रविवार, अक्तूबर 07, 2018

पुस्तक विमर्श – यादों का कारवाँ [रुस्तम सैटिन स्मृति अंक]


पुस्तक विमर्श – यादों का कारवाँ [रुस्तम सैटिन स्मृति अंक]
वीरेन्द्र जैन

पिछले दिनों एक संयोग घटित हुआ।
जनसत्ता में महामना मदन मोहन मालवीय के पौत्र श्री लक्ष्मीधर मालवीय संस्मरण लिख रहे थे। उनमें से एक संस्मरण में उन्होंने रुस्तम सैटिन की चर्चा की जिनके छात्र जीवन में किये जा रहे स्वतंत्रता आन्दोलनों से प्रभावित होकर मालवीय जी ने स्वयं उन्हें बीएचयू में लाने और पढाई जारी रखने के लिए छात्रवृत्ति की व्यवस्था की थी। यह व्यवस्था उनके यह कहने के बाद भी की थी कि वे कम्युनिष्ट हैं। बाद में कामरेड रुस्तम सैटिन बनारस से विधायक भी चुने गये थे और चरण सिंह के नेतृत्व में बनी पहली संविद सरकार में पुलिस विभाग के उपमंत्री रहे थे।
इस लेख के साथ रुस्तम सैटिन जी का चित्र भी प्रकाशित हुआ था जिसे देख कर मुझे अपने पिता [श्री लक्ष्मी चन्द्र जैन] की कही बातें याद आयीं जो उनके साथ ही मैकडोनेल्ड हाई स्कूल झाँसी में पढते थे व उनके ही नेतृत्व में स्काउट के रूप में काम करते हुए राष्ट्रीय आन्दोलन में सहयोगी हुए थे। शायद उन्हीं से उन्होंने वामपंथी रुझान ग्रहण किया था। इसी रुझान के कारण उन्होंने उस समय चन्द्र शेखर आज़ाद के ग्रुप में सम्मलित होने का प्रयास किया था किंतु एक दुर्घटना में बचपन से ही उनका सिर हिलने के कारण उन्हें शामिल नहीं किया गया था क्योंकि भूमिगत आन्दोलन में उससे पहचान का खतरा था। बाद में वे उनके आउटर सर्किट में सहयोगी रहे थे व ललितपुर में नगरपालिका की नाकेदारी करके सूचना केन्द्र स्थापित किया था। आज़ाद जब खनियाधाना के जंगलों में बम बनाते थे तब सूचना और सामग्री पहुँचाने का केन्द्र यही नाका भी हुआ करता था। पिताजी से कामरेड रुस्तम सैटिन का नाम कई बार सुना था। जब वे चरण सिंह के मंत्रिमण्डल में मंत्री बने थे तब पिताजी बहुत खुश हुये थे। उनकी वह खुशी तब से मेरी स्मृतियों में दर्ज होकर रह गयी थी।  
जनसत्ता से फोटो लेकर अपने पिताजी के फोटो के साथ फेसबुक पर पोस्ट कर के मुझे आत्मीय खुशी मिली थी। यह बात आयी गयी हो गयी थी किंतु फेसबुक पिछले वर्षों की घटनाओं को फिर से याद दिलाया करता है सो इस वर्ष [2018] जब उसने उस पोस्ट की याद दिलायी तो मैंने उसे फिर शेयर कर दिया। संयोग यह हुआ कि इस पोस्ट को देख कर मेरी एक फेसबुक मित्र श्रीमती स्मिता तिवारी ने लाइक करते हुए लिखा कि कामरेड सैटिन उनके पिता के भी मित्र थे और उनके पुत्र श्री राजीव सैटिन उनके साथ ही बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी में पढते थे। दुर्भाग्य से राजीव तो अब नहीं हैं किंतु उनकी जीवन संगिनी श्रीमती रविन्दर सैटिन भी उनकी मित्र हैं।
उनकी इस टिप्पणी को श्रीमती रविन्दिर सैटिन ने लाइक किया और इस पोस्ट के माध्यम से वे भी मेरी फेसबुक मित्र बन गयीं। पिताजी के छात्र जीवन व उनके सामाजिक कार्यों के बारे में मैं और अधिक जानना चाहता था क्योंकि इस विषय पर उनसे अधिक संवाद नहीं हुआ था, पर मेरी सबसे बड़ी बहिन ने जरूर कभी कभी कुछ बताया था। इस जिज्ञासा में श्रीमती रविन्द्र सैटिन से अपने पिता के साथ रुस्तम जी के सम्बन्धों की चर्चा करते हुए उनके जीवन से सम्बन्धित किसी पुस्तक की उपलब्धता के बारे में जानना चाहा। उत्तर में मुझे 2001 में प्रकाशित उक्त पुस्तक प्राप्त हुयी, जो कामरेड सैटिन के जीवन के बारे में सम्भवतः इकलौती पुस्तकाकार सामग्री है। कामरेड सैटिन की पीढी ने अपने बारे में कम से कम सोचते हुए निरंतर समाज के लिए काम किया। उनके जीवन संघर्ष को देखते हुए लगता है कि अगर इतना काम आज के किसी नेता ने किया होता तो वह और उसके समर्थक लगातार अतिरंजित गाथाएं बखानते रहते।
उनकी मृत्यु के दो वर्ष बाद प्रकाशित यह स्मृति ग्रंथ कामरेड सैटिन के जीवन से सम्बन्धित उपलब्ध सामग्री का ग्रंथन भर है जिसमें उन्होंने अपने अंतिम दिनों में अस्वस्थता की दशा में स्मृति अनुसार बोल बोल कर कुछ लिखवाया था। यह पुस्तक परम्परानुसार सजग होकर लिखवायी जीवनी जैसी नहीं है इसलिए इसमें बनावट नहीं है और सब जैसे का तैसा कहा गया है। स्मृतियों के अलावा इसमें उनकी राष्ट्रीय आन्दोलन के दौर में लिखी गयी छन्द कविताएं हैं जो ऎतिहासिक महत्व रखती हैं। उल्लेखनीय है डा. शिवमंगल सिंह सुमन बनारस में उनके सहपाठी ही नहीं आन्दोलन के साथी भी थे जिन्होंने रेलवे के कुलियों की हड़ताल से लेकर अनेक मजदूर आन्दोलनों में भी कन्धे से कन्धा मिला कर उनका साथ दिया था। कामरेड सैटिन के निधन के बाद विभिन्न समाचार पत्र पत्रिकाओं में उन पर जो सामग्री प्रकाशित हुयी उसमें से भी जो उपलब्ध हो सकी उसे भी जैसे का तैसा संकलित किया गया है। पूरी पुस्तक में 360 पृष्ठ हैं। एक कम्युनिष्ट की तरह उन्होंने अपने जीवन के बारे में बताते हुए अपने ऎतिहासिक आन्दोलनों का श्रेय स्मृति में रहे अपने सैकड़ों आन्दोलनकारी साथियों को देते हुए उन्हें याद किया है और पुस्तक के 27 पृष्ठों में उनकी चर्चा है।
कामरेड रुस्तम, जिनका जन्म 1910 में कराची के एक पारसी परिवार में हुआ था, का जीवन निरंतर उतार चढाव भरी घटनाओं से भरा रहा है और हमारे स्वतंत्रता आन्दोलन के प्रमुख वर्ष उनके जीवन में समाये हुये हैं। उनका जीवन भी स्वतंत्रता आन्दोलन और स्वतंत्रता के बाद कम्युनिष्ट आन्दोलन में समाया हुआ है। वे अपने सीमित संसाधनों के साथ आजीवन अनथक संघर्षरत रहे। उन्होंने न केवल समाज सुधार, शिक्षा, स्वतंत्रता संग्राम, मजदूर किसान आन्दोलनों में ही हिस्सेदारी की अपितु चुनावी राजनीति में भी शामिल रहे। 1952 के पहले आमचुनाव से लेकर चौथे आमचुनाव तक वे कम्युनिष्ट पार्टी के उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़े। अपने पहले आम चुनाव में उन्होंने तत्कालीन मुख्यमंत्री सम्पूर्णानन्द को लगभग हरा ही दिया था अगर परिणाम बदलने के लिए नौकरशाही ने अस्वस्थ तरीके न अपनाये होते। उन दिनों चुनाव प्रणाली अपनी प्रारम्भिक अवस्था में थी और उम्मीदवार के अनुसार मतपेटियां हुआ करती थीं। मुख्यमंत्री जैसे सरकार के सबसे प्रमुख व्यक्ति के लिए नौकरशाही कुछ भी कर सकती थी।
जलियांवाला कांड के समय अमृतसर में ही प्राथमिक कक्षा के छात्र होने के कारण उन्होंने नौ साल की उम्र में जो प्रभाव ग्रहण किया उसने उन्हें अंग्रेजों से नफरत और उन्हें हटाने के लिए लगातार संघर्ष की राह पर चला दिया था। व्यापारी पिता के व्यापार में उतार चढाव, कम उम्र में माँ का निधन आदि घटनाओं ने उन्हें बार बार स्थान बदलने व विभिन्न आश्रयों में रहने को विवश किया। उनकी अच्छी वक्तव्य कला को बचपन में ही जो पहचान. प्रोत्साहन और सराहना मिली उसने उनकी सम्वाद क्षमता को कई गुना बढा दिया था व उन्हें एक अच्छे संगठनकर्ता की भूमिका दे दी थी। आज अनुमान लगाया जा सकता है कि कैसे उन्होंने मैकडोनेल्ड हाई स्कूल झाँसी में पढते हुए स्काउटों का ग्रुप बना लिया होगा और उसके ग्रुप लीडर बन गये होंगे। इसी ग्रुप ने काँग्रेस अधिवेशन में स्वयंसेवकों के रूप में काम किया था।
उन दिनों 1857 की क्रांति को साठ सत्तर साल ही हुए थे। झांसी में अंग्रेजों की छावनी हुआ करती थी। यद्यपि इस पुस्तक में उसकी चर्चा नहीं है किंतु उस समय उस हाईस्कूल के जो प्रिंसिपल विपिन बिहारी बनर्जी हुआ करते थे. उनके दादा या परदादा वकील थे। कहा जाता है कि उनको महारानी लक्ष्मी बाई ने अंग्रेजों से अपना केस लड़ने के लिए बुलवाया और बसाया था। यह बात कम ही याद की गयी है कि अंग्रेजों के खिलाफ बगावत करने से पहले लक्ष्मीबाई ने चार साल तक अदालती लड़ाई लड़ी थी। प्रिंसिपल बनर्जी जी प्रगतिशील और अंग्रेज विरोधी ही रहे होंगे इसीलिए उनके कार्यकाल में पढे जो लोग निकले उनमें से कई नाम तो विभिन्न क्षेत्रों के इतिहास में रेखांकित हुये हैं, उनमें कामरेड रमेश सिंहा, सुप्रसिद्ध आलोचक डा. रामविलास शर्मा, हाकी खिलाड़ी ध्यानचन्द, और रुस्तम सैटिन जैसे नाम तो हैं ही, न जाने कितने और होंगे। जब एक हाकी मैच के बाद मेरे पिता की साइकिल एक अंग्रेज बच्चे से टकरा गयी थी व उसके डैमफूल कहने पर उन्होंने उसकी पिटाई कर दी थी तब कठोर प्रिंसिपल बनर्जी ने उन्होंने दण्ड देने की जगह हाकी मैच जीतने पर खुशी जता कर जाने दिया था।
जब जलियांवाला बाग का नरसंहार हुआ था तब गाँधीजी ने पूरे देश को एक दिन का उपवास करने के लिए कहा था तब उनकी [कामरेड सैटिन की] माँ ने भी उपवास किया था जबकि वे राजनीति के बारे में कुछ नहीं जानती थीं। इसी नरसंहार के प्रतिरोध में उन्होंने अंग्रेज सम्राट के भाई ड्यूक आफ केनोट के आगमन पर मिले मैडल को जूते के फीते से बांध लिया था जिसका अन्य छात्रों ने भी अनुशरण किया था। उसकी सजा भी मिली थी। कुछ ही दिनों बाद उन्हें अमृतसर से कराची में आना पड़ा। कराची में पहली बार कांग्रेस के बड़े नेता मौलाना मुहम्मद अली व शौकत अली की उपस्थिति में उन्हें स्कूल में बोलने का मौका मिला और उस उम्र में इतना अच्छा बोला कि वे एक पारसी के लड़के के इतने अच्छे विचारों से बहुत खुश हुये। दोनों नेताओं ने भरपूर प्रशंसा की और वे सबकी निगाहों में विशिष्ट हो गये। बाद में पारिवारिक परिस्तिथियोंवश उन्हें झंसी आना पड़ा था। अपने छात्र जीवन से ही उन्होंने भाषण देने का कौशल अर्जित कर लिया था। वे अपनी प्रतिभा से अपने साथियों को सहयोगी बना लेने में सक्षम हो गये थे।  
