न्यूनतम साझा कार्यक्रम के बिना कहीं ये ममता मँहगी न पड़े
वीरेन्द्र जैन
लोकसभा चुनाव जीतने के बाद न केवल काँग्रेस पार्टी और उसके सदस्य ही उत्साहित हैं अपितु देश भर में अस्थिरता के भय से आतंकित जनता ने भी एक संतोष की सांस ली है। पर यूपीए ने जिन चुनावपूर्व घटकों के मतों को मिला कर अपना बहुमत पाया है तथा जिनके होने के कारण वह अमरसिंह के इशारों पर चलने वाली समाजवादी पार्टी और मायावती की बहुजनसमाज पार्टी के उतावले बिना शर्त समर्थन को ठुकरा सकी है उसमें ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस की उन्नीस सीटें भी सम्मिलित हैं। स्मरणीय है कि ममता बनर्जी ने अपनी राजनीति बंगाल में काँग्रेस पार्टी की छात्र शाखा की सदस्यता से ही शुरू की थी तथा अपने जुझारूपन से पायी लोकप्रियता के आधार पर उन्होंने उस समय के वरिष्ठ नेता सोमनाथ चटर्जी को भी जादवपुर लोकसभा क्षेत्र से पराजित किया था। 1991 की नरसिंहराव की सरकार में उन्हें मानव संसाधन विकास, युवामामले और खेल मंत्रालयों में राज्यमंत्री बनाया गया था। बाद में बंगाल के नेताओं के साथ मतभेदों के चलते केन्द्र की खेल विभाग की मंत्री होते हुये भी कलकता के ब्रिग्रेड मैदान में उस रैली का नेतृत्व किया था जो केन्द्र सरकार द्वारा खेलों के विकास पर ध्यान न देने के विरोध में बुलायी गयी थी, इसी कारण 1993 में उन्हें मंत्री पद से मुक्त कर देना पड़ा था। वे बंगाल के काँग्रेस नेताओं को वहाँ की सीपीएम सरकार का पिछलग्गू बता कर सार्वजनिक निंदा करती थीं। उनके जीवन का इकलौता लक्ष्य बंगाल की सीपीएम सरकार का तीव्र विरोध करना रहा है और कांग्रेस के जिम्मेवार नेतृत्व को वे हमेशा कमजोर बताती रही हैं। 1996 में उन्होंने नारा दिया कि वे बंगाल में विरोध की इकलौती आवाज हैं तथा एक साफसुथरी काँग्रेस चाहती हैं। 1996 में उन्होंने कलकता में अलीपुर में आयोजित एक रैली में एक काले शाल को अपने गले में कस लिया था और फाँसी लगा लेने की धमकी दी थी। जुलाई 96 में पैट्रोलियम पदार्थों की दरों में वृद्धि के खिलाफ वे गर्भगृह में उतर आयी थीं जबकि उस समय वे सरकार चलाने वाली पार्टी में ही थीं। इसी तरह महिला आरक्षण विधेयक के सवाल पर उन्होंने लोकसभा के गर्भगृह में जाकर समाजवादी पार्टी के एक सांसद का गला पकड़ लिया था। फरबरी 1997 में उन्होंने रेलवे बजट में बंगाल के लिए रेल की समुचित सुविधाएं न देने के आरोप में तत्कालीन रेल मंत्री रामविलास पासवान पर अपना शाल फेंक कर मारा था और अपने त्यागपत्र की घोषणा कर दी थी। लोकसभा अध्यक्ष पी ए संगमा ने उनका स्तीफा स्वीकार नहीं किया था तथा माफी मांगने को कहा था बाद में संतोषमोहन देव की मध्यस्थता पर वे वापिस लौटी थीं। अंतत: 1997 में उन्होंने बंगाल की काँग्रेस पार्टी में विभाजन करके आल इंडिया तृणमल काँग्रेस बना ली थी। इतना ही नहीं 1999 में कॉग्रेस पार्टी की धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा की विरोधी भाजपा सरकार में सम्मिलित हो गयीं व रेल मंत्री ही बन कर रहीं। समर्थन के लिए मजबूर अटल बिहारी की सरकार को उनकी शतें माननी ही पड़ीं। मंत्री बनते ही उन्होंने अपने पहले रेल बजट में बंगाल के लोगों से किये बहुत सारे वादे पूरे कर दिये जबकि देश के दूसरे हिस्से कुछ जरूरी मांगों की पूर्ति से वंचित रह गये। उन्होंने बंगाल के लिए नई दिल्ली सियालदहा राजधानी एक्सप्रैस, हावड़ा पुरलिया, सियालदहा न्यूजलपाईगुड़ी, शालीमार बांकुरा, पुणे हावड़ा आदि गाड़ियां चलायीं व अनेक के क्षेत्र में विस्तार किया। 2001 में भाजपा पर आरोप लगाते हुये उन्होंने राजग सरकार छोड़ दी। बाद में 2004 में वे फिर से सरकार में सम्मिलित हो गयीं व कोयला मंत्रालय स्वीकार कर लिया। 2004 के लोकसभा चुनाव में वे तृणमूल काँग्रेस की ओर से जीतने वाली इकलौती सांसद थीं। अक्टूबर 2006 में उन्होंने बंगाल में घुसपैठियों की पहचान के सवाल पर अपना स्तीफा लोकसभा के उपाध्यक्ष चरण सिंह अटवाल के मुंह पर दे मारा।
ममता बनर्जी पर कभी भी भ्रष्टाचार और पद के दुरूप्योग के कोई गंभीर आरोप नहीं लगे तथा पद त्यागने का अवसर आने पर उन्होंने कभी देर नहीं की। उनकी राजनीति आन्दोलन की राजनीति रही जिसके द्वारा उन्होंने बंगाल की मार्क्सवादी सरकार के विरोधियों का नेतृत्व सहज ही हस्तगत कर लिया। यह विरोध करते हुये उन्हें लगभग 25 साल हो गये हैं जिससे उनका पूरा व्यक्तित्व ही एक जुझारू नेता का व्यक्तित्व हो गया है। इतिहास बताता है कि ऐसे व्यक्तित्व के धनी लोगों का स्वभाव सत्ता प्रतिष्ठान विरोधी हो जाता है व वे शासन करने में अनुकूलता महसूस नहीं करते है। ममता ने भी केन्द्रीय मंत्रिपद को कई बार छोड़ा है। इस बार भी उन्हें उनकी पसंद का मंत्रालय ही देना पड़ा है पर फिर सबके साथ शपथ ग्रहण करने के बाद भी उन्होंने चार्ज लेने में कोई उतावला पन नहीं दिखाया व अपनी पार्टी में सामूहिक नेतृत्व के प्रति सम्मान प्रदशिर्त करते हुये बयान दिया था कि वे चार्ज तभी ग्रहण करेंगीं जब उनके अन्य साथियों को मंत्री पद मिल जायेगा। इसका एक अर्थ यह भी निकलता था कि यदि उनके साथियों की संख्या या मंत्रालय के चुनाव में कोइ असंतोष दिखा तो वे चार्ज लेने से इंकार कर सकती हैं। बाद में उन्होंने एक सर्वथा नई परंपरा स्थापित करते हुये अपने मंत्रालय का चार्ज दिल्ली की जगह कलकत्ता में ग्रहण किया। वे केन्द्रीय सरकार की मंत्री हैं न कि बंगाल की मंत्री हैं और उनका यह कृत्य सरकार के सामूहिक कृत्यों से अलग राह अपनाने की तरह दिखायी देता है जो एक खतरे की घंटी है। यदि उन्हें बंगाल में रह कर सीपीएम विरोध की राजनीति ही उचित लग रही थी तो उन्हैं केन्द्रीय मंत्री