हिन्दी संस्कृत और साम्प्रदायिक राजनीति
वीरेन्द्र जैन
संस्कृत हमारे देश की प्राचीन भाषाओं में से एक है तथा देश के अधिकतर भूभाग में बोली जाने वाली भाषाओं में से अधिकांश का विकास संस्कृत से हुआ है। प्राचीन काल के धर्मग्रन्थ ही नहीं आयुर्वेंद आदि जनहितैषी ज्ञान के अनेक ग्रन्थ संस्कृत में लिखे हुये पाये जाते हैं। हमारे देश के प्राचीन काल के धर्म आध्यात्म इतिहास पुरातत्व चिकित्साविज्ञान, समाजशास्त्र अर्थशास्त्र साहित्य आदि के सटीक अध्ययन के लिए संस्कृत, पाली, प्राकृत आदि का ज्ञान आवशयक है। इसलिए इन क्षेत्रों में कार्य करने वालों के लिए संस्कृत अध्ययन के महत्व से इंकार नहीं किया जा सकता। वैसे भी किसी भी अध्ययनशील एवं शोध विद्वान को अनेक भाषाओं का ज्ञान होने पर उसके कार्य की गुणवत्ता कई गुनी बढ जाती है, इसलिए भाषाओं के अध्ययन के लिए बनने वाले अधिकतम संस्थानों का स्वागत किया जाना चाहिये।
संस्कृत के एक शलोक में कहा गया है-
विद्यायां विवादाय, धनं मदाय, शक्तिं परेशां परपीडनाय
खलस्य साधूनाम विपरीत बुद्धि, ज्ञानाय दानाय च रक्षणाय
(अर्थात दुष्ट प्रकृति के लोगों की विद्या विवाद के लिए धन घमंड के लिए और शक्ति दूसरों को पीड़ा पहुँचाने के लिए होती है जबकि साधु प्रकृति के लोगों की विद्या ज्ञान के लिए धन दान के लिए और शक्ति दूसरों की रक्षा के लिए होती है।)
गत दिनों संस्कृत भाषा के अध्ययन के नाम पर जो कुछ भी, जिस अंदाज से, और जिन लोगों द्वारा किया जा रहा है उससे ऐसा नहीं लगता कि उनको इस प्राचीन भाषा के अघ्ययन के महत्व से कुछ लेना देना है। खेदजनक है कि कुछ राजनीतिक ताकतों द्वारा संस्कृत विशवविद्यालय की स्थापना ही नहीं, माध्यमिक कक्षाओं में संस्कृत शिक्षकों की भरती के लिए उसे अनिवार्य विषय बनाना, अतिरिक्त घूमधाम से संस्कृत दिवस मनाना, संस्कृत के लेखकों को भारी भरकम पुरस्कार देना आदि अनेक दिखावे केवल विभाजनकारी साम्प्रायिक राजनीति को प्रोत्साहित करने की दृष्टि से किये जा रहे हैं। जैसे एक तरह की साम्प्रदायिक राजनीति ने उर्दू को मुसलमानों की भाषा बनाने की शातिर कोशिश की है उसी तरह प्रतिक्रियावादी राजनीति संस्कृत को उसके सामने रखने का प्रयास कर रही है। ये दोनों ही प्रयास न केवल कुत्सित हैं अपितु हास्यास्पद भी हैं। उर्दू हिंदुस्तान में पैदा हुयी हिंदुस्तान की भाषा है जिसे सारे देश से आये हुये विभिन्न भाषा भाषी सैनिकों के बीच एक साझा भाषा के रूप में विकसित कर के उस समय के बादशाहों ने अपने साम्राज्य प्रसार अभियान में व्यवस्था बनायी थी। बाद में दो तीन सौ साल यह दरबार और अदालती व सरकारी काम काज की भाषा बनी रही। आज भी तथाकथित हिन्दीभाषी क्षेत्रों में पचास प्रतिशत से अधिक शब्द उर्दू के होते हैं। हिन्दी और उर्दू दोनों का ही विकास संस्कृत के शब्दों से हुआ है। दोनों ही भाषाओं में कभी कोई टकराहट नहीं रही, हो भी नहीं सकती। पर अब जब साम्प्रदायिक राजनीति जीवन के हर पक्ष को विभाजित करना चाह रही है उसने उर्दू और संस्कृत को आमने सामने करने के तीखे प्रयास प्रारंभ कर दिये हैं, जिससे अंतत: देश की बहुसंख्य जनता की बोलचाल की भाषा हिन्दी के पक्षधर भ्रमित हो रहे हैं।
भाषा संवाद का माध्यम होती है। जब एक व्यक्ति अपने मन में पैदा हुये विचार को दूसरे के सामने प्रकट करना चाहता है तो उसे भाषा का सहारा लेना होता है। एक सही और सफल संवाद उस भाषा के माध्यम से ही संभव हो सकता है जो दो या दो से अधिक लोगों को समान रूप से आती हो। यदि साझा भाषा का विकास होगा तो लोगों के बीच में संवाद का भी विस्तार होगा पर यदि हम लोग अलग अलग भाषाएं ही पढेंगे लिखेंगे और बोलेंगे तो एक दूसरे से कट जायेंगे और संवादहीनता की स्थितियाँ बढेंगीं। जो लोग समाज के लोगों में बंटवारा करने में ही अपनी राजनीति की सफलता देखते हैं वे भाषा के क्षेत्र में भी ऐसे प्रयास करते हैं ताकि लोगों के बीच बंटवारा हो। संस्कृत हिन्दी उर्दू मराठी गुजराती तेलगु तामिल कन्नड़ पंजाबी बंगाली आदि सभी भाषाओं का आवशयकतानुसार समुचित पठन पाठन होना चाहिये ताकि अधिक से अधिक अनुवादक पैदा हों और अधिक से अधिक संवाद हो सके। आज बोलचाल की हिन्दी इस बात में समर्थ है कि वह अधिक से अधिक लोगों के बीच संवाद बना सके क्योंकि उसमें संस्कृत उर्दू अंग्रेजी समेत ढेर सारी दूसरी भारतीय भाषाओं के हजारों शब्द प्रयुक्त होते हैं, इसीलिए राष्ट्रभाषा प्रचार समिति की स्थापना करने वाले गांधीजी उसे हिंदुस्तानी कहते थे व हिन्दी के सबसे बड़े कथाकार प्रेमचन्द इसी हिन्दुस्तानी के पक्षधर थे जिसमें हिन्दी उर्दू व संस्कृत के शब्द उपयोग के अनुपात में प्रयुक्त होते हैं। यह समाज को जोड़ने की भाषा है।
संस्कृत हमारी पुरानी भाषा होते हुये भी आज देश में संवाद की भाषा नहीं है। जन भाषा तो वह कभी भी नहीं रही अपितु सदैव ही 'देव भाषा' रही। कालिदास के ग्रन्थों में भी जब दास दासी अपनी आपस की बात करते हैं तो पाली प्राकृत जैसी भाषा का प्रयोग करते हैं पर जब प्रभुवग(इलीटक्लास) के पात्र संवाद करते हेैं तो वे संस्कृत में करते हैं। तुलसी ने जब पहली बार जनभाषा में रामचरित मानस की रचना की तो उन्हें बनारस के ब्राम्हणों का हिंसक प्रतिरोध झेलना पड़ा था जिनका कहना था कि कहीं प्रभु चरित्र 'भाखा' (आम लोगों की बोलचाल की भाषा) में लिखा जा सकता है जिसे शूद्र बोलते हैं! बाद में उन्हें रामचरित मानस को जनजन तक पहुँचाने के लिए अखाड़ों की मदद लेना पड़ी थी, जिससे रामचरित मानस पूरे हिन्दीभाषी क्षेत्र का सामाजिक संविधान बन सका। आज देश के प्रधानमंत्री जब लालकिले से राष्ट्र के नाम संदेश प्रसारित करते हेैं तो वे हिन्दुस्तानी में ही बोलना जरूरी समझते हेैं।
हिन्दू साम्प्रदायिकता की राजनीति करने वालों का प्रयास रहता है कि देश को मुगलकाल से पीछे ले जायें और उस काल को स्वर्णिम काल सिद्ध करने का प्रयास करें ताकि ऐसा लगे कि देश में मुगलों के आने से पहले सब कुछ अच्छा था,जब कि सच यह है कि राजतंत्र में शासक वर्ग और शासित वर्ग की दशाओं में बहुत अधिक अंतर नहीं रहा। समय के साथ साथ मनुष्यता ने क्रमश: ज्ञानविज्ञान के क्षेत्र में विकास किया है व समाज और जीवन को निरंतर अधिक सुविधाएं व समान अधिकार देने का कार्य किया है। जो सबसे अधिक दलित और वंचित था उसकी दशा में उल्लेखनीय सुधारात्मक परिवर्तन का लक्ष्य बनाया गया है तथा शोषितवर्गों के अधिकारों में कटौतियां करने के प्रयास हुये हैं।
