बुधवार, अगस्त 12, 2020

राहत इन्दौरी और उनकी शायरी की लोकप्रियता


राहत इन्दौरी और उनकी शायरी की लोकप्रियतानागरिकता कानून: राहत इन्‍दौरी ने ...
वीरेन्द्र जैन
राहत इन्दौरी के निधन के बाद उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करने के साथ उनकी शायरी को याद करने वालों की बाढ सी आ गयी। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि उनके शे’रों ने हर एक को गुदगुदाया था और वे शे’र उनकी स्मृतियों में दर्ज हो गये थे।
किसी समय मैंने भी कवि सम्मेलन के मंचों पर स्थान बनाने की कोशिश की थी। इसी कोशिश में मैंने लोकप्रियता पाने के लिए पत्रिकाओं में लिखना शुरू किया था। ज्यादा छपने के लिए जैसा सम्पादक छापते थे, वैसा लिखना शुरू कर दिया था। मैं सुन तो लिया जाता था पर दूरगामी प्रभाव नहीं छोड़ पाता था। उन दिनों मेरे एक मित्र हास्य- व्यंग कवि हरि ओम बेचैन हुआ करते थे, जो मंचों पर बुलाये जाते थे। एक दिन उन्होंने मुझे सलाह दी कि मंच कोई भी हो रंगमंच या कविता का मंच, वहाँ प्रस्तुतीकरण बहुत महत्वपूर्ण होता है। मेरी समझ में बात आ गयी थी और मैंने उस दिशा में प्रयास बन्द कर दिये थे। राहत इन्दौरी की लोकप्रियता का मूल्यांकन करता हूं तो बेचैन की बात याद आती हैं। राहत जी की जो विशेषताएं थीं, उनमें से एक उनका सशक्त प्रस्तुतिकरण था। वे सम्वाद की तरह अपने शे’र सुनाते थे इसमें उनके हावभाव आकाश की ओर देखना हाथों का संचालन और स्वर का गर्जन शामिल था। श्रोताओं में कोई ऐसा नहीं होता था जो उनके रचना पाठ के समय आपसी बात कर रहा हो या सो रहा हो। आप पसन्द करें या ना करें किंतु जब राहत इन्दौरी सुना रहे होते थे तो आपको सुनना जरूरी होता था, कोई उठ कर नहीं जा सकता था। मंच से लेकर श्रोता समुदाय तक सबको ऐसा लगता था कि जैसे उसे ही सम्बोधित कर रहे हैं। उनकी गज़लें फिसलती नहीं थीं अपितु कील की तरह ठुकती थीं। यह सुनार की तरह की ठुक ठुक नहीं होती थी अपितु लुहार की तरह पूरी शक्ति से किये गये प्रहार की तरह होती थीं। वे दीवार में ठुकी उस कील की तरह होती थीं कि अगर ठोकने वाला उसे खुद भी उखाड़ना चाहे तो उसे मुश्किल पड़ेगी।
राहत इन्दौरी के कथ्य को मैं दुष्यंत कुमार से जोड़ कर देखता हूं। वे समकालीन राजनीति और समाज पर वैसी ही टिप्पणियां करते थे जैसी कि दुष्यंत ने इमरजैसी से पहले जय प्रकाश के सम्पूर्ण क्रांति आन्दोलन पर की थीं। वह जनता का स्वर था जिसे दुष्यंत ने शे’रों में ढाला था, ठीक इसी तरह राहत के शे’रों ने साम्प्रदायिक नफरत फैलाने वाले दौर में धर्म निरपेक्ष लोगों की आवाज बन कर किया। उनकी विशेषता यह भी थी कि वे अपने निशाने को साफ साफ लक्षित करते थे, और दूसरे धर्मनिरपेक्ष कवियों की तरह घुमा फिरा कर बात नहीं करते थे। इस स्पष्टवादिता के कुछ व्यावसायिक खतरे भी होते हैं, जिसे उठाने का काम राहत इन्दौरी ने किया और इस दुस्साहस को ही अपनी सफलता का आधार बना लिया। यह इस बात का भी प्रमाण था कि जनता क्या सोच रही है। राहत इन्दौरी का विरोध भी हुआ और इस विरोध ने भी उन्हें एक पहचान दी। उनका विरोध करने वालों में एक खास तरह की साम्प्रदायिक राजनीति करने वाले ही सामने आये। कुछ लोग इसी आधार पर उन्हें मुस्लिम पक्षधर बता कर हिन्दू साम्प्रदायिकता से प्रभावित लोगों में उनके खिलाफ प्रचार करते थे। उनके मुँह से तो मैंने कभी नहीं सुना किंतु मेरे मन में उनकी पक्षधरता के लिए जो तर्क उभरे वे स्वाभाविक थे। मैं ऐसे लोगों से कहता था कि पाकिस्तान बनाने के लिए जिम्मेवार लोगों का अपराधबोध हिन्दुस्तान का मुसलमान क्यों सहे जबकि यहां रह जाने वाले वे लोग थे