 1928 में झांसी में कांग्रेस का उत्तर प्रदेश का राजनैतिक सम्मेलन हुआ जिसमें उनके नेतृत्व में छात्रों की एक बड़ी टीम ने स्वयंसेवकों की भूमिका निभायी थी। इसमें जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता थी जिन्होंने उनके काम की जानकारी मिलने पर उनसे काफी देर बात की और अमृतसर व कराची की प्रेरणाप्रद घटनाओं को विस्तार से सुना। नेहरू जी ने उनसे कहा था कि मुझे उम्मीद है कि पढाई पूरी करने के बाद तुम अपना पूरा समय देश सेवा में दोगे। इस कांफ्रेंस की समाप्ति के बाद उसी पण्डाल में दूसरी कांफ्रेंस पीजेंट्स एंड वर्कर्स पार्टी के नाम से हुयी। इस कांफ्रेंस को संगठित करने के लिए पीसी जोशी आये थे, [ जिन्हें बाद में कम्युनिष्ट आन्दोलन के संस्थापक सदस्यों की तरह याद किया जाता है] जो उस समय इलाहाबाद यूनीवर्सिटी में पढते थे। इस कांफ्रेंस का मुख्य उद्देश्य कम्युनिष्ट आंदोलन को संगठित करना था जिसकी अध्यक्षता बम्बई के मजदूर नेता झाबवाला ने की थी। इस कांफ्रेंस के स्वयंसेवक भी कामरेड रुस्तम सैटिन ने ही जुटाये थे। पीसी जोशी वहाँ दस दिन रुके थे और इन दस दिनों में उन्होंने कामरेड सैटिन को कम्युनिष्ट बना दिया था व झांसी में एक गुप्त कम्युनिष्ट पार्टी की कमेटी बनवा दी थी। इन लोगों ने क्रांतिकारी नाम से एक साप्ताहिक अखबार भी निकाला था। इसके बाद रेलवे में एक हड़ताल हुयी थी जिसके लिए अंग्रेज कम्युनिष्ट कामरेड स्प्रेट और कामरेड ब्रेडले झांसी आये थे जिनके साथ कामरेड सैटिन ने मिल कर काम किया था। बाद में झांसी के बहुत सारे कम्युनिष्ट नेता मेरठ षड़यंत्र केस में गिरफ्तार कर लिये गये थे किंतु घर की तलाशी में कुछ न मिलने के कारण कामरेड सैटिन बच गये थे। इस भागीदारी और पुलिस दमन से निकल कर वे कम्युनिष्ट पार्टी के सदस्य बन गये थे। उन दिनों काँग्रेस स्वतंत्रता के लिए चलने वाला आन्दोलन थी जिसमें कम्युनिष्ट भी काम करते थे।
इसी दौरान उनका परिचय काँग्रेस नेत्री पिस्ता देवी से हुआ जो स्वतंत्रता आन्दोलन की बहुत सक्रिय नेता थीं। उनसे उन्हें मातृवत स्नेह मिला और बचपन में ही छूट गयी माँ की कमी की भरपाई सी लगी। कई वर्ष बाद इन्हीं की एक बेटी मनोरमा से उनकी शादी हुयी। विदेशी कपड़ों की होली जलाने में पिस्तादेवी और उनकी चारों लड़कियां आगे रहती थीं। उल्लेखनीय है कि चन्द्रशेखर आज़ाद भी फरारी के दौरान इन्हीं पिस्तादेवी के पड़ोस में रहने वाले मास्टर रुद्र नारायण के यहाँ रुकते थे। पूछ्ताछ के लिए कामरेड सैटिन को हवालात में बन्द कर भीषण यातनाएं दी गयी थीं पर उन्होंने आज़ाद के प्रवास के बारे में मुँह नहीं खोला था।
पूर्ण स्वतंत्रता की मांग के लिए कांग्रेस ने सरकार को एक साल का नोटिस दिया था और जनता को जानकारी देने व समर्थन व सहयोग पाने के लिए गांधीजी ने देश भर का दौरा शुरू कर दिया था। इसी दौरे के अंतर्गत वे झंसी भी आये थे। छात्र सैटिन ने भी चन्दा एकत्रित किया व छात्रों की ओर से 101/- रुपयों की थैली भेंट करना तय किया। थैली भेंट करने का कार्यक्रम एक बड़ी आमसभा में रखा गया था जिसमें कृपलानी जी की घोर असहमति के बाबजूद उन्होंने थैली देने से पहले बोलने की शर्त रखी जो गाँधीजी के हस्तक्षेप के बाद स्वीकार कर ली गयी। वे दस मिनिट बोले और गाँधी जी को कहा कि अगर आप लाहौर में होने वाले अगले अधिवेशन में पूर्ण स्वतंत्रता का प्रस्ताव पास नहीं करेंगे तो हम लोग आपका भी विरोध करेंगे। गाँधीजी ने मुस्करा कर पीठ ठौंकी और कहा कि जैसा तुम लोग चाहते हो वैसा ही होगा।
उस दौर में यह गाँधीजी का ही प्रभाव था जिसमें सामाजिक और राजनीतिक कामों में भेद नहीं था, अपितु वे एक दूसरे के पूरक थे। कामरेड सैटिन ने न केवल दलित समाज के साथ खानपान का भेद नहीं रखा अपितु हैजे या प्लेग के समय में अपने साथी छात्रों का सहयोग जुटाया। लाहौर अधिवेशन में पास 1930 में पूर्ण स्वराज की घोषणा को हर नगर में पढे जाने का कार्यक्रम रखा गया था और ऐसा करने वालों की गिरफ्तारियां हुयीं। झांसी में जो पाँच लोग गिरफ्तार हुये थे उनमें सबसे कम उम्र के रुस्तम सैटिन ही थे जो इस कारण से अपनी इंटर की परीक्षा भी नहीं दे सके थे।
इसके बाद तो उनका आन्दोलन, गिरफ्तारी, यातना, अनशन आदि का लगातार चलने वाला इतिहास है। वे जेल में भी कैदियों की मांगों के लिए अनशन करते रहे और जेलें बदलती रहीं। झांसी से फतेह गढ, फिर फर्रुखाबाद, प्रतापगढ और न जाने कहाँ कहाँ की जेलों में भेजा गया। स्वतंत्रता आन्दोलन के इतिहास के बड़े बड़े नाम उनके साथ जेलों में रहे जिनसे जुड़े संस्मरण इस पुस्तक में दर्ज हैं। पं. बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ उनकी बगल वाली बैरक में थे और उसी दौरान उन्हें तनहाई में डाले जाने के समय जयशंकर प्रसाद की ‘आंसू’ पढने को मिली जिसका प्रभाव उनकी कविताओं पर पड़ा। झांसी में उसी समय बाबू सम्पूर्णानन्द भी जेल में आये थे जब सी क्लास के कैदियों को मिलने वाले खराब खाने के खिलाफ इन्होंने अनशन किया। बाद में जब इनका ट्रांसफर फैजाबाद जेल में कर दिया गया तब ए क्लास में जवाहरलाल नेहरू के साथ बी क्लास में राधेश्याम शर्मा, मंजर अली सोख्ता, फिरोज गाँधी, केशव देव मालवीय, महावीर त्यागी, बालकृष्ण शर्मा आदि इनके साथ थे। गदर पार्टी के मुस्तफा साहब भी थे जो जपानी जहाज पर भारत पर आक्रमण करके उसे मुक्त कराने के लिए आये थे। वे जौनपुर के थे और वर्षों से एक कोठरी में रहते हुए वृद्ध हो चुके थे किंतु छूटने के बाद फिर से अंग्रेजों से मोर्चा लेने के लिए कृत संकल्प थे। इसी जेल में कुछ दिन पहले हे अशफाक उल्लाह को फांसी लगी थी। साथी कैदियों ने बताया कि था कि वह बहुत सुन्दर स्वस्थ पढा लिखा नौजवान था जिसका स्वभाव इतना अच्छा था कि जेल सुप्रिंटिन्ट भी उसकी फांसी की कोठरी के आगे खड़े होकर आधे आधे घंटे तक बात किया करता था। जिस दिन उसे फांसी लगने वाली थी वह बहुत खुश था और गा रहा था। जेलर सुप्रिंटिंडेंट और मजिस्ट्रेट व सारे सिपाही इस तरह रो रहे थे जैसे उनके बेटे को फांसी लगनी हो।