संस्कृत जैसी पुरानी सम्मानित भाषा के नाम पर साम्प्रदायिक राजनीति करने वाले आज मोटर चालित वाहनों को रथ बताने लगते हैं व स्कूलों को मन्दिर (सरस्वती शिशु मन्दिर) कहने लगते हैं। उनके झन्डे ध्वज कहलाने लगते हैं व यूनीफार्म गणवेश होने लगते हैं। संस्कृत विद्यालयों के नाम पर वे हिंदुत्व और साम्प्रदायिकता में भेद न समझने वाले भावुक लोगों की भरती करके उन्हें अपनी राजनीति के सिपाही बना लेना चाहते हैं। कालेजों में संस्कृत में एडमीशन के लिए प्राघ्यापक छात्रों से अनुरोध करते पाये जाते हेैं ताकि उनका स्थान बना रहे। वे अयोग्य से अयोग्य छात्रों को भी प्रथम श्रेणी दिलाने का आशवासन देते हैं तथा उसे पूरा भी करते हैं। मेरे गृहनगर के महाविद्यालय के प्राचार्य अपने संस्कृत प्राध्यापक के बारे में व्यक्तिगत बातचीत में बताते थे कि वह संस्कृत में पचास पंक्तियां भी नहीं बोल सकता और शुद्ध तो चार पंक्तियां भी नहीं बोल सकता।आज पूरे देश में एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं है जिसके दैनिंदिन कार्यों की मुख्य भाषा संस्कृत हो
संस्कृत के एक प्राचीन भाषा के रूप में यथायोग्य पठनपाठन हेतु सुविधाएं सुनिशचित करने की जगह उसका हिन्दी(हिन्दुस्तानी) के समानान्तर मार्केटिंग करने से वह बोलचाल की भाषा नहीं बन जायेगी पर हिन्दी के आन्दोलन को अवशय ही नुकसान पहुँचेगा जो राष्ट्रीय स्तर के संवाद और उससे जनित होने वाली राष्ट्रीय एकता के मार्ग में बाधाएं अवशय ही खड़ी करेगा। आज के ग्लोबलाइजेशन के जमाने में भाषाएं आपस में गले मिल कर अपनी कठोर मुद्राओं को विसर्जित करके तरल हो रही हैं तब एक अतीत की भाषा को जनभाषा के रूप में थोपने के प्रयास बिडम्बनापूर्ण हैं।सन 2008 में भारत सरकार ने चीन के सबसे बड़े हिन्दी विशोषज्ञ जियालिन को पद्मभूषण सम्मान से सम्मानित किया था तथा हमारे विदेशमंत्री प्रणवमुखर्जी ने स्वयं चीन जाकर 96 वर्षीय विद्वान को सम्मानित किया था। उनका कहना है कि दुनिया में एकता और शांति में अनुवाद और भाषाओं के मेल जोल का योगदान सबसे महत्वपूण्र् है। इसी के उलट कहा जा सकता है कि भाषाओं के बीच में टकराव पैदा करने वाले लोग सामाजिक शांति के सबसे बड़े शत्रु हैं।
वीरेन्द्र जैन
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आपसे पूर्णतः सहमत !
जवाब देंहटाएंयही काम उर्दू में मज़हबी ताकतें भी कर रही हैं . अरबी फारसी के ऐसे शब्द लाये जा रहे हैं जिनसे जन जीवन का वास्ता नहीं .वो भी उर्दू की नयी पहचान बना रहे हैं .लेकिन जनता दोनोंको नकार देगी . और ये प्रयास कोयी नए नहीं हैं .
भाषा पर यह सांस्कृतिक आक्रमण और बलात्कार अरसे से हो रहा है. मदरसे और उसकी पढ़ाई भी यही सब कुछ कर रही है . ऊपर से वे भी अतिवादी तैयार कर रहे हैं .