जिन्होंने उनके धर्म पर आधारित एक देश बन जाने के बाबजूद भी ऐसे देश में रहना मंजूर किया जो गांधी, नेहरू, पटेल और अबुल कलाम आज़ाद का मुल्क था जिसने एक स्वर से इसे धर्मनिरपेक्ष राज्य बनाने की घोषणा की थी। उनका पकिस्तान न जाना उन्हें दूसरे गैर मुस्लिम धर्मावलम्बियों से अधिक देशभक्त बनाता है। जिनके पूर्वजों ने सात सौ साल इस देश पर बादशाह्त की वे इस देश को छोड़ कर क्यों जाते। राहत इन्दौरी का यही स्वर था जिसे पूरे हिन्दुस्तान का भरपूर समर्थन मिला कि – सभी का खून है शामिल वतन की मिट्टी में /किसी के बाप का हिन्दोस्तान थोड़े है। इस देश के मुसलमानों को भी इस पर गर्व करने का उतना ही हक है और इसे व्यक्त करने के लिए राहत को कहना पड़ा कि – हमारे ताज अजायब घरों में रक्खे हैं। हमारे मिली जुली बस्तियों और उनके बीच एकता की जरूरत को रेखांकित करने के लिए उन्होंने कहा कि – लगेगी आग तो आयेंगे कई घर ज़द में, यहाँ पर सिर्फ हमारा मकान थोड़े है। लोकतंत्र में पद के अस्थायित्व की चर्चा करते हुए तानाशाही, राजशाही के तरीके अपनाने वालों को चेताते हुए वे कहते हैं- आज जो साहिबे मसनद हैं, कल नहीं होंगे, किरायेदार हैं, जाती मकान थोड़े है। मेरा मानना है के राष्ट्रगीत सुजलाम सुफलाम मलयज शीतलाम से ही नहीं ऐसे भी लिखा जा सकता है-
चलते फिरते हुए मेहताब दिखायेंगे तुम्हें
मुझसे मिलना कभी पंजाब दिखायेंगे तुम्हें
राहत की भाषा हिन्दी या उर्दू नहीं अपितु हिन्दुस्तानी है। प्रेमचन्द से लेकर नीरज तक ने इसी भाषा में साहित्य रचना के पक्ष में समर्थन दिया है। नीरज जी ने तो लिखा था –
अपनी बानी, प्रेम की बानी, घर समझे न गली समझे,
या इसे नन्द लला समझे, या इसे ब्रज की लली समझे /
हिन्दी नहीं यह उर्दू नहीं यह/ ये है पिया की कसम /
आंख का पानी इसकी सियाही / दर्द की इसकी कलम/
लागे किसी को मिसरी सी मीठी/ कोई नमक की डली समझे/  
इस दौर के जितने भी रचनाकारों ने लोकप्रियता अर्जित की है वे सभी हिन्दुस्तानी में लिखने वाले लोग हैं। नीरज, मुकुट बिहारी सरोज, बलवीर सिंह रंग, दुष्यंत कुमार, बशीर बद्र, मुनव्वर राना, निदा फाज़ली,  सभी अपनी भाषा विम्बों, और प्रतीकों में मिली जुली संस्कृति का प्रतिनिधित्व करते हैं। राहत भी उनमें से एक हैं। उन्हें शायद ही कभी किसी शब्द का अर्थ बताने की जरूरत पड़ती थी। वे हिन्दी के कवि सम्मेलनों में भी उतने ही सम्मान के साथ बुलाये जाते थे, जितने कि मुशायरों में और दोनों में ही हर धर्म और भाषा बोलने वाले लोग उन्हें उतने ही चाव से सुनते थे।
वाचिक कविता का एक और गुण सहज ग्राह्यता का होना भी है। लुत्फ देने वाला शे’र जल्दी प्रवेश कर जाता है। जैसे खाना स्वादिष्ट और हल्का हो व उसके साथ ही चटनी भी हो। राहत की कविता में ये दोनों ही गुण थे। जिन लोगों की कविता में ये गुण नहीं होते उन्हें अपनी कविता सुनाने के पहले और बीच में लतीफों का सहारा लेना पड़ता है। राहत के शे’रों में ही ये गुण गुंथे हुये थे। हिन्दी के नये समीक्षकों के बीच भले ही साहित्य में स्थान देने के लिए लोकप्रियता को दुर्गुण की तरह लिया जाता हो, किंतु मुझे विश्वास है कि यह मापक किसी दिन गलत साबित होगा और लोकप्रियता को दूसरे मानकों के साथ उचित स्थान प्राप्त होगा। राहत के शे’र इतनी विविधता के साथ जनमानस में फैले हुये हैं कि उनका अलग से जिक्र करने की जरूरत मुझे महसूस नहीं हो रही है।   
वीरेन्द्र जैन
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अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मो. 9425674629


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