुभव सिन्हा ने इस फिल्म में लाकडाउन में रोजगार खो चुकने के बाद, नगरों में प्रवास कर रहे मजदूरों और उनके परिवारों की गाँव वापिसी के प्रयासों को मुख्य कथानक के रूप में लिया है| उनमें से ज्यादातर के पास न समुचित खाना है, न पानी है, न कपड़े हैं, न पैरों में चप्पल है, न आवागमन के साधन हैं, न पैसा है और फिर भी वे अपने उस गाँव वापिस जाना चाहते हैं जिसे बेरोजगारी के कारण छोड़ कर शहर में आये थे। त्रासदी यह है कि शासन प्रशासन के पास न विवेक है, न संवेदनशीलता और बीमारी ऐसी है जिसमें बचाव के लिए उचित दूरी बनाये रखने की जरूरत है। बीमारी, उपचार और इंतजाम के बारे में सूचना का कोई उचित माध्यम नहीं है इसलिए सभी रेलें बन्द हो जाने के भ्रम में पैदल चलते हुए कुछ मजदूर रेल पटरी पर चलते हुए वहीं सो जाते हैं और मालगाड़ी उन्हें रौंद कर चली जाती है। अफवाहें फैलाने के लिए व्यवस्था द्वारा पोषित सोशल मीडिया यह भ्रम फैला रहा है कि सरकार उनके बारे में चिंतित है और बैठक कर रही है। जबकि सच यह है कि किंकर्तव्यविमूढ प्रशासन ने उन्हें भगवान भरोसे छोड़ दिया है। दूसरी ओर बीमारी को फैलने से रोकने के लिए दूरी बनाये रखने की जिम्मेवारी पुलिस को सौंपी गयी है जिनके काम करने का अपना तरीका है। वे हर काम डंडे के सहारे करना चाहते हैं और हर काम में अतिरिक्त कमाई की सम्भावनाएं तलाशते रहते हैं। इस दौरान चर्चा में आयी अनेक सच्ची घटनाओं को भी कहानी में पिरोया गया है जिसमें सीमेंट मिक्सर में ठूंस कर लाये गये मजदूरों की दारुण दशा हो या किसी लड़की द्वारा साइकिल पर अपने बीमार शराबी पिता को ढोने और भोजन व रास्ता तलाशने के जीवट की घटना हो। इन यात्रियों को सेनेटाइज करने के नाम पर वस्तुओं या जानवरों की तरह सेनेटाइजर से शावर का प्रयोग रोंगटे खड़े कर देता है।

विभुक्षं किं न करोति पापं की तर्ज पर पहले तो मजदूर पुलिस से उन्हें जाने देने की अनुयय विनय करते हैं किंतु जब बच्चे भूख से बिलबिलाने लगते हैं, अपने बीमार साथी को बीमार न बताते हुए उसका इलाज भी कराना है तो मजदूर उत्तेजित हो जाते हैं। जब उन्हें पता चलता है सोशल मीडिया के द्वारे फैलाये जा रही बातें झूठ हैं और ना तो कोई बैठक चल रही है और ना कोई इंतजाम हो रहा है तो वे उत्तेजित हो जाते हैं व ऐसे हर बेचैन विद्रोही व्यक्ति के लिए पुलिस अधिकारी के पास एक ही गाली है कि नेतागीरी चढ गयी है या नक्सलाइट हो रहा है।

सरकार का वर्गीय़ चरित्र बताने के लिए कहानी में उस चैक पोस्ट के पास जहाँ मजदूरों को रोका गया है और वे भूख से बिलबिलाने लगे हैं, एक माल खड़ा है जिसे भी लाकडाउन में बन्द कर दिया गया है। मजदूरों के बीच एक व्यक्ति [पंकज कपूर ] जो सेक्योरिटी गार्ड का काम करता रहा है, बन्दूक चलाना भी जानता है, वह अपने साथ आये मजदूरों का नेतृत्व करता है और उनकी बात को पुलिस अधिकारियों के सामने रखता है। वह कहता है कि उसने एक माल में भी सेक्युरिटी गार्ड का काम किया है। वह जानता है कि माल के फूड कोर्ट में रखा सामान खराब हो जायेगा इसलिए उसे भूखे मजदूरों और बच्चों के लिए ले आने की अनुमति दी जाये। प्रशासनिक अधिकारी को उनकी चिंता नहीं है किंतु माल की सुरक्षा की चिंता है इसलिए वह अनुमति नहीं देता है व और बन्दूकधारी पुलिस बुलवा लेता है। वह गार्ड एक पुलिस वाले की बन्दूक छीन कर माल में घुस जाता है तो पुलिस उसे माल में घेर लेती है। एक जूनियर इंस्पेक्टर [राजकुमार राव ] है जो दलित है और चैक पोस्ट का इंचार्ज बनाया गया है, वह अपने गाँव की एक डाक्टरी पढ रही लड़की [ भूमि पेंडेकर ] से प्रेम करता है जो सवर्ण परिवार से है और चोरी छुपे उससे मिलने आती रहती है। इस समय आकर वह  इस लाकडाउन में फंस जाती है जो गरीब मजदूरों और बीमारों की सेवा में जुट जाती है।

