बुधवार, नवंबर 11, 2009

एक और आतंकी हमला

हिन्दी में शपथ के बहाने
मुम्बई में एक और आतंकी हमला
वीरेन्द्र जैन्
अभी मुम्बई पर 26 नवम्बर 2008 को हुये आंतकी हमले को एक साल भी नहीं बीता था कि एक और आतंकी हमला हो गया जो किसी ताज़ होटल में नही अपितु देश के संविधान पर लोकतंत्र की सबसे महत्वपूर्ण इमारतों में से एक विधान सभा भवन में हुआ। इसने पिछले दिनों संसद भवन पर हुये हमले की याद दिला दी। यह हमला इसलिये भी और ज्यादा भयानक है क्योंकि यह केवल इमारतों या व्यक्तियों पर किया गया हमला भर नहीं है अपितु यह हमारी लोक्तांत्रिक व्यवस्था और उसकी सरकार पर सीधा सीधा पूर्व चुनौती देकर किया गया हमला है।
इमारतें फिर से दुरस्त हो जाती हैं किंतु एक बार खोया हुआ विश्वास जल्दी वापिस नहीं लौटता। यह हमला न केवल हमें भिंडरवाला के खालिस्तान आन्दोलन से हुये नुकसान की ही याद दिलाता है अपितु कश्मीर समेत उत्तर पूर्व के राज्यों में चल रहे अलगाववादी आन्दोलनों की कड़ी में एक और राज्य को जोड़ने का काम करता है।
राज ठाकरे और उनके विधायकों द्वारा किये गये कामों की आलोचना के लिये शब्दों की ज़रूरत नहीं है क्योंकि वे शब्दों में तर्कों की भाषा में बात ही नहीं कर रहे हैं और ना ही किसी बहस की अपेक्षा ही रखते हैं। उनका सीधी सीधी चुनौती ताकत की है। हिन्दी का स्थान, शपथ की भाषा-चयन का अधिकार, राष्ट्रीय एकता का सवाल और संघीय व्यवस्था आदि की बातें तो तब की जा सकती थीं जब वे इस तरह का कोई सवाल उठाते। वे तो साफ साफ कहते हैं कि जैसी मेरी मर्ज़ी है वैसा करो या आमने सामने ताकत से टकराने के लिये तैयार रहो। लगभग ऐसी ही स्तिथियों में भिंडरावाले ने आपरेशन ब्लू स्टार की नौबत ला दी थी जिसमें हज़ारों मासूम लोग मारे गये थे तथा बाद में देश की प्रधान मंत्री को भी शहीद होना पड़ा था। जब इस तरह से संविधान को खुली चुनौती दी जा रही हो और पूर्व घोषणा के अनुसार ही कानून तोड़ा जा रहा हो तो सरकार के चुप बैठने का मतलब उसके न होने के बराबर है। लगता है राज ठाकरे को इसकी प्रेरणा संघ परिवार द्वारा नरसिन्हाराव सरकार को खुली चुनौती के साथ बाबरी मस्ज़िद तोड़ने और उससे उपजे ध्रुवीकरण से सत्ता सुख भोगने से मिली होगी। जब सत्तरह साल तक सुनवाई करते रहने वाली लिब्राहन आयोग के बाद भी दोषियों को सज़ा नहीं मिलेगी तो ऐसी प्रवृत्तियों का प्रसार होना सहज है। जब श्रीकृष्ण आयोग की रिपोर्ट के बाद भी बाल ठाकरे का कुछ नहीं बिगड़ेगा तो उनके उत्ताराधिकार के सवाल पर अलग हुये राज ठाकरे उसी रास्ते पर क्यों नहीं जायेंगे! नक्सलवादी तो दुरूह जंगलों में छुप कर सरकार को चुनौती देते हैं किंतु राज ठाकरे जैसे लोग तो बीच शहर में बैठ कर गैर कानूनी बातें कर रहे हैं। कांग्रेसी और एनसीपी नेताओं को सरकार में मलाईदार पद लेने से अधिक किसी बात में दिलचस्पी नहीं है और यदि राज ठाकरे द्वारा भाषायी-भावनाओं से भटकायी गयी जनता तक सही बात नहीं पहुंचती है तो एक बार फिर व्यापक हिंसा से बचा नहीं जा सकता।यदि ऐसा हुआ तो यह राज ठाकरे की ही जीत होगी।