का पद ग्रहण नहीं करना चाहिये था पर जब ग्रहण कर लिया था तब बंगाल में चार्ज लेने का दिखावा नहीं करना चाहिये था, पर ना तो उन्हें इस काम से यूपीए की अध्यक्ष ही रोक सकीं और ना ही प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ही रोक सके। यह एक गैर सैद्धांतिक मनमाना दबाव है जिसका संदेश एक स्थायी सरकार की वाहवाही की चमक को कम करता है। वे इस तरह एक बार फिर भविष्य में बंगाल की सरकार के खिलाफ किये जाने वाले अपने आंदोलनों से केन्द्रीय सरकार को संकट में डालने के संकेत दे रही हैं। स्मरणीय है कि चुनावों के दौरान काँग्रेस नेताओं और भाजपा नेताओं के बीच जो कटु बयानबाजी हुयी और अपशब्दों के प्रयोग तक बात पहुँची उस बीच भी काँग्रेस ने पिछली सरकार के कार्यकाल के दौरान वामपंथी सदस्यों से सैद्धांतिक विरोध के बाबजूद मिले समर्थन की तारीफ की थी और उनके सहयोग के लिए आभार व्यक्त किया था। न्यूक्लीयर डील पर आये विशवास प्रस्ताव के दौरान भी काँग्रेस नेताओं ने वामपंथियों के योगदान की प्रशांसा की थी तथा उनके न्यूक्लीयर डील पर विरोध को समझ का फेर बताया था। जबकि इसके उलट वामपंथियों के तेवर तर्कों पर आधारित होते हुये भी तीखे थे। वे काँग्रेस की आर्थिक नीतियों से अपनी असहमति के कारण मंत्रिमंडल में सम्मिलित नहीं हुये थे और अपनी असहमतियों को उन्होंने कभी छुपाया भी नहीं। यही कारण है कि अपना समर्थन देने से पहले उन्होंने न्यूनतम साझा कार्यक्रम बना कर यह स्पष्ट कर दिया था कि उनका सहयोग कितना और कहाँ तक है। दूसरी ओर ममता बनर्जी ने अपनी राजनीति व सहयोग की सीमाएं स्पष्ट नहीं की हैं और अपनी मनमानियां शुरू कर दी हैं।
अमरसिंह के संचालन में चलने वाली समाजवादी पार्टी भरासेमंद पार्टी नहीं है तथा मायावती की राजनीति सबसे निरंतर असहयोग कर अपना अस्तित्व बचाये रखने की राजनीति है इसलिए दोनों को ही सरकार में सम्मिलित न करने का निर्णय बहुत सही निर्णय रहा है। किंतु डीएमके का तरीका बहुत ही नग्न ब्लैकमेलिंग और सत्ता प्रतिष्ठानों पर चुने हुये पदों पर अधिकार जमाने का तरीका है। इसलिए जरूरी है कि ममता बनर्जी के साथ सहयोग और उनके काम करने के तरीके के प्रति काँग्रेस कुछ नीति व सिद्धांत तय कर ले ताकि उसे बीच रास्ते में गलत हाथों का साथ तलाशना व उन के उनकी शर्तों पर सौदा न करना पड़े। सबसे अच्छा होगा अगर वे न्यूनतम साझा कार्यक्रम बनाये और घोषित कर दें।
वीरेन्द्र जैन
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यह जानकार अच्छा लगा कि आप भी भोपाल के रहने वाले हैं. मैं भी राज होम्स (मिनाल) का बाशिंदा हूँ और दिल्ली में नौकरी करता हूँ. आपके विचारों से मैं इत्तेफाक रखता हूँ.
जवाब देंहटाएंहिंदी में प्रेरक कथाओ, प्रसंगों, और रोचक संस्मरणों का एकमात्र ब्लौग http://hindizen.com अवश्य देखें.