फैजाबाद जेल में उनके अलावा कामरेड अशोक बोस भी बन्द थे। इन दो कम्युनिष्टों के साथ अनेक कांग्रेसी भी थे जो मेरठ षड़यंत्र केस के आरोपियों ने जो कम्युनिष्ट थे, खुल कर अपने ऊपर लगे आरोप स्वीकारे थे और उसको सही ठहराने के लिए अदालत में जो लम्बे लम्बे बयान दिये थे वे अखबारों में छप रहे थे जिससे पाठकों का एक बड़ा वर्ग प्रभावित हो रहा था।
एक बार छूटने के बाद उन्हें फिर गिरफ्तार कर लिया गया और लखनऊ के कैम्प जेल में रखा गया था जो टीन की चादरों वाले छत की जेल थी। इस जेल की गर्मी में अठारह सौ लोग मर गये थे। यहाँ खाना बनाना पड़ता था। उनके साथ झांसी के ही कृष्णा, बनारस के कमलापति त्रिपाठी, देहरादून के महावीर त्यागी आदि थे। जल्दी ही इन लोगों को बी क्लास मिल गया और कैम्प जेल से लखनऊ के ही जिला जेल में ट्रांसफर कर दिये गये। यहाँ बाबू शिव प्रसाद गुप्त, जवाहरलाल नेहरू के साले श्रीकृष्ण कौल आदि कई लोग थे। कौल साहब इंगलैंड से सांपों के जहर के बारे में पढ कर लौटे थे। जेल में उनके साथी कैदियों में गोबिन्द बल्लभ पंत, ही नहीं थे अपितु फिरोज गाँधी का बिस्तर बगल में लगता था जो पारसी होने के कारण उनके प्रति अतिरिक्त रूप से सह्रदय थे। काँग्रेस की 1933 का अधिवेशन कलकत्ता में रखा गया था तब पार्टी पर प्रतिबन्ध था इसलिए आयोजन गुप्त रूप से रखा गया था जहाँ छापा पड़ने के बाद वे गिरफ्तार कर लिये गये, उनके साथ आत्माराम गोबिन्द राम खेर भी थे। उन्हें दमदम जेल में रहना पड़ा। बीच में गिरफ्तार होते हुए जब अधिवेशन के अध्यक्ष मदन मोहन मालवीय कलकत्ता पहुँचे तब तक बहुत लाठी चार्ज हो चुके थे और सैकड़ों लोगों के सिर फूट चुके थे। उन्होंने इन घटनाओं की जाँच करने का निर्णय किया और सबसे बात की। रुस्तम सैटिन के प्रतिरोध को जानकर जब उन्होंने विस्तार से जाना कि आन्दोलनों के कारण वे पिछले तीन सालों में पढाई छूट जाने के कारण इंटरमीडिएट का इम्तिहान नहीं दे सके तो उन्होंने आगे पढने के लिए बनारस चलने और यूनीवर्सिटी में पढने का प्रस्ताव किया। कुछ संवाद के बाद वे बनारस जाने को तैयार हो गये जो उनके जीवन का अगला पढाव था। बाद में तो उनकी पढाई, आन्दोलन, जेल, अनशन, फिर चुनावों आदि के विस्तारित रोमांचक किस्से हैं। विधायक बनने के बाद किसानों के सम्बन्ध में उन्हीं के सवाल पर सरकार गिरी थी और काँग्रेस छोड़ने वाले चौधरी चरण सिंह के नेतृत्व में सरकार बनी जिसमें वे उप पुलिस मंत्री बने और इस दौरान एक कम्युनिष्ट की तरह कुछ मानक स्थापित किये।
इस अमूल्य पुस्तक का कोई मूल्य मुद्रित नहीं है पर मेरे लिए अलग तरह से मूल्यवान है क्योंकि  इसके साथ मेरे पिता की यादें जुड़ी हैं। पर मैं यह जानता हूं कि पुस्तक की समुचित प्रतियां उपलब्ध नहीं होंगीं इसलिए आकांक्षा है कि इस पुस्तक को थोड़े संक्षिप्तीकरण और सम्पादन के साथ पुनर्प्रकाशित किया जाये। ऐसी पुस्तक स्वतंत्रता आन्दोलन में कम्युनिष्टों के योगदान व मुख्यधारा से सहयोग का अध्ययन करने वालों के लिए बहुत उपयोगी होगी।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग, रायसेन रोड
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