       प्रेम मनुष्य को ज्यादा सम्वेदनशील और मानवीय बनाता है। 

मजदूरों का नेतृत्व करने वाला व्यक्ति वैसे तो मानवीय है किंतु जति से ब्राम्हण है और गाँव के मुसलमानों द्वारा बांटे जा रहे खाने के पैकिटों को लेने से इंकार कर देता है और बस में भी किसी को नहीं लेने देता है। इस तरह साम्प्रदायिकता के बन्धन को रेखांकित किया गया है। एक स्थानीय नेताजी के भाई उस दलित सब इंस्पेक्टर को नाम के कारण ठाकुर समझता है और जातिवाद का दुरुपयोग करते हुए कुछ अपने लोगों को जाने देने की अनुमति चाहता है किंतु इंस्पेक्टर उसे बता देता है कि वह सरकार के आदेश का ही पालन करेगा, और कि वह उनकी जाति का नहीं है इसलिए यह कार्ड न खेले।

इसी समय एक पैसे वाली महिला [ दिया मिर्जा ] अपनी फार्च्यूनर गाड़ी से लकडाउन के कारण किसी हास्टल में फंस गयी अपनी बेटी को लेने के लिए निकली है किंतु उसे भी निकलने नहीं दिया जाता। उसे मजदूरों की कोई चिंता नहीं है, वह तो किसी तरह केवल अपना स्वार्थ सिद्ध करना चाहती है। जब साइकिल से अपने पिता को ढोकर ले जाने वाली लड़की एक कच्चे रास्ते से निकलने की कोशिश करती है तो वह अपने ड्राइवर को उसके पीछे पीछे चलने को कहती है ताकि वह निकल सके। जब एक गड्ढे से निकलते हुए वह लड़की गिर जाती है तो उस पैसे वाली महिला का ड्राइवर अपने वर्गीय सहानिभूति में गाड़ी रोक कर उसे उठाने उतर जाता है तो उसके इस व्यवहार पर वह [दिया मिर्जा] बहुत चिल्लाती है। ड्राइवर उसकी बिल्कुल परवाह नहीं करता किंतु मानवीय सोच के कारण लौट आता है और इसे जता भी देता है।

एक अधिकारी के रूप में [ आशुतोष राणा ] अपने माँ बाप के कोरोना पीड़ित होते हुए भी उन्हें अस्पताल के फर्श पर सोने के लिए छोड़ कर माल की सुरक्षा के लिए लौट आता है जो प्रशासनिक अधिकारियों के बुर्जुआ चरित्र को प्रकट करता है। फिल्म की कास्टिंग भूमिका के अनुसार बहुत सही है। छोटी छोटी भूमिकाएं, पीपली लाइव फेम नत्था, और वीरेन्द्र सक्सेना को भी दी गयी हैं। सारे अभिनेताओं ने मिल कर निर्देशक की टीम को उनकी मंशा पूरी करने में मदद की है। पंकज कपूर, राजकुमार राव, और आशुतोष राणा तो निर्विवाद रूप से अमरीश पुरी, ओम पुरी, नसरुद्दीन शाह, नवाजुद्दीन, रवीन्द्र त्रिपाठी की परम्परा के कलाकार हैं जो भूमिका में जान डाल देते हैं।

फिल्म ब्लैक एन्ड व्हाइट बनायी गयी है जिस विचार के लिए निर्देशक की दृष्टि की प्रशंसा की जानी चाहिए। कुल मिला कर यह एक अच्छी फिल्म है जो इसे नहीं समझ पाये उनकी समझ पर तरस ही खाया जा सकता है।

वीरेन्द्र जैन

2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड

अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023

   

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