शनिवार, मई 17, 2014

इस विजयोत्सव पर गर्व करने के समानांतर



इस विजयोत्सव पर गर्व करने के समानांतर
वीरेन्द्र जैन

हम दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र हैं, और सबसे अच्छे लोकतंत्र होने की सम्भावनाओं से भरे हुये हैं। सोलहवीं लोकसभा के लगभग हिंसा रहित चुनावों द्वारा सता के बदलने या कहें उलटने की घटना ने इस विश्वास को और भी बल दिया है। आइए इन परिणामों के उत्सवी माहौल में एक निगाह हाशिये की ओर भी डालें।
इन चुनावों ने भले ही गत पच्चीस वर्षों से चले आ रहे इस विश्वास को तोड़ दिया है कि बहु राष्ट्रीयताओं, विभिन्न क्षेत्रीयताओं वाले इस देश में कई दलों की गठबन्धन सरकारें ही सम्भव हैं, पर परिणामों पर निगाह डालने पर क्षेत्रीयताओं का जो ध्रुवीकरण देखने को मिल रहा है वह चौंका देने वाला है। तामिलनाडु में जयललिता के नेतृत्व वाले क्षेत्रीय दल एआईडीएमके ने देश भर में पड़े इक्यावन करोड़ मतों में से  एक करोड़ अठत्तर लाख मत लेकर लोकसभा की 39 में से 37 सीटें जीत ली हैं। यही पार्टी देश की दक्षिण सीमा पर बसे राज्य पर पूर्व से ही  शासन कर रही है। इसने भाजपा को छोड़ कर शेष सभी राष्ट्रीय दलों को हरा दिया और भाजपा भी वहाँ के छह छोटे क्षेत्रीय दलों से गठबन्धन करने और सर्वाधिक लोकप्रिय फिल्म अभिनेता रजनीकांत का समर्थन हासिल करने के बाद भी गठबन्धन में एक सीट ही निकालने में सफल हो सकी।
पूर्वी तट पर बसे उड़ीसा राज्य में भी बीजूजनतादल ने इक्कीस में से बीस लोकसभा सीटें जीत भाजपा को केवल एक सीट पर थम जाने के लिए विवश होना पड़ा। लोकसभा के साथ हुए विधानसभा चुनावों में भी इसी दल ने जीत हासिल की। उनके पक्ष में लगभग पिंचानवे लाख वोट पड़े।  
देश की पूर्वी सीमा के राज्य पश्चिम बंगाल में जहाँ राष्ट्रीय मान्य दल सीपीएम, कांग्रेस और भाजपा सक्रिय रूप से चुनाव के मैदान में थीं, वहाँ भी क्षेत्रीय दल तृणमूल कांग्रेस ने दो करोड़ बारह लाख वोट ले 42 में 34 सीटें जीत कर अपना दबदबा कायम कर लिया। उल्लेखनीय है कि प्रदेश में शासन कर रही ममता बनर्जी केन्द्र के साथ टकराव लेने के लिए जानी जाती रही हैं व विदेश नीति तक के मामलों में राष्ट्रीय सहमति नहीं बना पातीं। इन चुनावों में केवल उनकी पार्टी पर ही हिंसक टकराव के आरोप लगे हैं। बंगलादेशी शरणार्थियों के मामले में आम चुनावों के दौरान ही भाजपा के प्रधानमंत्री पद प्रत्याशी नरेन्द्र मोदी से उनकी बयानबाजी कटुतम स्तर तक पहुँच चुकी थी।
देश की पश्चिमी सीमा पर स्थित महाराष्ट्र में शिवसेना का तेज उभार भी ध्यान देने योग्य है। उसने 2009 में जीती ग्यारह सीटों की तुलना में अठारह सीटें जीती हैं और तिरेसठ लाख वोटों से बढ कर एक करोड़ तीन लाख वोट अर्जित किये। इतना ही नहीं उसके साथ भाजपा ने उनकी शर्तों पर समझौता किया था और तय है कि वे अपनी शर्तों पर केन्द्रीय मंत्रिमण्डल में स्थान व मंत्रालय लेंगे। उल्लेखनीय है कि वे अपनी मराठी राष्ट्रीयता को बहुत कठोरता से प्रदर्शित करते हुये भारतीयता को पीछे रखते हैं। गत वर्षों में उन्होंने बिहार और उत्तर प्रदेश से काम के सिलसिले में आये श्रमिकों के खिलाफ हिंसक दमन किये थे जिस पर भाजपा ने राजनीतिक हित देखते हुए अपने होंठ सिल लिये थे। स्मरणीय है कि गठबन्धन सरकारों में शिवसेना द्वारा दबाव बनाने का इतिहास पुराना है और अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार के समय बाला साहब ठाकरे ने अपने पिता के नाम से डाक टिकिट तक जारी करवा लिया था।
हाल ही में विभाजित आन्ध्र प्रदेश से जनित तेलंगाना और सीमान्ध्र में भी राष्ट्रीय दल किनारे कर दिये गये हैं और तेलंगाना में के सी आर की टीआरएस ने सरसठ लाख वोट लेकर ग्यारह सीटें जीत लीं तो तेलगुदेशम पार्टी ने एक करोढ उनतालीस लाख वोट लेकर सोलह सीटें जीत लीं। वायएसआरसी ने भी आर्थिक अनियमितताओं के ढेरों आरोपों के बाद भी एक करोड़ अड़तीस लाख वोट लेकर नौ सीटें जीत लीं। इन राज्यों में भाजपा तीन पर और कांग्रेस दो पर सिमिट कर रह गयी।
कश्मीर घाटी में नैशनल कांफ्रेंस और कांग्रेस को हरा कर तीनों सीटें पीडीपी द्वारा जीतना भी घाटी में चल रही हलचल का संकेत देता है। विचारणीय विषय यह है कि उपरोक्त राज्य हमारी सीमाओं के राज्य हैं जिनमें से राष्ट्रीय दल सिकुड़ रहे हैं और क्षेत्रीयतावादी दल उभर रहे हैं। स्मरणीय यह भी है कि प्रधानमंत्री बनने जा रहे नरेन्द्र मोदी तक ने एक बार केन्द्र से टकराव की स्थिति में धमकी दी थी कि अगर केन्द्र ने गुजरात की माँगें नहीं मानी तो गुजरात के लोग आयकर देने से इंकार कर सकते हैं। जब हम कश्मीर और पूर्वोत्तर के राज्यों में सेना के सहारे शासन करने को विवश हैं तब सीमावर्ती राज्यों के चुनावों में क्षेत्रीयता के तेज उभार की उपेक्षा नहीं कर सकते हैं। हमें किसी राजनीतिक समाधान की ओर बढ कर इन दलों को देश की मुख्यधारा में लाने की पहल करनी चाहिए।
वीरेन्द्र जैन
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