राज ठाकरे के विधायकों द्वारा लोकतंत्र के मन्दिर में किये गये कृत्य की भले ही सारे द्लों द्वारा निन्दा की गयी किंतु इस आलोचना में शिवसेना मुखर नहीं रही और भाजपा की प्रतिक्रिया भी बेहद सुप्त सी और गोलमोल है जिससे कभी भी इधर उधर हुआ जा सकता है। औपचारिक बयान भी शाहनवाज़ खान से दिलवाया गया है। स्मरणीय है कि वरुण गान्धी के मामले में भी शाहनवाज़ और मुख्तार अबास नक़वी से ही बयान दिलवाया गया था और जब उन्होंने वरुण के बयान की आलोचना कर दी थी तो पूरे चुनाव के दौरान उन दोनों को ही उक्त दृश्य पटल से गायब कर दिया गया था जिससे यह सन्देश गया कि ये मुसलमान तो ऐसा बोलेंगे ही।
यह न हिन्दी का मामला है और न ही मनसे व समाजवादी का ही झगड़ा है अपितु यह केवल लाठी और लोकतंत्र का झगड़ा है। राज ठाकरे अपने चाचा के जीवन से प्रेरणा लेकर अपने आप को एक ऐसे गिरोह के मुखिया में बदल देना चाहते हैं जिसके इशारे पर देश की आर्थिक राजधानी में रहने वाले अपनी काली गोरी कमाई में से एक उचित हिस्सा उनके लिये उगलते रहें। जो काम मुम्बई के माफिया गिरोह करते आ रहे हैं वही काम बाल ठाकरे परिवार राजनीतिक पार्टी के नाम पर करता है। उनकी धमकी पर किसी भी कलाकार को फिल्म में से निकाला जा सकता है या किसी कलाकार को ब्लेकलिस्टेड किया जा सकता है। हंगल जैसे श्रेष्ठ्तम कलाकार तक इसका शिकार हो चुके हैं और अमिताभ बच्चन जैसे तथाकथित महानायक उनके दरवाजे पर ढोक देते हैं। राजनीति में अपना प्रभाव बनाने के लिये वे कोई भावनात्मक मुद्दा उठाते हैं जो धर्म क्षेत्र भाषा जैसे किसी भी विषय का हो सकता है। देश में बढती बेरोज़गारी के खिलाफ कोई आन्दोलन छेड़ने की बजाय वे स्थानीय निवासियों को इस आधार पर बरगलाते हैं कि उनकी बेरोजगारी और उससे जनित गरीबी के कारण ये दूसरे राज्य से आये हुये लोग हैं। वे इस बात को छुपा जाते हैं कि दूसरे राज्य से जो लोग आये हैं वे वहां फैली बेरोजगारी के कारण ही आये हैं और कम वेतन में काम करने तथा अपनी कुशलता के कारण स्थानीय लोगों की तुलना में पहले रोज़गार पा गये हैं। वे यह भी नहीं बताते कि ये रोजगार पैदा करने वाले और देने वाले भी हिन्दी भाषी राज्यों से ही आये हैं।। मुम्बई में सारे बड़े बड़े संस्थान जो सर्वाधिक रोजगार पैदा करते हैं ,वे गैर मराठी भाषी लोगों द्वारा ही स्थापित और संचालित हैं। जिस फिल्म उद्योग में सर्वाधिक धन लगा हुआ है उसमें मराठी भाषी कितने लोग हैं?
राज ठाकरे से बाल ठाकरे का झगड़ा केवल उत्तराधिकार का है इसलिये उनकी कार्यविधि के बारे में बात करते समय दोनों में भेद नहीं किया जा सकता। राज ठाकरे भले ही बाल ठाकरे की सम्पत्ति के सच्चे उत्तराधिकारी न हों किंतु उनकी दूषित राजनीति के सच्चे उत्तराधिकारी वे ही थे। बाल ठाकरे ने भले ही गलती कर दी हो किंतु उनके समर्थकों ने वास्तविक उत्तराधिकारी की पहचान में कोई गलती नहीं की। ताज़ा हथकण्डा राज ठाकरे को बाल ठाकरे की विरासत के और अधिक पास ले जायेगा।
इस सोची समझी घटना का एक आयाम यह भी है कि यह रोज़गार की मांग करने वालों को आपस में ही लड़ा कर उनके संघर्ष की दिशा को भटकायेगा। अवसर की तलाश में बैठी भाजपा मौका देखकर अपने पत्ते खोलेगी पर यही अवसरवादी रुख उसकी छवि को और गिरा देगी।

2 टिप्‍पणियां:

  1. बेहद जरूरी लेख।
    दरअसल ठाकरे बंधु लोकतंत्र को अपनी बपौती समझतें हैं, इसीलिए उनके हाथ व लाठियां मचलती रहती हैं।

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  2. बिल्कुल सही कहा आपने । ये लोग किसी आंतकवादी से कम नहीं हैं।

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