फिल्म समीक्षा
मटरू की बिजली का
मंडोला
वीरेन्द्र जैन
फिल्म
को डाइरेक्टर’स मीडिया कहा जाता है। आज से कुछ दशक पहले लोग केवल फिल्म अभिनेताओं
के नाम जानते थे, पर अब दर्शकों का एक बड़ा वर्ग समझ गया है कि फिल्में निर्देशक के
‘ओके’ कर देने के बाद ही आगे बढती है और उसके ‘कट’ पर कलाकारों का वश नहीं चलता।
वह उसी को ओके करता है जो दिखाना चाहता है। फिल्म के निर्माता, निर्देशक, संगीतकार
विशाल भारद्वाज फिल्म जगत में एक सम्मानित निर्देशक हैं, और उनको पसन्द करने वालों
का एक वर्ग है, जो उम्मीद करता है कि उनकी फिल्म यूं ही नहीं हो सकती। पिछले दिनों
से फिल्म जगत में संजय लीला भंसाली कल्ट चल निकला है जिसमें कुछ सामाजिक राजनीतिक
चेतना की बातों को मनोरंजन की चाशनी में लपेट कर पेश किया जाता है जिससे मनोरंजन
के लिए जाने वाले दर्शकों तक भी कुछ सामाजिक सन्देश पहुँचाया जा सके और फिल्म से
लाभ भी निकाला जा सके।
उल्लेखनीय है कि पिछले दिनों अन्ना हजारे
के भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन और गैंग रेप की शिकार युवती के पक्ष में दिल्ली में
बड़ा वर्ग सामने आया है। यह वर्ग आम मध्यमवर्गीय लोगों के साथ जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय
में बढ रहे एक्टिविज्म की उपज है। उल्लेखनीय है कि इस विश्वविद्यालय में पिछले
दिनों आइसा जैसे अल्ट्रा लेफ्ट का दबदबा बढा है। इस फिल्म में भी जो नायक है वह जेएनयू
से ही एलएलबी करके निकला युवक है और माओ
के नाम से छुप कर किसानों को संगठित करता है। फिल्म में किसानों से ज़मीन लेने के
लिए उद्योगपतियों के षड़यंत्र हैं जो किसानों को कर्ज़ के बोझ में डुबाने के बाद
उनकी फसल को बर्बाद करने के लिए गलत पेस्टीसाइड डालने की कोशिश तक करते हैं ताकि
वसूली के दबाव में किसान जमीन देने के लिए मजबूर हो जायें। राजनीति और उद्योगपतियों का गठजोड़ है, सरकारी
पद पर बैठे लोग फाइलों का निबटान भी उसी अन्दाज़ में करते हैं। शराब में डूबते जाते
धनी किसान हैं, विदेशी संस्कृति में डूबती उनकी युवा पीढी है, ऐसे बिके हुए कलाकार
हैं जिन्हें ये पता ही नहीं है कि वे बिक चुके हैं। नवधनाड्य वर्ग में पैदा हुयी
रहन सहन की अन्य सारी विकृतियां हैं, जैसे शराब पीकर हेलीकाप्टर उड़ाना जिनकी
अतिरंजना मनोरंजन का आधार बनती है। स्मरणीय है कि संजय गान्धी की म्रत्यु
हेलीकाप्टर दुर्घटना में हुयी थी और उस समय वे पाजामा कुर्ता और चप्पल पहिने हुए
थे जबकि एवियेशन की अपनी एक ड्रैस होती है। पर धन और सत्ता में अँधे लोग अपने
अलावा दूसरों की जान की परवाह भी नहीं करते। इसी फिल्म में एक दृष्य है जिसमें
शराब के नशे में धुत्त मंडोला हेलीकाप्टर में लगी आग से सिगरेट सुलगाने की कोशिश
करता है। मंडोला देशी शराब ‘गुलाबी’ का एडिक्ट हो चुका है जिसे छोड़ देने पर उसे जगह
जगह गुलाबी भैंस नजर आने लगती है। यह फिल्म के मनोरंजन का भाग है। फिल्म में
अनुष्का शर्मा[बिजली] के पोखर में स्नान के दृश्य हैं, तो गाँव में ताश पत्तों से चल
रहे जुए की बीमारी को भी रेखांकित किया गया है।
पंकज कपूर और शबाना आज़मी तो हिन्दी सिनेमा के सर्वश्रेष्ठ कलाकारों में से हैं ही, पर इमरान खान भी उम्मीदें जगाते हैं। अपने नाम से भी भ्रमित करने वाली इस फिल्म को केतन मेहता की ‘जाने भी दो यारो’ श्रेणी में रखा जा सकता है।
दर असल अभी यह मूल्यांकन होना शेष है कि
मनोरंजन की चाशनी में लपेट कर जो सामाजिक राजनीतिक सन्देश परोसने की यह कोशिशें हैं
वे कितनी प्रभावकारी हो रही है, ये सन्देश कितनी दूर तक सम्प्रेषित हो पा रहे हैं,
व इनके परिणाम कहीं नजर भी आ रहे हैं या नहीं। इन फिल्मों में मनोरंजन कहीं
सामाजिक सन्देश के ऊपर तो नहीं होता जा रहा है और श्याम बेनेगल, गोबिन्द निहलानी
स्कूल की फिल्मों को ये सिनेमा नुकसान तो नहीं पहुँचा रहा? पर इतना तो तय होता जा
रहा है कि अब सामाजिक यथार्थ विहीन सत्तर-अस्सी के दशक की लिजलिजी भावुकता वाली
फिल्में सफल नहीं होने वालीं।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा सिनेमा के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मोबाइल 9425674629
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें